वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 123
From जैनकोष
णाणमयविमलसीयलसलिलं पाऊण भविय भावेण ।
बाहिजरमरणवेयणडाहविमुक्का सिवा होंति ।।123।।
(491) ज्ञानमयविमलशीतलसलिलप्राप्ति से व्याधिजरादाहविमुक्तता―मुक्ति कैसे होती है, मुक्त का उपाय क्या है इसका दिग्दर्शन इस गाथा में है । भव्य जीव अपने भावों से ज्ञानमय, निर्मल शीतल सलिल को प्राप्त होकर रोग, बुढापा, मरण वेदना की दाह से विमुक्त होकर शिवस्वरूप हो जाते हैं । जैसे यह शांत करने का उपाय है शीतलता । तो देख लो―जीवों के कितनी दाह पड़ी है? व्याधि―शरीर में रोग हो गया, कितने रोग हैं? उनकी गिनती करोड़ों तक होती । जितने रोम हैं उतने रोग हैं । सब रोगों के नाम भी नहीं बताये जा सकते । लिखे भी नहीं जा सकते । कुछ प्रसिद्ध रोग हैं जिनके कुछ और भेदों से अनेक उपरोग हो जाते हैं, और इस दृष्टि देखें तो यहाँ बड़ा से बड़ा कोई पहलवान भी यह नहीं कहा जा सकता कि इसको किसी प्रकार का रोग नहीं है । यह शरीर रोगों का घर है । इसकी बड़ी दाह है । बुढ़ापे की दाह―बूढ़े हो गए, खाना पचता नहीं, तृष्णा लगी हैं, खुद खा नहीं पाते, दूसरों को खूब खाते पीते देखकर मन ही मन कुढ़ते हैं । इंद्रियां शिथिल हो गई हैं, शरीर से तो दुःखी है ही मगर बूढ़ा जानकर, बेकाम जानकर नाती पोते भी कुछ फिक्र नहीं करते । व्याधि और बुढ़ापा की दाह बड़ी कठिन है और यह दाह जब तक चलती रहेगी तब तक संसार है, जन्म मरण है । तो जिन कारणों से दुःखी होते जाते उन कारणों को नहीं छोड़ सकते । विषय कषायों के कारण दुःखी होते, परिवार के मोह के कारण दुःखी होते पर उन्हें छोड़ नहीं सकते । ऐसा अपने आप में निरखें कि कैसी बड़ी निर्बलता है कि दूसरों के दोष देखना बहुत आसान है, पर उससे आत्मलाभ कुछ नहीं मिलता और अपने दोषों को अगर निरखें तो ऐसी श्रद्धा जगेगी कि मुझसे तो ये सब भाई अच्छे हैं ।
(492) ज्ञानविमलशीतलसलिलप्राप्त से मरणवेदनादाहविमुक्तता―एक दाह है मरण । जो जीव मरता है तो उसके किस तरह से प्राण निकलते हैं, वह बड़ी विलक्षण घटना है, यह जीव एक साथ निकलता है । यद्यपि देखने में कुछ ऐसा लगता कि देखा पैर ठंडे हो गए । फिर टटोलते हैं छाती । फिर टटोलते हैं हाथ की नाड़ी । उससे यह परख करते हैं कि प्राण कहां अटके हैं कहां नहीं । भिन्न-भिन्न अंगों में देखने से कुछ ऐसा लगता कि यह जीव भिन्न-भिन्न अंगों से अलग-अलग निकलता मगर ऐसी बात नहीं है । सब अंगों से जीव एक साथ निकलता । इस मरण का भी बहुत बड़ा कष्ट हैं, इसी कारण तो लोग मरण से डरते हैं । तो मरण भी एक दाह है जहाँ वेदना होती शरीर में । इन सब दाहों से विमुक्त होता है वह पुरुष जो ज्ञानमय निर्मल शीतल जल में अवगाह करता है । मैं ज्ञानस्वरूप हूँ । ज्ञानमात्र मेरा स्वरूप है । ज्ञान में रहना बस यही मेरा घर में रहना है । ज्ञानातिरिक्त अन्य से मेरा कुछ संबंध नहीं । ऐसे निज सहज ज्ञानस्वभाव को निरखें, उस ही में तृप्त हों, उस ही में रमें तो वह इन संसारसंकटों से विमुक्त होगा । ये सब ज्ञान कैसे मिलें तो उसके लिए वस्तु का स्वरूप समझना भेदविज्ञान से प्रत्येक पदार्थों को जुदा-जुदा जानना, फिर जो प्रयोजनभूत स्वतत्त्व है उस निज में मग्न होना यह विधि है ज्ञानमय जल से स्नान करने की । सम्यक्त्वलक्ष्मी इस जीव को सुख प्रदान करती है । संसार के अन्य विषय साधन कुछ भी इसे सुख प्रदान नहीं कर सकते ।