वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 18
From जैनकोष
पीओसि थणच्छीरं अणंतजम्मंतराइं जणणीणं ।
अण्णाण्णाण महाजस ! सायरसलिलादु अहिययरं ।।18।।
(28) कल्याण का उपाय अपने सहज स्वरूप की जानकारी―हे महायश मुनि, तूने अनंत गर्भवासों में, अन्य-अन्य जन्मों में अन्य-अन्य माता के स्तन का इतना दूध पिया जो समुद्र के जल से भी अधिक संचय हो सकता है अर्थात् तूने अनेक बार जन्म लिया । माता के दूध पीने का मतलब जन्म लेना है । जैसे कि कहते हैं कि हे प्रभो अब मुझे माता का दूध न पीना पड़े अर्थात् निर्वाण हो जाये । यहाँ बतला रहे कि तूने ऐसे-ऐसे इतने मनुष्य जन्म पाये अनादि काल से अब तक कि एक-एक भव का माता के दूध पीने का बूंद-बूंद भी जोड़ा जाये तो समुद्र से भी अधिक वह संचय होगा । तो ऐसा अनेक बार मनुष्य हुआ और द्रव्यलिंग भी धारण किया मुक्ति पाने की इच्छा से मगर वह परमार्थ भाव न पा सका, इस कारण संसार में रुलता ही रहा । वह परमार्थ भाव क्या है ? अपने आपका सहज ज्ञानस्वरूप । यह आत्मा ज्ञानमय है, ज्ञान ही ज्ञान से रचा हुआ हैं । तो जो स्वयं ज्ञानमय है उसकी सहज वृत्ति केवल प्रतिमास स्वरूप ही होती रहती है, किंतु पर और परभावों के संबंध से इसके ज्ञान दर्पण में कलुषताओं का प्रतिबिंब इतने समूचे में पड़ गया है कि अब तक अपने स्वरूप की सुध नहीं रहती और जहाँ स्वरूप की सुध नहीं है वहाँ किन्हीं न किन्हीं बाह्य पदार्थों में ही चित्त जाता है । कल्याण का उपाय तो अपने सहजस्वरूप की सुध रहना है और जहाँ स्वरूप की सुध नहीं है वहाँ किन्हीं न किन्हीं बाह्यपदार्थों में हो चित्त जाता है । कल्याण का उपाय मात्र तो अपने सहजस्वरूप की सुध लेना है, मैं ज्ञानमात्र हूं, अन्य कुछ नहीं हूँ, यह अभ्यास इतना दृढ़ होना चाहिए कि अन्य कुछ समझने के लिए कुछ परिश्रम न करना पड़े और अपने को ज्ञानमात्र अनुभवने के लिए अनवरत वृत्ति जगे, ऐसा अपने को ज्ञानमात्रपना अनुभवने का दृढ़ अभ्यास होना चाहिए । मेरा सर्वस्व ज्ञानस्वरूप है, अन्य कुछ नहीं है । इसका इतना दृढ़ अभ्यास बने कि अन्य स्वरूप मानने में अपने को कुछ विशेष कोशिश करनी पड़े और मैं ज्ञानस्वरूप ही हूँ यह प्रतिभास ज्ञान ही मेरा सर्वस्व है, ऐसा अनुभवना अत्यंत सुगम हो जाये । मैं ज्ञानमात्र तत्त्व को ही करता हूँ ꠰ परिणमने वाला ही करने वाला कहलाता है । मैं हूँ ज्ञानस्वरूप और निरंतर परिणमता रहता हूं सो ज्ञान ज्ञानरूप ही परिणमता रहता हूँ, ज्ञान के परिणमन के सिवाय कुछ नहीं करता और न अब तक ज्ञानपरिणाम के सिवाय कुछ किया, किंतु फर्क यह रहा कि विकल्परूप से ज्ञान को परिणमाया । ज्ञान की जैसी सहज वृत्ति है जाननमात्र, केवल जाननमात्र के रूप से ही यह ज्ञान परिणमता रहता, तब तो इसका भला था, किंतु यह विकल्परूप से परिणमता रहा, पर तब भी ज्ञान के परिणमन सिवाय और कुछ नहीं कर सका । यह बात चित्त में दृढ़ता से समायी हो कि अन्य बात के करने के लिए बड़ा श्रम और यत्न करना पड़े और ज्ञानभाव का ही करने वाला होऊं, इस प्रकार की समझ इसके स्पष्ट रहे । मैं ज्ञानमात्र भाव को ही भोगता हूँ । प्रत्येक पदार्थ अपनी ही पर्याय को अनुभवते हैं, कोई भी वस्तु किसी दूसरे पदार्थ की पर्याय को नहीं अनुभव सकती । मैं हूँ ज्ञान स्वरूप, यहाँ ज्ञान का ही परिणमन चलता है । तो मैं भोगता हूँ मात्र ज्ञान के परिणमन को । अंतर यह पड़ा कि मैंने इस ज्ञान को ऐसा अनुभवा कि जिसमें सुख दुःख के विकल्प जगे । यह पदार्थ इष्ट है, यह अनिष्ट है इस तरह के विकल्प रूप से उसने ज्ञान को अनुभवा । यदि इन कलुषताओं से रहित होकर केवल काम वृत्ति को ही निरखकर उसरूप से अनुभवने का ही उसका अनुभव बनता तो यह उसके लिए भला था । कैसा ही अनुभवना किंतु ज्ञान को ही अनुभवना । सो हे आत्मन् ! तू यही श्रद्धा रख, ऐसा ही अपना उपयोग कर कि सिर्फ ज्ञान को ही अनुभवता हूँ, अन्य किसी पदार्थ को नहीं अनुभवता । यदि ऐसा अपने सहज ज्ञानस्वरूप का भाव रखा तो संसार से तिरकर निर्वाण पायेगा ओर फिर पुन: माता के दूध पीने का अवसर न आयेगा, अर्थात् संसार में न रुलेगा ।