वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 108
From जैनकोष
दिक्खाकालाईयं भावहि अवियार दंसणविसुद्धो ।
उत्तमबोहिणिमित्तं असारसाराणि मुणिऊण ।।108।।
(402) विरक्ति को कायम रखने के लिये उपदेश―जो मुनि अपने व्रत के माफिक ठीक नहीं चल रहा उसे समझाया है इस गाथा में कि हे विचारहीन साधु ! इस सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति के लिए असार और सार बात को जानो और अपने सम्यग्दर्शन को निर्मल कर । और थोड़ा ध्यान में लावो कि जब तुमने दीक्षा ली थी उससमय तुम्हारा कितना ऊंचा भाव था, अब उसी भाव में रहो । प्राय: ऐसा होता है कि जब कोई दीक्षा लेता है तो उस समय उसके बहुत ऊंचे भाव रहते हैं, खूब विरक्ति, किसी से प्रयोजन नहीं । जब मुनि हो गए तो कुछ समय बाद उसके भाव उतने ऊंचे नहीं रह पाते । और ऊंचे भाव न रह सके तो कुछ प्रमाद करने लगा, कुछ दोष करने लगा तो ऐसे मुनियों को समझाया है कि हे मुने ! दीक्षा के समय तुम्हारे जैसे ऊंचे परिणाम थे उनका ख्याल करो । अब कहां भाग रहे हो? अत: विश्राम से बैठ जावो और अपने अंदर चिंतन करो कि अनादि काल से मैंने विषयों में लीन होकर संसार में परिभ्रमण करते हुए अनगिनते दुःख पाये और निरंतर चाहता रहा कि मेरे को सुख मिले पर रंच भी सुख न मिला, बल्कि ज्यों-ज्यों सुख के लिए विषयों के साधन बनाये त्यों-त्यों मेरे दुःख बढ़ते गए । सो मैंने अपने ही हाथों अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारी, मोह राग बढ़ाया और कष्ट पाया । उस राग को दूर करने के लिए और भी राग बढ़ाया फल यह हुआ कि दुःख और भी बढ़ता गया ।
(403) व्यामोह में अपने ही प्रयत्न से अपना ही घात―एक उदाहरण है कि कोई कसाई किसी बकरे को कत्ल करने के लिए जा रहा था, कसाईखाना दूर था, वह रास्तेमें एक पेड़ के नीचे ठहर गया और कसाई का बहुत खोटा भाव ऐसा चल रहा था कि उसको मारने में देर हो रही थी, वह यह चाह रहा था कि मैं इसे जल्दी ही मारूं । तो उसी समय बकरे ने क्या किया कि वहीं अपने पैरों से मिट्टी खरोंचने लगा, कुछ ही खरोंच पाया था कि उसमें से कोई गड़ा हुआ चाकू निकल आया । कसाई ने उस बकरे का वहीं वध कर दिया । बताओ उसके वध होने में अभी कुछ तो देर थी ही, पर अपने ही पैरों से खुरोचकर अपनी जल्दी ही हत्या करवा ली । यही कहलाता है अपने हाथों अपने पैर में कुल्हाड़ी मारना । तो ऐसे ही समझो कि संसार के ये सब जीव अपने हाथों अपने आप पर छुरी चलवा रहें हैं, कैसे कि हो रहे हैं दुःखी, आकुलित और उस आकुलता को दूर करने के लिए विषय साधनों में लग रहे हैं, कुटुंब के प्यार में लग रहे, परिग्रह के संचय में लग रहे तो उसका फल क्या होता है कि और भी दुःख बढ़ते रहते हैं । तो दुःख दूर करने के लिए प्रयत्न करते हैं, मगर उसी प्रयत्न से दुःख और भी बढ़ता रहता है ।
(404) व्यग्रता के साधनों से हटकर शांति के साधनों में अपने को लगने का उपदेश― जो ज्ञानी पुरुष है वह चिंतन कर रहा है कि इस संसार में, इन नारकादिक गतियों में मैंने ऐसे दुःख भोगा कि जिनका स्मरण आये तो दिल दहल जाये । अच्छा जो दुःख भोगा उनकी तो चर्चा छोड़ । तू इस ही भव के दुःख का ख्याल कर, एक ही दुःख का स्मरण कर ले । तूने निर्धन अवस्था में काम की बाधा से युक्त होकर स्त्री जनों में राग किया और काम शस्त्र के द्वारा तेरे चैतन्य प्राण का घात होता रहा, पर जरा मन स्वस्थ हुआ, कुछ भोग सामग्री मिल गई तो उस दुःख रूपी अग्नि की ज्वाला को तू ने भुला दिया, कितने दुःख पाये यह भुला दिया कोई जरा सा विषय पाकर । सो उस समय जब तेरे को दुःख हो रहा था उस दुःख के होते समय जो तेरे बुद्धि जग रही थी वह अगर स्थिर रहती तो आज तुझे दुःख न होता । सो हे मुने खूब चिंतन कर और अपने को विषय कषाय के भावों में मत लगा । तू अपने अविकार ज्ञानस्वरूप का चिंतन कर । जब तू दीक्षा ले रहा था या जब तेरे पर और दुःख आ रहे थे तो कैसा आत्मा निर्मल बना रहा था, अब उन सब बातों को तू भूल गया है और विषयों की ओर चित्त लगा दिया है । सो हे अपात्र मुनि ! यदि तू रत्नत्रय को पाना चाहता है तो अपने विवेक को बना और सार असार का सही निर्णय कर, अविकार अपने स्वरूप को निरख । देख यह ही तो यह देह है । इसको अगर विषयों के साधनों में जुटाया तो जीवन व्यर्थ गमाया और इस अस्थिर शरीर से अगर स्थिर आत्मा का ध्यान बनाया तो तूने एक बड़ा लाभ पाया । सो देख अगर इस अस्थिर शरीर से कोई स्थिर बात बनती है, स्वच्छ बात बनती है तो क्या उसे न करना चाहिए? अर्थात् अवश्य ही करना चाहिए । याने इस भव को मोक्षमार्ग में लगाओ जिससे कि निर्मल अनंत गुणों से श्रेष्ठ वह मोक्षपद प्राप्त हो । तो तू सार असार का निर्णय कर कि सार क्या है और असार क्या है?
(405) आलोचना, निजनिंदा व आराधना की सारभूतता―प्रथम तो यह बात जान कि दोष शरीर संग से होते हैं, पर दोषों की आलोचना न करें तो वह असार है और दोषों की आलोचना करें तो सार है । आलोचना कहते हैं उसे कि अपने गुरुवों से दोष को प्रकट कर देना कि महाराज हम से यह अपराध हो गया है । वे गुरु उसे कोई प्रायश्चित बतायेंगे और उससे वह शुद्ध हो जायेगा । दूसरे की निंदा करना असार है और अपनी निंदा करना सार है । खुद से जो अवगुण बना, अपराध बना, उसकी निंदा कर रहा, मैंने बुरा किया, अब यह न करना चाहिये । यदि बहुत-बहुत संपदा मिल गई और दूसरों की निंदा में ही चित्त जाता रहा तो उससे मार्ग अच्छा न मिलेगा । जो व्रत ग्रहण किया उनका निर्दोष पालन करे तो सार है और व्रत में दोष लगाना असार है ।
(406) सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र व सम्यक् तप की सारभूतता―सच्चा ज्ञान बनाना सार है और अज्ञान रखना, मोह रखना, वस्तुस्वरूप का परिचय ही नहीं सो अंधेरे में बना रहना असार है । मिथ्यात्व असार है जौर सम्यग्दर्शन सार है । यह जीव अनंत काल से अब तक जो भटका वह मिथ्यात्व में ही भटका । मिथ्यात्व दो तरह का है―अगृहीतमिथ्यात्व । शरीर को माना कि यह मैं हूँ उसको तो हुआ अगृहीतमिथ्यात्व, क्यों की इसकी कहीं पाठशाला नहीं होती कि इस शरीर को मानो कि यह मैं हूँ, यह जीव स्वयं अज्ञानी बन रहा, पर जो कुदेव को पूजता, वृक्षों को पूजता, अनेक प्रकार के कुदेवों को पूजता वह उसका गृहीत मिथ्यात्व है । इसे अच्छा समझता है तब करता है या अपने माता पिता को उस तरह करता हुआ देखता है तो इस मिथ्यात्व को करता है । तो मिथ्यात्व तो असार है और सम्यग्दर्शन सार है । विषयों में रमण करना असार है और आत्मस्वरूप में रमण करना सार है । खोटा तप असार है, योग्य तप सार है । जो करने योग्य कार्य नहीं हैं वे सब असार हैं । जो विषय दिलाने के काम हैं, करने योग्य नहीं हैं वे सब असार हैं । तो हे मुनि ! तू सार असार का निर्णय कर । असार से हट और सार में लग ।
(407) अभयदान, सत्यवाद, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह व रात्रिभुक्तित्याग की सारभूतता―जीवों की हिंसा करना असार है और जीवों को अभयदान देना सार है । कोई चींटी पर पानी आ रहा तो उस चींटी को वहाँ से उठाकर अन्यत्र कहीं बैठा दे, यह अभयदान हुआ । किसी को कोई घबड़ाहट है, व्यग्रता है तो बड़े नम्र शब्दों में उसे ऐसा संबोधे कि उसकी घबड़ाहट दूर हो जाये, यह अभयदान है । यह अभयदान सार है । मिथ्या भाषण करना असार है । यहाँ किसके लिए झूठ बोला जाता? कोई यह मत समझे कि ये जगत के पुण्य समागम झूठ बोलने से मिले । हां पुण्य का उदय है सो मिल गए हैं । झूठ बोलकर तो व्यर्थ ही अपने आत्मा को ठगा जा रहा है । उससे होता पाप बंध और उसका फल बहुत काल तक भोगना पड़ेगा । तो झूठ, चोरी, कुशील, और परिग्रह ये सब असार हैं और सत्य भाषण करना, चोरी का त्याग करना, शील से रहना, निर्ग्रंथ रहना यह सब सार है । रात्रिभोजन असार है और दिन में ही एक बार प्रासुक भोजन करना सार है । जैन धर्म में रात्रिभोजन के त्याग की बड़ी मुख्यता थी, रात्रि भोजनत्याग का उपदेश न देना पड़ता था, कोई समय ऐसा था । अधिक से अधिक पानी के त्याग की बात कहते थे कि रात्रिजल का त्याग कर सकते हो तो करो, पर रात्रिभोजन के त्याग का उपदेश नहीं करना पड़ता था, किंतु आज का इतना श्रद्धाहीन समय है कि जा रहे और रात्रि के 12 बजे हैं, जा रहे धर्म करने, पर आधी रात को ही कुछ न कुछ खातेपीते रहते हैं, मुख चलता ही रहता है, शुद्ध अशुद्ध का कुछ विचार नहीं करते, अभक्ष्यभक्षण करते, उसमें बड़ा मौज मानते और अहंकार भरी मुद्रा में जा रहे, पर कहां जा रहे? किसी तीर्थ क्षेत्र की वंदना करने, धर्म करने । अरे यह रात्रिभोजन बड़ा पाप है । सो रात्रिभोजन में केवल इतनी ही बात नहीं हिंसा हो गई, किंतु उसका मन खराब हो गया, मन स्वच्छंद हो गया, आत्मा की वहाँ सुध नहीं ले सकते, मोह अज्ञान में बढ़ गए हैं । यों सभी खराबियां होती हैं । तो रात्रिभोजन करना असार है और रात्रिभोजन छोड़ना सार है ।
(408) शुद्धध्यान आदि की सारभूतता―आर्तध्यान, रौद्रध्यान जैसे खोटे ध्यान करना असार है और धर्मध्यान तथा शुक्ल ध्यान ये सारभूत हैं, तो हे मुने, तू सार असार का विवेक कर । सार से प्रीति कर और असार को छोड़ । असंयम तो असार है और संयमपूर्वक रहना सार है । जो मुनियों के मूल गुण बताये गए हैं वस्त्ररहित रहना केशलुंच करना, स्नान का त्याग करना, भूमि पर शयन, खड़े-खड़े आहार लेना, दंतधोवन न करना हाथ में ही आहार लेना आदि ये तो सब सार हैं मायने मार्ग के अविरुद्ध हैं और इनके विरुद्ध चेष्टा करना वह सब असार है । क्रोध असार है । क्रोध करने का फल बहुत ही खोटा होता है और क्षमा सारभूत है । सभी कषायें असार हैं, घमंड करना, मायाचार करना, लोभ करना यह सब असार है और इनका त्याग सार है । संतोष में सार है, किसी प्रकार की शल्य रखना असार है । और आत्मा को सबसे निराला अकेला ज्ञानमात्र निरखकर निःशल्य रहना यह सार है । अविनय की चेष्टा करना असार है । किसी का अपमान करना दुर्वचन बोलना यह सब दुःख रूप है और विनयभाव सार है ममता करना असार है और समता तजना सार है । ममता करके किसीने सुख नहीं पाया और कर रहा ममता । बताओ जिनमें ममता की जा रही उनका संयोग कब तक रहेगा? उनका वियोग नहीं होगा क्या? अरे कोई समय शीघ्र ही आने वाला है जबकि उनका वियोग हो जायेगा तो ममता करके जो पापबंध हुआ है उसका फल तो भोगना ही पड़ेगा । तो ममता असार है और निर्मोह होना सार है । विषयों का उपभोग असार है और विषयों से विरक्त रहना यह सार है । सो हे मुनिवर ! तू सार और असार का निर्णय रखकर सार को तो ग्रहण कर और असार को छोड़ । यही बात सब गृहस्थों को करना चाहिए । असार से प्रीति न करें और जो सार चीज है उसमें अपनी प्रीति बनायें तो इस तरह के शुद्ध भाव रखकर जो अपना जीवन व्यतीत करता है उसको अब भी आनंद मिलेगा और मोक्षमार्ग को भी पा लेगा ।