वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 107
From जैनकोष
इय णाऊण खमागुण खमेहि तिविहेण सयलजीवाणं ।
चिरसंचियकोहसिहिं वरखमसलिलेण सिंचेह ।।107।।
(400) क्षमासलिल से क्रोधाग्नि का शमन―इस ग्रंथ का नाम भावपाहुड़ है । यह कुंदकुंदाचार्य द्वारा रचित है । वे मुनियों को समझा रहे हैं । तो जो बात मुनियों को समझा रहे उसे अपने को भी समझना चाहिए कि हमें भी समझा रहे । हे मुनिवर, हे क्षमागुणधारी मुनिराज तुम मन, वचन, काय से सब जीवों को क्षमा कर दो । जैसे कोई लोभी पुरुष अपने धन की हानि समझकर गम खाते हैं और दूसरे को माफ करते हैं । चाहे वह कितना ही प्रहार कर रहा हो, पर जहाँ समझते है कि इनसे हम को इतनी निधि मिलनी है, वहाँ अपनी शक्ति के अनुसार सब सह लेते हैं और उस पर क्रोध नहीं करते । यह तो है लोभी जनों की कथा । अब ज्ञानी जनों की कथा सुनो―ज्ञानी को लोभ है तो अपने ज्ञान और धर्म की रक्षा का । ज्ञानी जानता है कि दूसरे लोग जो बुरा बोल रहे हैं या प्रहार कर रहे हैं, यदि में उनमें लग जाऊं तो हमारी ज्ञान और आनंद की निधि खतम हो जायेगी । हमारा जो आत्मध्यान है वह नष्ट हो जायेगा । सो अपनी आत्मनिधि बचाने के प्रयोजन से ये मुनि ज्ञानी गृहस्थ सब जीवों को, क्षमा करते हैं । तुम्हें जो करना हो सो करो, हमें कुछ प्रयोजन नहीं । मैं तो अपने इस ज्ञानस्वभाव में ही रहूंगा । तो अपना धर्म बचाने के लिए, अपना ज्ञान और आनंद सही रखने के लिए वे सब जीवों को क्षमा करते हैं । सो क्या करें? चिर काल से संचित जो क्रोधरूप अग्नि है उस क्रोध अग्नि को उत्तम क्षमारूपी जल से सीचिये याने क्षमारूपी जल क्रोध अग्नि पर डाल दीजिये जिससे क्रोध कषाय बुझ जाये । कितने जीवों को क्षमा करें? क्या इन मनुष्यों को? बाकी मनुष्यों को क्षमा न करें क्या? सब मनुष्यों को । तो बाकी पशु-पक्षियों को क्षमा न करें क्या? अभी कोई मच्छर काट ले तो झट उसे चपटा मारकर खतम कर देते । तो ऐसा करना चाहिये क्या? नहीं, सब जीवों को क्षमा करें । एकेंद्रिय से लेकर पंचेंद्रिय तक के सब जीवों को क्षमा करें । उन्हें सतायें नहीं, और उनके द्वारा कोई तकलीफ पहुंचती हो तो भी उन्हें क्षमा कर दें । कभी भी किसी के प्रति खोटे भाव मत करें ।
(401) धर्मधुन में अन्य सबकी उपेक्षा―जिनको अपने धर्म की रक्षा की धुन है और अपने को ज्ञान प्रकाश में रखने की धुन है वह विशुद्ध चिंतन करता है । यदि दूसरे ने गाली दी वह मुनि सोचता है कि इस भाई ने मुझे गाली ही तो दी, मारा तो नहीं, इतनी तो खैर है और कदाचित् उसने पीट भी दिया तो इसने पीटा ही तो है मुझे, जान से तो नहीं मारा, यह भी खैर है । कभी जान से भी मार दे तो वह ज्ञानी मुनि यह सोचता है कि इसने मेरा धर्म तो नहीं नष्ट किया, आखिर प्राण ही तो नष्ट किया, क्योंकि वहतो स्वभाव की धुन में लगा है―मैं ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञान ही मेरा स्वरूप है, अन्य कुछ मेरा स्वरूप नहीं है मैं भगवान के स्वरूप की तरह हूँ । यहाँ इतना सोचने की बात है कि यहाँ तक मुनि जन क्षमाभाव रखते हैं । सो अपने को शांति में रखना पसंद करें, और यह बन सकती है कि दूसरे लोग कुछ भी करें उनकी उपेक्षा कर दें । कैसे उपेक्षा बने? मानों दूसरा अपशब्द बोल रहा तो उसका मुख है, उसका हृदय है, उसका अज्ञान है सो वह अपनी चेष्टा कर रहा है, वे शब्द मेरे में नहीं आये, और न उसने मुझको गाली दी । मैं भी यदि उसकी ही तरह अज्ञानी बन जाऊं तो अपने आप दुःखी होऊंगा । तो हम अपने ज्ञान विवेक की संभाल करें और अपने पर क्षमा भाव लायें ।