वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 125
From जैनकोष
भावसवणो वि पावइ सुक्खाइं दुहाइं दव्वसवणो य ।
इय णाउं गुण दोसे भावेण य संजुदो होह ।।125।।
(495) भावश्रमण के सहज आनंद का लाभ―भावश्रमण सम्यग्दृष्टि मुनि सुख को प्राप्त होता है और द्रव्यश्रमण मिथ्यादृष्टि मुनि दुःख को प्राप्त होता है । तो उन दोनों गुणों व दोषों को जानकर भावों से युक्त होना चाहिए । अपने आपका याने स्व आत्मा का जो सहज स्वरूप है, अपने सत्त्व मात्र के कारण जो कुछ व्यवस्था है उस शाश्वत ज्ञानस्वभावरूप अपने को मानना स्वीकार करना, ऐसी ही रुचि करना यह ही आदेय है, यह ही शरण है, इसके लेने में ही कल्याण है । इस तरह निर्णय कर अपने आपको ज्ञानस्वरूप मानना यह ही कल्याण है, इस तरह निर्णय कर अपने आपको ज्ञानस्वरूप मानना यह ही है कल्याण का बीज । प्रारंभ से लेकर याने चतुर्थ गुणस्थान से लेकर अंत तक जहाँ तक साधना की जा रही है सर्वत्र एक यही साधना मूल में चाहिए, पर परिस्थितिवश चूंकि गृहस्थ हैं, घर में रहते हैं तो उसकी कुछ विवशतायें हैं जिससे राग करना होता है । आरंभ करना होता, अनेक समागम करने होते तो उनमें यह कैसे विरक्त रह सके, उस प्रक्रिया को करता है । जिसे कहते हैं अणुव्रत पालन । तो वह एक अपने आपका बचाव है कि यह आत्मा विपत्ति में, व्यसनों में न पड़े, जब मुनि हो जाता है तो वहाँ सर्व का त्याग करके हुआ है । ताकि निज सहज स्वभावरूप से अनुभवते रहने में बाधायें न आयें और ऊपर भी जहाँ जितना-जितना राग है उसकी निवृत्ति के लिए जो पौरुष है वह भी स्वभावावलंबन है । सर्वत्र वहाँ भेद तो पड़ गया, पर मूल काम सबका एक ही रहा मोक्षमार्ग का । जैसे ठंड मेटने का साधन एक गर्मी है, इसी प्रकार आत्मा के विकास का साधन आत्मा के सहजस्वभाव का आलंबन है । उस सहज स्वभाव को देखना है यह मैं अपनी सत्ता मात्र से जो हूँ उसमें विकार का प्रसंग नहीं बसा है अर्थात् स्वभावत: मैं अविकार हूँ, स्वरूप ऐसा है मगर अनादि से उपाधि का मिलना होता है और ये सब विडंबनायें चलती हैं तो इन विडंबनाओं के होनेपर ही कल्याण मार्ग में चलने के लिए भव्य जीवों का प्रथम पौरुष होता है । स्वरूपज्ञान । इनमें भेदविज्ञान बने और आदेय जो स्वतत्त्व है । स्वरूप है उसमें अभेद बन सके, यह प्रयास होता है ।
(496) विकारोत्पादविधि―यहां यह बात जानना कि जिससे हमें हटना है वे विभाव वे विकार ये हो कैसे रहे हैं, जबकि अविकार स्वरूप है तो इनके उत्पन्न होने की विधि क्या है? तो विधि यही है कि चूंकि ये विकार मेरे स्वभाव नहीं हैं सो मैं ही निमित्त होऊं, मैं ही कुछ अपने आप में परिणमूं, ऐसा यहाँ स्वरूप नहीं है, “तस्मिन्निमित्तं परसंग एव वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत᳭” विकार के होने में निमित्त परसंग ही है यह एक वस्तुस्वभाव विदित हुआ । कैसा स्वभाव कि इस अविकारस्वभावी आत्मा में पर्याय योग्यता आयी, उसमें ऐसी कला बसी है कि इस प्रकार के विपाकोदय के सन्निधान में ऐसे विकाररूप परिणम जाते, ऐसा इनमें एक पर्याय स्वभाव पड़ा हुआ है । तो विकार हुए तो अन्य निमित्त कर्मविपाक के सन्निधान से हुए हैं, मैंने नहीं किया मेरी परिणति नहीं है मगर होता इस ही ढंग से है । अगर पर निमित्त पाये बिना विकार हो तो मोक्षमार्ग कुछ न चल सकेगा, क्योंकि फिर तो विकार स्वभाव होने से नित्य होता रहेगा । नैमित्तिक होने से कोई सदा नहीं रह सकता । और फिर स्वभावपर दृष्टि रहे तो कुछ भी गड़बड़ियां नही हो सकतीं ।
(497) आश्रयभूत कारण के अनुपयोग का विराट् प्रभाव―कर्मनिमित्त के सन्निधान में विकार हुआ, पर वे विकार दो प्रकार के हैं―(1) अव्यक्त विकार और (2) व्यक्त विकार अबुद्धिपूर्वक, बुद्धिपूर्वक । जो अनुभव में आया, बुद्धि में महसूस होवे वह तो व्यक्त विकार है और जो हमारी बुद्धि में महसूस नहीं होता वह अव्यक्त विकार है । तो व्यक्त विकार होने में तीसरा कारण होता है आश्रयभूत । दो तो ये हैं उपादान और निमित्त मगर व्यक्त विकार जब हो तो पर पदार्थ आश्रयभूत है अर्थात् उपयोग ने परपदार्थ का आश्रय किया, उसको ज्ञान में लिया ऐसा वह बाह्य विषय आश्रयभूत कहलाता है । निमित्त नहीं कहलाता । जगत के ये समस्त बाह्य पदार्थ मेरे विकार में निमित्त नहीं कहलाते, पर निमित्त कहने की प्रथा है, निमित्त कहकर बात की जाती है मगर वहाँ यह विवेक रखना कि ये बाह्यपदार्थ मेरे विकार के निमित्त नहीं हैं, किंतु ये आश्रयभूत हैं, मैं उपयोग में इनको ग्रहण करता हूँ और विकार व्यक्त होते हैं । ये निमित्त क्यों नहीं हैं? निमित्त वह हुआ करता है कि जिनका परस्पर अत्यंताभाव तो है मगर अन्वयव्यतिरेक संबंध भी साथ है । जिसके होने पर ही हो, जिसके न होने पर विकार न हो उसे अन्वयव्यतिरेक संबंध कहते हैं ।
(498) कारण में कारणत्व के आरोप का तथ्य―इन बाह्य पदार्थों के साथ मेरे विकार कार्य के लिए अन्वयव्यतिरेक संबंध नहीं है, अत: ये आश्रयभूत हैं । और यही कारण है कि इसे आरोपित करना भी कहते हैं । पर निमित्त आरोपित कारण नहीं कहलाता । हां निमित्त का ज्ञान बने इतने मात्र से आरोपित कहा तो वह ज्ञप्ति की बात है । उत्पत्ति में आरोपित नहीं है । जैसे अग्नि रखी है, मेरा पैर अग्नि पर पड़ गया तो हम चाहे जानें चाहे न जाने पर वह पैर को जलाने का निमित्त है ही । जलना जान लिया तो वहाँ आग जानी, कार्य देखकर कारण का ज्ञान हुआ तो ऐसा इस अनुमान प्रमाण में होता ही है । धूम देखकर अग्नि का ज्ञान हुआ तो क्या धूम का अग्नि आरोपित कारण है? वह तो सही कारण है यहाँ आग है यह ज्ञान में तब आया जबकि रसोई घर में या जंगल में धूम दिखा । ऐसा ज्ञप्ति रूप से आरोपित हुआ । पर उत्पत्ति विधि में आरोपित नहीं है । वहाँ जाने तो, न जानें तो । ऐसे ही यह कर्मविपाक निमित्तभूत है, वह बुद्धिगत बने तो न बने तो, विकार होगा ही । पर इसका परस्पर अत्यंताभाव है । जगत के लोग कर्म को जान नहीं पाते, इन बाहरी विषयभूत पदार्थों में कार्य कारण भाव लगाये रहते हैं मुझको इस मनुष्य ने गुस्सा करा दिया, इसने मुझ को दुःखी कर दिया, इस प्रकार का जो आश्रयभूत कारण के साथ कर्ताकर्म का व्यवहार बनाते हैं यह उनका निपट अज्ञान है । क्योंकि ये बाहरी पदार्थ तो निमित्तदृष्टि से भी कर्ता नहीं हैं, फिर उनको बड़ी ठोस भाषा में बोलना कि इसने ही मेरे को दुःखी किया यह है अनिमित्त पर निमित्तत्व का आरोप । उसे ही निमित्त मानना यह तो अज्ञानभरी बात है । तो यह जान लीजियेगा कि बाहरी पदार्थ मेरे विकार के निमित्त कारण नहीं हैं, मैं इन पर क्यों रोष तोष करूं? ये तो जैसे हैं वैसे रहते हैं, न मैं इनमें जाता हूँ, न ये मुझमें आते हैं, न ये मुझमें कोई प्रेरणा देते हैं कि तुम शांत क्यों बैठे हो? तुम गुस्सा हो जावो, ऐसी कोई प्रेरणा नहीं देते, किंतु यह जीव कर्मविपाक के उदय से आश्रयभूत पदार्थों पर उपयोग देकर अपनी कषायों को व्यक्त करता है । तब चाहिए क्या? जिनका समागम निरंतर रहता है उनके विषय में यह जानकारी बनायें कि ये मेरे विकार के करने वाले नहीं हैं ।
(499) निमित्तनैमित्तिक योग के परिचय का आत्महित में सहयोग―अब देखिये कर्मविपाक की बात, कर्म का और विकार का निमित्तनैमित्तिक योग समझने से स्वभाव पर दृष्टि दृढ़ बनती है । ये क्रोधादिक मेरे स्वरूप नहीं है, क्योंकि ये निमित्त पाकर हुए हैं । मैं तो अविकार ज्ञानस्वभावी हूँ और इसी विधि में ग्रंथों में निमित्तनैमित्तिक योग का बहुत कथन पाया जाता है । उन कथनों से यह शिक्षा ली जाती है कि इस क्रोध से मेरा क्या मतलब? ये मेरे स्वरूप में नहीं हैं, मेरे स्वभाव से नहीं प्रकट हुआ है, किंतु यह निमित्त पाकर प्रकट हुआ है, सो व्यक्त विकार को जो हटाने का पौरुष करता है उसके अव्यक्त विकार भी यथासमय दूर हो जाते हैं । बुद्धिपूर्वक पौरुष व्यक्त विकार न होने देने के लिए बनता है, पर जो पौरुष व्यक्त विकार को दूर करने के लिए समर्थ है वह ही पौरुष अपने समय पर व्यक्त विकार को भी दूर करने में समर्थ है । एक बात यह बहुत प्रयोग रूप से जानना कि जो हर एक पदार्थ को यह निमित्त है, निमित्त है ऐसा लोग कह देते हैं सो बात नहीं है । जीव के विकारभाव में कर्मविपाक निमित्त है और बाकी अन्य कोई पदार्थ निमित्त नहीं है, मैं ही बाह्यविषय का आश्रय करके विकार व्यक्त करता रहता हूँ ।
(500) वस्तुस्वातंत्र्य और निमित्तनैमित्तिक योग दोनों का दर्शन―जब कभी कोई बात हो तो दो दृष्टि से हम देखा करते हैं । एक तो केवल उस ही पदार्थ को निरखकर बात बताना और एक सर्व ओर से समझकर बात बताना । जैसे सामने दर्पण रखा है और पीठ पीछे दो-चार बालक मानो कुछ खेल कूद रहे, उछल फांद रहे, तो दर्पण में वह प्रतिबिंब आया । अब कोई केवल दर्पण को ही देखता रहे तो जान रहा कि यह हो रहा यह हो रहा, यह दर्पण में हुआ और दर्पण की परिणति से हुआ, यह सब जान सकेगा और जब सब ओर से बात समझेंगे तो यह जानेंगे कि दर्पण स्वयं फोटो परछाई के स्वभाववाला नहीं है, स्वयं अपने आप अपने में ही परछाई के स्वभाव वाला नहीं है । हां परछाई कर सके ऐसा योग्य दर्पण है, मगर यह जो फोटो आ रही है यह बात क्या गलत है? यह इस सब ओर से समझी हुई बात है, मिथ्या तो नहीं है, पर जिस समय केवल हम एक ही पदार्थ को देख रहे हैं तब क्या वह भी बात गलत है? एक पदार्थ के देखने के मूड की वह बात ठीक ही तो है । अच्छा फिर हम को मार्ग कैसा सोचने में मिलेगा? जैसे दृष्टांत में ये दो बातें रखी हैं ऐसे ही द्राष्टांत में यह बात समझना कि आत्मा दर्पणवत᳭ स्वयं अपने आपमें विकार करने का स्वभाव नहीं रखता, फिर भी यद्यपि कर्मउपाधि का सान्निध्य पाकर विकार जग रहा, लेकिन केवल एक ही आत्मा को निरखकर सोचें तो यहाँ आत्मा में यह परिणमन हुआ, अब यह परिणमन हुआ, आत्मा की ही परिणति से हुआ, दूसरे से नहीं आया, ये सब बातें निश्चयनय के आशय में समझी जा रही हैं, यह बात झूठ तो नहीं है, पर साथ ही यह देखें कि जो विकार जगा है सो वह विकार जब आत्मा का स्वभाव नहीं है और स्वभाव से ही नहीं हुआ करता है तो किसी पर सन्निधान को पाकर हो रहा है, वह है कर्मविपाक का सान्निध्य और यहाँ उसका प्रतिफलन है, विकार जग रहे हैं, यह बात क्या झूठ है? यह भी झूठ नहीं है ।
(501) वस्तुस्वातंत्र्य और निमित्तत्तनैमित्तिक योग दोनों की उपयोगिता―जब वस्तुस्वातंत्र्य व निमित्तनैमित्तिक योग दोनों ही बातें सही हैं तब कौनसी बात पर अधिक भाव लाना चाहिये? यह तो एक अवसर की बात है । तभी निमित्तनैमित्तिक योग के चिंतन से हमारा मार्ग स्पष्ट होता है । तो कभी हम केवल एक आत्मा को ही निरखकर एक मार्ग पाते हैं । मार्ग जो मिलेगा वह एक है, वे दो नहीं हैं याने निमित्तनैमित्तिक योग के ढंग से निरखकर मार्ग पाया वह भी वही मार्ग है और निश्चयनय की दृष्टि से निरखकर मार्ग पाया वह भी वही पाया जो उस चिंतन में पाया, वह क्या है? आत्मा का सहज ज्ञानस्वभाव । यह भी निमित्तनैमित्तिक योग के चिंतन से कैसे पाया? बड़े आराम से, बड़ी सुगमता से और उसका प्रयोग प्राय: करते ही रहते हैं । ये विकार, ये अटपट बातें आत्मा के स्वभाव से नहीं आयीं, किंतु पर उपाधि का सन्निधान पाकर हुई हैं, इसलिए यह विकार मेरा स्वरूप नहीं है । भय करने की बात नहीं है कि ये मेरे क्रोधादिक विकार कैसे मिटे? जो औपाधिक हैं वे मिटा करते हैं और जो निरुपाधि हैं वे नहीं मिटा करते । इससे हमें एक उमंग और उत्साह मिला कि ये विकार मिट सकने वाले हैं, ये मेरे स्वभाव से उठे हुए नहीं हैं, अच्छा जब निश्चयनय से देखें तो उसमें कैसे यह मार्ग मिला? निश्चयनय में केवल एक द्रव्य ही देखा जाता है । आत्मा ही देखा जा रहा । भले ही यह अभी अशुद्ध निश्चयनय के मूड में है इस कारण इसका अशुद्ध परिणमन दिख रहा है और यह भी ज्ञात हो रहा है कि यह अशुद्ध परिणमन इस आत्मा का है, आत्मा की परिणति है, यह सब दिख रहा है, मगर इसमें जो एक कैद बनती है कि दूसरे द्रव्य को न निरखना, निश्चयनय में जो एक नियंत्रण है तो वह इन नियंत्रणों का लाभ ले रहा क्या कि केवल इस अशुद्ध आत्मा को ही देख रहा और यह इस उपादान से प्रकट हुये दूसरे द्रव्य को देख ही नहीं रहा तो तुरंत का लाभ तो यह है कि आश्रयभूत कारण इसकी निगाह में नहीं है, तो व्यक्त विकार बनेगा ही क्यों । कर्मविपाक आदिक ऐसी सूक्ष्म उपाधियां भी इसकी दृष्टि में नहीं है तो वह परिणमन और जहाँ से वह प्रकट हुआ एक वह तत्त्व मायने आत्मा, इन दो पर दृष्टि है इसलिए निश्चयनय का उल्लंघन नहीं हो रहा है । तो अब उनका आमना सामना जो चल रहा है वह यहाँ से प्रकट हुआ, ऐसा चिंतन करने में, चूंकि बाह्य पदार्थ इसके उपयोग में नहीं है जो निर्बाध बैठे है, सो इस चिंतन में जिससे ये परिणमन निकले उसकी दृष्टि मुख्य हो जाती है और यह अशुद्धनिश्चयनय विलीन होकर परमशुद्ध निश्चयनय में बदल जाता है । वहाँ स्वभावदृष्टि होती है । आगे शुद्ध परिणमन पाकर यह अपना कल्याण करता है । तो निश्चयनय से भी हमने फायदा उठाया, निमित्तनैमित्तिक योग के चिंतन से भी हमने लाभ उठाया ।
(502) एकत्वपरिणत होने में शुद्धनयाश्रय का अतिनिकटतम स्थान―पूर्ण लाभ तो शुद्धनय में मिलता है । यहाँ तक पहुंचने का एक मार्ग हमने पाया । अनेक लोग झट कह उठते हैं कि देखो जैसे किसी मंदिर को जाना है तो उसके अनेक रास्ते होते हैं कोई किसी रास्ते से जाता, कोई किसी रास्ते से पर अंत में सब मंदिर पहुंच जाते, ऐसे ही धर्म के बारे में समझो, कोई किसी धर्म को पाले, कोई किसी को, आखिर अंत में पहुंचते सब उसी जगह है, उसके रास्ते अनेक हैं । तो देखिये कोई रास्ता अगर विपरीत दिशा में हैं तो वहाँ पहुंचने का तो कोई प्रसंग ही नहीं, किंतु जो एक दिशा की ओर हो, ऐसे अनेक रास्ते होते हैं । जैसे अणुव्रत महाव्रत ध्यान और और बातें, ये सब करते ही हैं, निश्चयनय का प्राधान्य, निमित्तनैमित्तिक योग का चिंतन किन्हीं भी बातों से हम पहुंचेंगे तो उसी स्वभाव मंदिर में तो किसी भी मार्ग से चलें, पर यहाँ एक बात सोचें―जैसे इस मंदिर में आने के कई रास्ते हैं, कोई रास्ता किसी दिशा से आता कोई किसी दिशा से । अनेक पगडंडियां भी हैं, कोई अपनी दुकान से हो यों ही सीधा निकल आता तो कितने ही रास्ते हैं मंदिर में आने के, पर मंदिर में प्रवेश करने के अति पूर्व निकट मार्ग तो एक ही बनता है, वहाँ तो दो रास्ते नहीं हैं । तो सही मार्ग तक पहुंचने के पहले जो अनेक मार्ग हैं, पगडंडियां हैं वे उस ही एक मार्ग की ओर ले जाने वाली हैं, फिर उस एक मार्ग से हम मंदिर में प्रवेश करते हैं तो ऐसे ही चिंतन नाना प्रकार के कर लें निमित्तनैमित्तिकयोग से, निश्चयनय से जो भी जितने भी चिंतन चलें, पर उद्देश्य यह रखें कि इससे हमें शिक्षा लेनी है सहज ज्ञानस्वभाव पर दृष्टि पाने की ꠰
(503) समस्त उपदेशों का लक्ष्य निज शाश्वत स्वभाव का आलंबन―जितने भी वर्णन है उन सब वर्णनों का प्रयोजन सहज ज्ञानस्वभाव पर दृष्टि पाना है । प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग सभा का प्रयोजन यह है कि यह आत्मा अपने सहजसत्यस्वरूप तक पहुंच जाये और उसी को विधि से समझाने का सर्वत्र प्रयास है, पर कोई बहुत अलक उल्टा चला गया तो उसको ठीक मार्ग पर लाने के लिए ओर ढंग के प्रयास चलते हैं । जो जरा भी भूला है उसका और ढंग का प्रयास चलता है । उसमें भेद पड़ गया भूल के कारण । चूंकि भूला अधिक है इसलिए उसके प्रतिबोधन भी अधिक है, पर मूल में मार्ग एक है ।
(504) भावश्रमण का शाश्वत आनंद पर अधिकार―सहज ज्ञानस्वभाव का जिसने दर्शन, श्रद्धान अनुभव किया है वह पुरुष भावश्रमण है और सुखों को प्राप्त करता है । सुख कोई अच्छी चीज नहीं है, मगर यह शब्द ऐसा रूढ़ है कि आनंद और शांति के लिए सुख शब्द का प्रयोग सुगमतया चलता रहता है । सुख पाना अच्छी बात नहीं, ख मायने इंद्रियां और सु मायने सुहावना लगना, इंद्रियों को जो सुहावना लगे ऐसी परिणति पाना कोई अच्छी बात नहीं शांति पाना उत्तम है, आनंद पाना उत्तम है । आसमंतात् नंदन आनंद: चारों ओर से जो समृद्धशाली हो उसका नाम है आनंद । टुनदि समृद्धौ धातु से नंद शब्द बना, नंदं नंद: उसका नाम है शांति तो शांति और आनंद के लिए सुख शब्द का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि आचार्यों को समझना किसे है ? गृहस्थों को, सुख से परिचित लोगों को । जो यहाँ सुख से परिचित है उनको समझाने के लिए उस शब्द का प्रयोग किया गया है, तो यहाँ सुख का अर्थ लेना है शांति और आनंद । भावश्रमण आनंद को प्राप्त होते हैं ।
(505) भावश्रमण की दु:खपात्रता―जो द्रव्यश्रमण हैं, मिथ्यादृष्टि मुनि वे अपनी करतूत से दु:ख ही पाते हैं । द्रव्यलिंगी मुनि अनेक प्रकार के होते हैं उनमें से यहाँ मिथ्यादृष्टि मुनि को लीजिए । जिसके 5वें गुणस्थान का भाव है वह मुनि भी द्रव्यलिंगी है । जिसके चौथे, तीसरे, दूसरे का भाव है वह भी द्रव्यलिंगी मुनि है, जिसके पहले गुणस्थान का भाव है वह भी द्रव्यलिंगी मुनि है । प्राय: द्रव्यलिंगी मुनि कह कर जो संबोधा जाता है वह मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनि को ही समझाया जाता है । रहा अब चौथे पांचवें गुणस्थान वाला द्रव्यलिंगी मुनि । वह सब समझ चूंकि कभी इसमें आयेगी अभी क्षयोपशम कम है, कभी विशेष होगा । व्रतों के भाव कभी कम रहे, कभी अल्प रहे तो चौथे पांचवें गुणस्थान में आ गया, वहाँ कोई खास ऐसी त्रुटि नहीं है, जो है वह स्वयं ठीक हो जाती । वहाँ कुछ अधिक पौरुष नहीं करना होता इसलिए द्रव्यलिंगी मुनि कहकर मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनि को संबोधा है । सो जो द्रव्यश्रमण है वह दु:ख को पाता है, तुरंत दु:खी है, आगे भी दु:खी रहेगा । तो क्या दु:ख है कि कुछ ज्ञान प्रकाश ही नहीं मिल रहा । जिसे कहते घबड़ाहट । अब समझ में ही नहीं आ रहा तथ्य । जो कुछ समझ में आ रहा उल्टा सीधा, वह कर रहा तुरंत दु:खी और दु:ख में खोटा बंध बनता है, सो उस बंध के फल में यह आगामी काल में भी दु:खी रहेगा ।
(506) भावसहित व भावरहित वृत्ति के गुण दोष जानकर गुण के आश्रय से गुण विकास में आने का अनुरोध―भावसहित व भावरहित वृत्ति के गुण दोष जानकर, भावविकास के ये गुण हे और भावरहित के ये दोष हैं, ये अचेतन हैं ऐसा जानकर हे मुनिवरो ! तुम सुभावों से संयुक्त होवो । ऐसा कुंदकुंदाचार्य इस भावपाहुड ग्रंथ में संबोध रहे हैं, क्योंकि अनेक कीचड़ों में गृहस्थाश्रम भी एक पंक है । जैसे हाथी सरोवर में स्नान करके बिल्कुल साफ हो गया, पर उसकी एक ऐसी आदत होती कि पानी से बाहर आकर कुछ धुल सूंड से उठा उठाकर अपने शरीर पर फेंक लेता, तो इसे कहते हैं हस्तिस्नान ऐसे ही गृहस्थ का वातावरण ऐसा है कि थोड़े समय को उपदेश सुन रहे, मंदिर में आकर पूजा पाठ कर रहे, अच्छे भाव बना रहे आतम के हित विषय कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाये, इस प्रकार की खूब भावनायें भाते हैं, पर यह बात आगे नहीं टिक पाती । यहाँ से चलकर घर पहुंचे कि ऐसे प्रसंग मिलते कि जिससे वे सब बातें भूल जाते । क्या करें ? गृहस्थी का प्रसंग ही ऐसा है । तो यहाँ मुनिवरों को आचार्यदेव समझा रहे है कि हे मुनिवरो तुमने जब इस गृहस्थी के पंक का त्याग कर दिया तो अब एक अपने स्थूल भाव को सुधारो, वास्तविक भावों से सहित होवो तो तुम्हारे इस कर्तव्य का फल मिल जायेगा । इसलिए भावों से शुद्ध हो, सम्यक्त्व से सहित हो और अंतस्तत्त्व की धुन में रहो, जिससे कि यह आत्मध्यान सुगमतया बनता रहे ।