वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 119
From जैनकोष
झायहि धम्मं सुक्क अट्टरउद्दं च झाण मुत्तूणं ।
रुइट्ट झाइयाइं इमेण जीवेण चिरकालं ।।119।।
(470) आर्तध्यान की त्याज्यता―आर्तध्यान और रौद्रध्यान को छोड़कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान को ध्यावो । इस जीव ने चिर काल से आर्त और रौद्रध्यान को ही ध्याया । एक ओर एकाग्र से उपयोग लगने का नाम ध्यान है । ध्यानों में 8 तो खोटे ध्यान हैं और 8 ठीक हैं । 16 प्रकार के ध्यान होते हैं 4 आर्तध्यान इष्ट का वियोग होने पर उस इष्ट के मिलने के लिए जो इच्छा प्रतीक्षा आशा चिंता रहती है उस ध्यान को इष्टवियोगज आर्तध्यान कहते हैं । अनिष्ट पदार्थ का संयोग होने पर उसके वियोग के लिए चिंतन चलना वह हैं अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान । शरीर में कोई वेदना हुई, फोड़ा फुंसी खांसी आदिक वेदना होने पर जो संक्लेश होता है, ध्यान बनता है, विचार चलता है वह वेदनाप्रभव आर्तध्यान है । अपने सुख के साधनों की इच्छा रखना, पर भव में भी ऐसा सुख मिले, इस तरह की इच्छा करना, निदान बांधना यह निदान नाम का आर्तध्यान है । इन चारों ध्यान में क्लेश है, दुःख है ।
(471) रौद्रध्यान की त्याज्यता―रौद्रध्यान―रौद्र कहते हैं क्रूर भाव को उसमें आनंद मानना―क्रूरता की जाये, खोटा काम किया जाये उसमें आनंद मानना जीवहिंसा करने कराने, अनुमोदने में आनंद मानना हिंसानंद रौद्रध्यान है । कुछ लोग जो ऊपरी धर्मात्मा होते हैं ऐसे घर में मान लो कोई सांप निकल आया तो उस पुरुष के मन में तो है कि कोई आ जाये लट᳭ठ लेकर, पर इस बात को वह स्पष्ट नहीं कहता अरे भाई देखो यह सांप पड़ा है, जो मारने वाले हैं उनको इस तरह से आवाज करता है तो यह उसका रौद्रध्यान है । इस तरह से कहीं हिंसा नहीं बचती । एक बुढ़िया अपना घर लीप रही थी । सो लीपने के दो तरीके होते हैं―एक तो गोबर में पानी डालते जाना और लीपते जाना दूसरे―पानी में गोबर को घोल दिया और फिर डालते गए, लीपते गए । तो वह बुढ़िया इस दूसरी विधि से घर लीप रही थी । वहाँ लीपते हुए में कहती जा रहीं थी “चींटी चींटा चढ़ा पहार । तुम पर आयी गोबर की धार ।। तुम न चढ़ो तो तुम पर पाप । हम न कहें तो हम पर पाप ।” तो रौद्रध्यान के कितने ही तरीके हैं । झूठ बोलने में, झूठ बुलाने में, झूठ बोलने की अनुमोदना करने में, असत्य प्रलाप करने में आनंद मानना, चाहे दूसरे पर कुछ भी होता हो, यह सब है मृषानंद रौद्रध्यान । कोई झूठ बोलने वाला तो इस पर भी नौकरी कर सकता कि हमें कुछ मत दो, खाना देते जावो और साल में सिर्फ दो बार झूठ बोल लेने दिया करो । झूठ बोलने की एक ऐसी चौकसी रहती कि बोले बिना रहा नहीं जाता । जैसे बीड़ी पीने वालों से बीड़ी पिये बिना नहीं रहा जाता ऐसे ही झूठ बोलने की आदत वालों से झूठ बोले बिना नहीं रहा जाता । तो झूठ बोलने में आनंद मानना मृषानंद है । चोरी करने में, कराने में, अनुमोदना करने में आनंद मानना चौर्यानंद है । किसी से झगड़ा करके न रहना चाहिए उससे द्वेष बढ़ता है और उस द्वेष से इसको चोरी करने के कराने के या अनुमोदना करने के प्रसंग आ जाते हैं । जैसे सुन लिया कि अमुक के घर चोरी हुई तो उसे सुनकर खुश होना, कितनी ही तरह से चोरी के बाबत खुशी मानना चौर्यानंद हैं । विषयसंरक्षणानंद―विषयों के साधनों में आनंद मानना विषयसंरक्षणानंद रौद्रध्यान है, विषय का साधन होता है परिग्रह, सो परिग्रह के संचय में आनंद, मानना परिग्रहानंद (विषयसंरक्षणानंद) है । ये 8 ध्यान खोटे हैं ।
(472) आर्त रौद्रध्यानों को छोड़कर धर्मध्यान शुक्लध्यान में आने का उपदेश―आर्त व रौद्र ध्यानों के फल में क्या लाभ मिला आत्मा को ? रौद्रध्यान आर्तध्यान से भी खोटा है । आर्तध्यान में कर्मविपाक है, पीड़ा सही नहीं जाती । यहाँ अज्ञान और ज्ञान की बात कुछ नहीं कह रहे, पर आर्तध्यान में विवशता बहुत रहती है । पर रौद्रध्यान में क्या विवशता है, किसकी चोट पड़ रही है सिर में जो रौद्रध्यान किया जा रहा? कभी झूठ बोलना तो परवश होता, पर खोटे काम करके इसमें आनंद मानने की कौनसी परवशता है? उदय की बात कहो तो वह तो दोनों जगह साधारण है । बाहरी बातों की कौनसी विवशता है, पर योग्यता ऐसी है, वातावरण ऐसा है कि इन 8 प्रकार के दुर्ध्यानों में इस जीव ने बहुत काल बिता दिया । सो इन दुर्ध्यानों को छोड़कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान में आवें । शुक्लध्यान तो इस पंचमकाल में है नहीं । शुक्ल मायने सफेद । सफेद ध्यान कैसा कि रागद्वेष का कोई रंग जिस पर न चढ़े ऐसा बिल्कुल साफ स्वच्छ ध्यान याने रागरहित ध्यान । जहाँ राग अवस्था में शुक्लध्यान है तो वह राग अबुद्धिपूर्वक है इसलिए वह रागरहित ही बोला जाता है और जो वीतराग है वह तो है ही । शुक्लध्यान आजकल संभव नही ।
(473) धर्मध्यान की आदेयता―धर्मध्यान―धर्म के संबंध में होने वाला ध्यान धर्मध्यान है । ये चार प्रकार के बताये गए―(1) आज्ञाविचय (2) अपायविचय, (3) विपाक विचय और (4) संस्थानविचय । और इस जगह 10 भेद भी बता रहे―(1) अपायविचय (2) उपायविचय, ( 3) विपाकविचय, (4) विरागविचय, (5) लोकविचय, (6) भवविचय (7) जीवविचय, (8) आज्ञाविचय, (9) संस्थानविचय और (10) संसारविचय । इनमें कोई विरोध न समझना, चाहे चार को 10 कहो और चाहे 10-20 बना लो । मर्यादा यह है कि धर्म से सहित चिंतन होना चाहिए । तो ये दो प्रकार के कथन आते हैं । आज्ञाविचय―जिनागम की आज्ञा को प्रधान करके जो चिंतन चलता है वह आज्ञाविचय है । भगवान वीतराग सर्वज्ञ हैं, अत: उनकी वाणी के असत्यता का कोई कारण नहीं । जो उनका उपदेश है वह शिरोधार्य है, आज्ञा मात्र से ग्राह्य है, ऐसा चिंतन आज्ञाविचय है । अपायविचय―अपाय कहते हैं विनाश को । विनष्ट करने का चिंतन करना । अब धर्मध्यान में किसके नाश का चिंतन होना चाहिए? राग के नाश का कि राग नष्ट हो । यह जीव स्वयं सहज आनंदमय है, स्वरूप इसका आनंद है, पर स्वरूप की सुध न रखे कोई और अन्य वस्तुओं में राग बनाये तो उसका फल कष्ट ही है । तो उस राग के विनाश का चिंतन करना कि यह राग कैसे नष्ट हो, उसका उपाय सोचना उसके लिए उत्साह बनाना यह सब अपायविचय धर्मध्यान है । विपाकविचय धर्मध्यान में कर्मविपाक से संबंधित चिंतन चलता है । कर्मों का विपाक कैसा ? कैसे-कैसे लोगों ने कर्मोदय में कष्ट पाया, सुख पाया, जो कुछ चिंतन प्रथमानुयोग से संबंधित है, वह विपाकविचय है । संस्थानविचय में लोक के आकार का विचार है, और भी पिंडस्थ पदस्थ आदिक ढंग से ध्यान करे । संस्थानविचय में लोक के ओंकार की मुख्यता क्यों दी जा रही कि राग के हटाने में लोक का ध्यान बड़ा सहयोगी है । मान लो किसी पर पचास हजार रुपये का कर्जा है और पंच लोगों ने उसके लिए यह फैसला कर दिया कि यह बेचारा बहुत गरीब हो गया है, इसका सारे कर्ज की फारकतीपत्र दिया जाये, सिर्फ सौ रुपये दिला दिया जाये । तो वह कर्ज देने वाला तो यही कहेगा कि जब 50,000) माफ करा दिया तो फिर 100) भी क्यों लेना? जैसे सब गए वैसे ही 100) भी गए । उनका क्या लेना? तो ऐसे ही यह ज्ञानी जीव सोचता है कि जब इस 343 धन राजूप्रमाण लोक में कितने ही बार जन्मे मरे, बड़े-बड़े सुख समागम मिले, भोगे, छोड़े । वे सब समागम अब मेरे पास कुछ नहीं रहे, किसी भी भव का न धन है, न इज्जत है तो आज इस थोड़ी सी जगह का समागम यश, धन, परिग्रह, इनके जोड़ने से, इनके रमने से क्या लाभ है? जब वे सब न रहे तो इतना और न सही, ऐसी उमंग जगती है ।
(474) उपायविचय विरागविचय व लोकविचय धर्मध्यान―जो 10 प्रकार से धर्मध्यान बताया उनमें 4 तो वे हैं ही । इनके अतिरिक्त जो नाम आये उनमें एक है उपायविचय । इसका संबंध अपायविचय से लगाया जाता है । यहाँ स्पष्ट हो गया कि दुःख से बचने के जो उपाय हैं―सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र, उनका चिंतन करना, उनके योग का विचार करना उपायविचय है । एक है विरागविचय । रागी जीव सदा दुःख पाता है, राग से सदैव बंध है, किंतु आत्मा का स्वभाव रागरहित है, ऐसा चिंतन विरागविचय कहलाता है । यह भी अपायविचय में गर्भित हो सकता है । विपाकविचय में विरागविचय अंतर्गत किया जा सकता है । फिर भी चूंकि उपयोगी है यह चिंतन, इसलिए इनको अलग करके बताया गया । लोकविचय―यह समस्त लोक 343 घनराजू प्रमाण है इसमें ऐसा कोई स्थान नहीं बचा कि जहाँ मैं उत्पन्न नहीं हुआ हूँ । यह बात तो संभव है ही । कोई ठेका थोड़े ही है कि मनुष्य ही पैदा होऊं । या मनुष्यभव से आकार मनुष्य ही बने । सब जगह घटावो कि यहाँ पैदा हुए । कोई निगोद से निकलकर अभी करीब निकट आया हो तो कहां उसने मनुष्यभव में मनुष्य क्षेत्र को व्यापा ? पर सामान्यतया देखो तो निगोद बनकर तो सब जगह पैदा हुआ जा सकता है । जहाँ सिद्ध विराजे हैं सिद्धालय में भी, जहाँ आपकी याने मनुष्यादि की भी गति नहीं है कि पहुंच जायें वहाँ भी ये निगोद जन्मे । वहाँ भी रहे, इससे कहीं यह बात न समझना कि हमसे बड़े हुए ये निगोदिया जीव, क्योंकि वे भगवान से मिल रहे । जहाँ भगवान के प्रदेश हैं उस आकाश क्षेत्र में निगोदिया जीव भी पड़े हैं, मगर यह अंतर नहीं है कि चलो सिद्धालय की जगह पर निगोदिया है तो उन्हें कुछ आराम होगा । कर्मविपाक जिसके जैसा है सो होता ही है । जैसे―यहां के निगोदिया दुःखी, वैसे ही वहाँ के भी निगोदिया दुःखी ।
(475) भवविचय धर्मध्यान―भवविचय―जीव के चतुर्गतिरूप भवों का विचार करना यह भवविचय है । अनंत परिवर्तन किये जीव ने । देखिये―परिवर्तन 5 प्रकार के बताये । सो कोई अगर यह समस्या रख दे कि अच्छा बताओ भवपरिवर्तन सभी जीवों का कहां हुआ? मायने जैसे नरकगति में जन्मा, 10 हजार वर्ष की आयु लेकर जन्मा, उसमें जितना समय हैं उतनी बार अटक भटककर फिर नरक में जन्मे, फिर एक एकसमय अधिक स्थिति बढ़ाकर सांतरतया नरक में जन्मता रहे । देखो नरक से एकदम नरक में जन्मता नहीं, सो सांतर जन्म मरण कर ऐसी 33 सागर प्रमाण स्थिति बना ले तो वह एक नरकभव परिवर्तन है । ऐसे ही सभी के परिवर्तन है, देवगति के परिवर्तन हैं वहाँ 31 सागर से अधिक आयु लेकर परिवर्तन नहीं घटाया जा सकता है । इससे ऊंची स्थिति के सम्यग्दृष्टि होते, उनका फिर परिवर्तन नहीं चलता । फिर वह एक या दो मनुष्यभव पाकर मोक्ष जाते । अब कोई पूछे कि बताओ जो निगोद से अब तक नहीं निकला उसने कहा किया यह नरकभव परिवर्तन, ऐसे ही अन्य परिवर्तनों के बारे में भी समस्या रखी जा सकती है । किसी ने परिवर्तन किया है ऐसा? मगर इन परिवर्तनों में जितना समय लगता है उतना समय तो सबको लगा । चाहे वह निगोद में ही रहा, पर एक परिवर्तन में जितना समय बुद्धि में आता है उतना सबके चलता है, तो चतुर्गतिरूप भवों का विचार करना । चारों गतियों में न जाने कैसे-कैसे दुःख हैं? मरण का दुःख और जन्म का दु:ख, ये तो निरंतर लगे हैं । जन्म में भी दुःख होता क्या? मरण में दुःख हो, चाहे नहीं, मगर जन्म में दुःख होता है । मरण में तो कोई समाधि के शब्द सुन रहा, समाधि से मर रहा, जिंदगी भर जो आत्मज्ञान अर्जित किया उसका प्रयोग कर रहा, समता से मरण कर रहा, पर जन्म में कहां समता होती? उस जन्म के समय बड़ा कठिन दुःख है, और उस जन्म लेने वाले को कुछ खबर भी नहीं रहती तभी तो बच्चा जब पैदा होता तो उसकी सबमें पहले यही आवाज निकलती―कहां-कहां....याने मैं कहां आ गया? अब देख लो गर्भवास का दुःख, जन्म का दुःख यह कितना कठिन है? ये सब दुःख इस जीव ने बार-बार पाये, फिर भी इनमें ही यह राजी है । अब उसका कुछ इलाज नहीं है । जैसे जिस चीज के खाने से वह रोग बड़े उसी को बार-बार खाता रहे तो डाक्टर भी उसका इलाज करने से जवाब दे देता, भाई हमारे वश का नहीं है, परिणाम यह होता कि उसका रोग कभी दूर नहीं होता, बल्कि और भी बढ़ता रहता है, ठीक इसी प्रकारकी दशा इन संसारी जीवों की है । जिन बातों से ये दुःखी होते रहते उन्हीं को अपनाते रहते, परिणाम यह होता कि उनका दुःख कभी दूर नहीं हो पाता । तो आत्मस्वरूप का परिचय होना एक अद्भुत रत्नत्रय का लाभ है । यह तीनों लोक का वैभव मेरे लिए कुछ सारभूत चीज नहीं । ये मेरे लिए कल्याणकारी नहीं पर कल्पना से मान लेते कि इनसे मुझे सुख मिल रहा । परिणाम यह होता कि उनके पीछे रात दिन तृष्णा करते, उनका संचय करने की होड़ मचाते और सारे जीवनभर निरंतर दुःखी रहते । भले ही कुछ कल्पित सुख मिल गया, पर वह भी वास्तव में दुःख है । कितना कठिन दुःख लगा है इस जीव पर कि जो बाह्य पदार्थों में यह मैं हूँ, ये मेरे हैं इस तरह की कल्पनायें उठती हैं, इनसे दुःख ही बना रहता है । यद्यपि यह जीव है आनंदस्वरूप । जैसा है वैसा ही स्वरूप में रहे तो कष्ट का नाम नहीं, पर अनादि से वासना बुरी लगी है । और उस वासना के साधनाभूत उपाधि का संबंध बना है और उसमें कष्ट है । ये सब बातें विचारना भवविचय है ।
(476) जीवविचय और संसारविचय धर्मध्यान―जीवविचय―जीव की भिन्न-भिन्न जातियों का चिंतन करना जीवविचय है, रास्ता चलते हुए में कितने ही दुःखी जीव नजर आते । इन घोड़ा, गधा, खच्चर, झोंटा, सूकर आदि पशुओं की दशाओं पर भी तो कुछ ध्यान करो ये बेचारे कैसे-कैसे दुःख सह रहे हैं । जरा भी कमी दिखी तो उनपर डंडों की बौछार होती । इन सूकरों को तो देखो―विष्टा में ही इनका मुख भिड़ा रहता है, जिंदा ही अग्नि में भून दिये जाते या फिर इनकी गर्दन पर छुरियां चलती । कहां तक इन जीवों के दुःख की कहानी कहें, आप सब देख ही रहे हैं । तो जीवों की इस प्रकार की दुःखद स्थिति देखकर खुद पर भी तो एक ऐसी वासना आनी चाहिये । उन जीवों पर भी करुणा आनी चाहिये । दोनों ही बातें एक हैं । स्वरूप की समता होने से उनके बारे में करुणा करना अपनी ही करुणा है । और जो भी किसी जीव का दुःख दूर करता है तो वह अपने पर करुणा कर रहा । देखा होगा कि जाड़े के दिनों में भिखारी लोग बड़े सवेरे कैसा करुणा उत्पन्न करने वाले कंपन के स्वर में वचन बोलकर भीख मांगते तो उसका फल क्या होता कि उनकी दुःख भरी आवाज सुनकर सुनने, वाले भी स्वयं दुःखी हो जाते, और फिर उन सुनने वालों ने जो कुछ भोजन, वस्त्र आदि दिया तो बताओ निश्चय से उसका दुःख दूर करने के लिए दिया या खुद का दुःख दूर करने के लिये? खुद का ही दुःख दूर करने के लिए दिया । कर्म दशाओं का निमित्त पाकर हुए सुखी दुःखी पशु पक्षी आदि भिन्न-भिन्न जाति के जीवों का चिंतन करना जीवविचय है । पंच परिवर्तनों का स्वरूपचिंतन करना संसारविचय है । इस तरह शुभ चिंतन द्वारा आर्तध्यान से रौद्रध्यान हटकर धर्मध्यान में आना चाहिए ।
(477) धर्मध्यान के लिये एक प्रेरणा―हम आप चारों प्रकार के धर्मध्यान करने के अधिकारी हैं, कर सकते हैं भावों की ही तो बात है । भावों से ही खोटा कर सकते और भावों से ही हम अच्छा कर सकते । कभी देखा होगा कि छोटे-छोटे बच्चे प्रीतिभोज का खेल खेलते हैं, तो वे क्या करते कि कुछ कंकड़ परोसते हुए कहते लो गुड़, पत्ते परोसते हुए कहते लो रोटी । है वहाँ कुछ चीज नहीं खाने की । केवल भावों का खेल है । पर उन बच्चों को कोई समझा दे कि रे बच्चों जब तुम भावों का ही खेल खेलते हो तो भावों में कंजूसी क्यों करते? अरे रोटी की जगह पूड़ी कचौड़ी बोल दो, गुड़ की जगह लड्डू बोल दो, भावों की ही तो बात है । यहाँ भी भावों का सब खेल है, पर से क्या बात आयी, पर में क्या बात जाती? कर रहा तो यह खुद-खुद में ही । तो भावों में खोटा चिंतन क्यों करना? जब भाव ही कर रहे तो खोटा चिंतन न करेंगे, शुभ-चिंतन करें, शुद्ध चिंतन करें तो ऐसा धर्मसंबंधित भावों का चिंतन करना यह है धर्मध्यान ।
(478) पृथक्त्ववितर्कवीचार व एकत्ववितर्क अवीचार शुक्लध्यान―यह कुंदकुंदाचार्य द्वारा रचित भावपाहुड़ ग्रंथ है । यहाँ मुनिजनों को संबोधा है कि हे मुनिवरों आर्त रौद्रध्यान छोड़कर धर्मध्यान और शुक्लध्यान को ध्यावो । धर्मध्यान का वर्णन हो चुका, अब शुक्लध्यान का वर्णन किया जा रहा है । शुक्ल ध्यान के मायने है रागरहित ध्यान । जो 8वें, 9वें, 10 वें गुणस्थान में राग है वह गौण है, अबुद्धिपूर्वक है और सूक्ष्म है । वहाँ भी शुक्लध्यान कहा है । और 11 वें 12 वें गुणस्थान में तो स्पष्ट वीतराग है । वहाँ भी शुक्लध्यान है । 13वं 14वें गुणस्थान में उपचार से शुक्लध्यान है अर्थात् मन की वृत्ति नहीं चलती है, किंतु ध्यान का फल कर्मनिर्जरण देखा जाने से कहा गया है । प्रथम शुक्लध्यान है पृथक्त्ववितर्कवीचार, पृथक्त्व मायने अलग-अलग वितर्क मायने ज्ञान को कहते हैं, पृथक्त्व चिंतन में जहाँ योग भी बदलता । विषय भी बदलता ऐसे बदल वाले ध्यान का प्रथक्त्ववितर्क वीचार कहते हैं, पर एक ही पदार्थ के बारे में बदलें चल रही हैं । अन्यथा एकाग्रचिंतानिरोध नहीं बन सकता । एक ही पदार्थ में द्रव्यरूप से चिंतन और पर्याय रूप से चिंतन यह तो है अर्थ की बदल और शब्द की भी बदल और योग में भी कभी मनोयोग में रहते हुए ध्यान, कभी वचनयोग में कभी काययोग में रहते हुए ध्यान यह है योग का बदल । यों पृथक्त्ववितर्कवीचार अष्टम गुणस्थान से ग्यारहवें गुणस्थान तक चलता है और 12वें गुणस्थान में भी, प्रारंभ में थोड़ा रहकर एकत्ववितर्क अवीचार बन जाता है । यह सब एक ज्ञान में ही ज्ञप्तिपरिवर्तनसाधक क्षयोपशम जब तक है तब तक यह बदल चल रही है और केवल ज्ञान होने की जब योग्यता हुई बारहवें गुणस्थान में वहां यह बदल नहीं रहती । एक ही पदार्थपर उन ही शब्दों से उस ही योग में रहकर ध्यान चलता है ।
(479) सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति व व्युपरतक्रियानिवृत्ति शुक्लध्यान व अनंत सिद्धदशा―एकत्ववितर्क अवीचार के बाद केवलज्ञान होता है जहाँ सयोगकेवली गुणस्थान बना वहाँ सारी उम्र तक कोई ध्यान नहीं, किंतु अंत में अंतिम अंतर्मुहूर्त में सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती शुक्लध्यान बनता है । जब स्थूल काययोग भी दूर हो गया, वचनयोग पूरा दूर हो गया, मनोयोग भी जो द्रव्यमन साथ चलता था वह भी पूरा दूर हो गया, केवल सूक्ष्म काययोग रहा, उस समय में सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती शुक्लध्यान होता है । 13वें गुणस्थान में तीसरा शुक्लध्यान सदैव नहीं । इसके बाद 14 वें गुणस्थान में प्रवेश हो तो वहाँ कोई योग नहीं । सो व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामक शुक्लध्यान है । इस ध्यान के बाद 14वें गुणस्थान के बाद फिर सिद्ध दशा होती है । मोक्षमार्ग में जो कुछ करने का पौरुष है वह मौलिक यह है कि अपने आपका जो सहज चैतन्यस्वरूप अपने ही सत्त्व के कारण पर से विभक्त अपने आपमें जो कुछ स्वरूप है उस रूप मैं हूँ, उसको ही लक्ष्य में रखना, उसमें ही आपा अनुभवना, ऐसे सहज स्वभाव का आश्रय है प्रारंभ से अंत तक यही एक मोक्षमार्ग मौलिक आधार है, फिर सिद्ध दशा में भी इसी सहज ज्ञानस्वभाव को उपादान कारणरूप से उपादान करके याने उपादान कारण रूप से ग्रहण कर-करके प्रतिसमय अति निर्मल ज्ञानवृत्ति रूप से परिणमता रहता है । यह वहाँ एक सहज बात रहता है, ऐसे इस शुक्लध्यान के ध्यान में आवो, ऐसा मुनि जनों को आचार्यदेव ने संबोधा है ।