वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 151
From जैनकोष
जिणवर चरणं गुरुहं णमंति जे परमभत्तिराएण ꠰
ते जम्मवेल्लिमूलं खणंति वरभावसत्थेण ꠰꠰151꠰꠰
(572) परमभक्ति से जिनवरचरणांबुरुह में नमने वाले के जन्मलता का छेद―जो भव्य पुरुष उत्कृष्ट शक्ति अनुराग से जिनेंद्र भगवान के चरणकमल को नमस्कार करते हैं वे उत्तम भावरूपी शस्त्र के द्वारा संसाररूपी लता को मूल से उखाड़ फेंक देते हैं ꠰ जिनेंद्र भगवान में भक्ति कब होती है जब खुद को वैराग्य प्यारा हो ꠰ जिसको जगत के वैभवों में राग लगा है, मोह में जिसकी धुन है उसके चित्त में जिनेंद्र भगवान के प्रति भक्ति नहीं उमड़ सकती और ऐसे लोग जो कोई भक्ति करने आते हैं तो उनकी वह भक्ति नहीं है, किंतु अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए आते हैं ꠰ मेरा यह काम बने, मेरे घर के सब लोग सुखी रहे, ऐसी ही कुछ अभिलाषाओं को लिए हुए मिथ्यात्व को पुष्ट करने आते हैं ꠰ मिथ्यात्व को पुष्ट करने का अर्थ क्या है ? भगवान तो वीतराग हैं, अपने ज्ञानानंद में लीन हैं, किसी से कुछ लेन देन नहीं है, “सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि निजानंद रस लीन ꠰” समस्त ज्ञेयों के जाननहार हैं फिर भी अपने आनंदरस में लीन हैं ꠰ प्रभु का स्वरूप तो यह है और ये उनसे कुछ मांगते हैं, ऐसी श्रद्धा रखते हैं कि भगवान मुझको कुछ रोजगार देंगे, हमारा अमुक काम करा देंगे, तो ऐसी जो मान्यता बनी है वह सब मिथ्याभाव है, वह तो अपना मिथ्यात्व ही पुष्ट करना है ꠰ जिसको निज को निज पर को पर जानने की बुद्धि नहीं जगी उसके जिनेंद्रभक्ति कहां से बनेगी ? जिनेंद्रभगवान की भक्ति उसी पुरुष के हे जिसने अपने सहजज्ञानस्वरूप का परिचय पाया है और उस ही स्वरूप की प्राप्ति की उमंग है, सो जो जिनेंद्रदेव की भक्ति करते हैं वे इस जन्मरूपी लता को मूल से, जड़ से काटकर फेंक देते हैं ꠰ उनका फिर जन्म नहीं होता ꠰
(573) जन्मोच्छेद के पौरुष का एक उदाहरण―देखो जन्म न होवे इसकी औषधि बड़ी सुगम है, मगर मोह का ऐसा आतंक छाया है कि ऐसे सुगम उपायों को भी हम कर नहीं पाते ꠰ वह सुगम उपाय क्या है ? जन्म जैसे कठिन पद को नष्ट करने का ? वह उपाय है देह से अत्यंत निराला मात्र ज्ञानस्वरूप है ꠰ इस रूप में अपने को निहारना, अनुभवना, समझना यह है जन्मजरा मरणभय संसार से मुक्ति पाने का उपाय कितना सुगम है ? अपने भीतर ही निहारना है―यह में आत्मा चैतन्यस्वरूप हूं ꠰ देह अचेतन है, यह अत्यंत पृथक् है, कर्म भी अचेतन हैं ꠰ जो रागद्वेष जगते हैं वे औपाधिक भाव हैं, छाया माया है ꠰ मैं तो मात्र चैतन्यस्वरूप हूं, इस पर कोई डट जाये, और दृढ़ हो जाये तो मोक्ष क्यों न मिलेगा, मिलकर ही रहेगा और जो डट गए हैं इस बात पर उन्होंने मोक्ष पाया ꠰ सुकौशल मुनि जो छोटी आयु में ही मुनि हो गए थे और कैसी स्थिति में मुनि हुए थे कि सुकौशल का विवाह हो गया था, उनकी स्त्री के गर्भ था और कारण पाकर वह विरक्त हो रहे थे, तो उस समय उनके मंत्रियों ने बहुत समझाया कि तुम्हारे पहली संतान होनी है उसको हो जाने दो और उसे कुछ समर्थ कर दो, बाद में दीक्षा धारण करना परंतु जिसने निज सहजज्ञानस्वरूप का अनुभव किया, आनंद पाया उसको दूसरी बात रुच नहीं सकती ꠰ ज बहुत जोर दिया तो सुकौशल ने कहा अच्छा जो गर्भ में संतान है उसी को राजतिलक करके दीक्षा लेंगे ꠰ संतान होने पर दीक्षा ले ली । वह सुकौशलमुनि ध्यानस्थ बैठे थे । सुकौशल की माता को बहुत रंज हुआ कि मेरा पति भी मुनि हो गया और मेरा पुत्र भी । तो उसको इस संबंध में बड़ा आर्तध्यान रहा । उस आर्तध्यान के फल में मरकर वह सिंहनी हुई । और इस सुकौशल को ध्यानस्थ अवस्था में देखा तो पूर्वभव का बैर उमड़ आया और शेरनी ने सुकौशल की छाती और सिर को चीथ डाला । उस समय भी सुकौशल अत्यंत धीर रहे, शुक्लध्यान में आये और उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया । तो देखो सुकौशल की माता ने एक ही भव बदलने पर शेरनी बनकर उनको कष्ट दिया और सुकौशल अपने आत्मस्वरूप में लीन रहे, उसके प्रसाद से उन्होंने जन्मलता को छेद डाला । तो सुख पाने के लिए एक ही उपाय हैं―अपने ज्ञानस्वभाव को निरखना कि मैं सबसे निराला ज्ञानमात्र हूँ ।