वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 152
From जैनकोष
जह सलिलेण ण लिप्पइ कमलणिपत्तं सहावपयडीए ।
तह भावेण ण लिप्पइ कषायविसएहि सप्पुरिसो ।।152।।
(574) रत्नत्रयभाव के कारण सत्पुरुष के कषायों से विविक्तता―जैसे कमलिनी का पत्ता स्वभावत: जल से लिप्त नहीं होता, जल में पड़ा हुआ भी जल से गीला नहीं होता, जल से निकालकर बाहर देखो तो उस पर एक भी बूंद कहीं भी न दिखेगी, ऐसा सूखा निकलता है, इसी प्रकार सम्यग्दृष्टि मनुष्य स्वभावत: कषाय और विषयों से लिप्त नहीं होता । अन्य पत्तों से कमलिनी के पत्तों में बहुत खासियत है । वैसे अरबी (घुइयां) का पता भी कमल के पत्ते की तरह का होता है मगर उसमें वह गुण नहीं पाया जाता । कमलिनी का पत्ता जल में रहकर भी जैसे जल से अलिप्त रहता है इसी प्रकार स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण इनके विषयों में प्रवर्तन करते हुए भी सम्यग्दृष्टि जीव उनमें लिप्त नहीं होता । वह क्या कारण है कि लिप्त नहीं होता? तो उसने निज सहज ज्ञानस्वभाव का आनंद पाया है और ज्ञानानुभूति को छोड़कर अन्य कुछ भी उसे सुहाता ही नहीं है ꠰ फिर भी कर्मविपाकवश कुछ भोगोपभोग के साधन मिले उनमें प्रवृत्ति होती तो भी उनसे लिप्त नहीं होता । यह भावपाहुड़ ग्रंथ में भावों की विशेषता बतायी जा रही है । जिसका उपयोग ज्ञानस्वरूप की ओर लगा है उसकी यह चर्चा है । गप्प करने वालों की चर्चा नहीं है ।