वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 13
From जैनकोष
कंदप्पमाइयाओ पंच वि असुहादिभावणाई य ।
भाऊण दव्वलिंगी पहीणदेवो दिवे जाओ ।।13।।
(23) भावरहित द्रव्यलिंगी मुनि की अशुभ भावनाओं के कारण हीन देवों में उत्पत्ति―भावरहित द्रव्यलिंग मुनि कंदर्पी आदिक अशुभ भावनाओं के कारण हीन देवों में उत्पन्न होते हैं । चूंकि वह द्रव्यलिंगी है, कुछ तो व्रत तपश्चरण आदिक करता ही है । प्रतिक्रमण आदि भी करता है मगर परमार्थ भाव नहीं है, याने अविकार सहज ज्ञानस्वभाव में दृष्टि नहीं है इस कारण वह अपना समय खोटी भावना, खोटे शब्दों के प्रयोग करता रहता है, जिसका फल है कि वह भवनवासी व्यंतर ज्योतिषी, ऐसे खोटे देवभव में उत्पन्न होता है, और यह ही नहीं, किल्विष जाति के जैसे देवों में उत्पन्न होता है, वे खोटी भावनायें हैं―कंदर्पी, किल्विषी, सम्मोही, दानवी, अभियोगी । इन भावनाओं में ऐसे खोटे शब्दों का प्रयोग होता है जो एक धर्मात्मा गृहस्थ के भी उचित नहीं है ज्ञानविषयक दूसरों का सम्मोहन आकर्षण करने वाले अथवा किसी के प्रति द्वेष भाव वाले किसी को किसी प्रकार का कलंक लगाने वाले ऐसे अनेक प्रकार के खोटे शब्दों का प्रयोग करता है । वह द्रव्यलिंगी मुनि किल्विष आदिक के देवो में उत्पन्न होता है, और खोटे देवों में उत्पन्न होकर मानसिक दु:खों को सहता रहता है । जब यह खोटा देव देखता है कि मुझे ये लोग निरादर से देखते हैं तो उसके मानसिक दु:ख बहुत बढ़ जाते हैं । देवों में 10 जातियां होती हैं―1 इंद्र, 2 सामानिक, 3 त्रायस्त्रिंश, 4 पारिषद, 5 आत्मरक्ष, 6 लोकपाल, 7 अनीक, 8 प्रकीर्णक, 9 आभियोग्य और 10 किल्विष । जिन में इंद्र तो जैसे यहाँ का राजा होता उस तरह प्रताप प्रभाव आज्ञा आदेश देने वाला होता है, सामानिक देवों का राजा के कुटुंब की तरह आराम आदि सब एक समान हैं, पर आज्ञा नहीं चलाते । त्रायस्त्रिंश उनकी सलाह करने वाले मंत्रियों की तरह हैं । ये 33 होते होंगे इसलिए त्रायस्त्रिंश नाम रखा है । तो 33 होना भला है । जिसमें कोरम भी 11 मंगल संख्या पर पड़ता है । आत्मरक्ष, जैसे यहाँ अंगरक्षक होते हैं ऐसे ही इंद्रों के अंगरक्षक होते हैं । यद्यपि इंद्र को कोई मार नहीं सकता, आयु बीच में किसी भी कारण छिदने वाली नहीं होती मगर ऐश्वर्य ऐसा है कि जिसमें एक प्रभाव बनता है । लोकपाल कोतवाल की तरह होता है । कोतवाल का पद बहुत ऊंचा है क्योंकि वह प्रजा का पिता तुल्य है । प्रजा में कोई अनीति न हो, कोई दुःखी न हो, उनके संकट दूर किए जायें, यह सब कर्तव्य है कोतवाल का और इसी कारण लोकपाल एक भवावतारी होता है । यहाँ ऐसा निरखा जाता कि जिसका हृदय क्रूर हो सो ही कोतवाली निभा सकता । वास्तव में कोतवाल तो प्रजा का पिता तुल्य है । अनीक सेवक की तरह, प्रकीर्णक जनता की तरह, आभियोग्य जो हुक्म पाते ही हाथी घोड़े आदिक सवारी का रूप रख लेते, जिन पर बैठकर बड़े देव चलें वे आभियोग्य हैं और किल्विष जैसे यहाँ चांडाल अथवा सफाई करने वाले लोग गांव के अंत में रहते हैं ऐसे ही ये देव उस देवलोक में आखिरी सेवाओं में रहा करते हैं । तो जो मुनि जिन मुद्रा धारण करके खोटी भावनाओं का आदर करते हैं, वे देव होवे तो किल्विष आभियोग्य जैसे खोटे देवो में उत्पन्न होते हैं और जहाँ बड़े देवों के द्वारा कोई अपमान की बात सुनी जाती है अथवा स्वयं ही ऐसा महसूस करते हैं कि इन सबसे पतित हूँ । तो उनको मन का बहुत बड़ा कष्ट होता है । यह सब भावरहित द्रव्यलिंग धारण करने का प्रभाव है ।