वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 30
From जैनकोष
रमणत्तये अलद्धे एवं भमिओसि दीहसंसारे ।
इय जिणवरेहिं भणियं तं रयणत्तं समायरह ।।30।।
(46) रत्नत्रय की अप्राप्ति से दीर्घसंसार में संसरण―हें आत्मन्, ऐसे-ऐसे खोटे भवों को इस जीव ने क्यों धारण किया, क्यों इतना कठिन दुःख भोगा ? तो उसका कारण है सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय का अलाभ । उस रत्नत्रय के न पाने से इस दीर्घ अनादि संसार में यह जीव ऐसा कुमरण करके भ्रमण करता है । सो अब हे विवेकीजनो, उस रत्नत्रय का आचरण करो जिसके प्रसाद से, ये कुमरण सब दूर हो जाते हैं । जीव है उपयोग मात्र तब यह उपयोग जब अपने आपके स्वरूप के अभिमुख चलता है मैं हूँ यह और उस ही को जानना और उस ही ओर उपयुक्त रहना, ऐसे रत्नत्रय की विधि से उपयोग की प्रवृत्ति होती है तब यह कुमरण से दूर होता है और जब यह उपयोग बेहोश हो जाता देहादिक बाह्य पदार्थों में ही यह मैं हूँ ऐसा ही अनुभव करता है तब यह जीव दु:खी रहता है और नाना कुमरण करता रहता है । सो हे भव्य जीव अब उस रत्नत्रय को धारण कर जिस रत्नत्रय के पाये बिना ऐसे खोटे मरणों से मरण कर जन्म लेकर अनंतकाल दुःख में व्यतीत किया सो वह रत्नत्रय का स्वरूप क्या है और उसके पालने की विधि क्या है सो यह सब जिनवर देव के आगम में समझ लेना क्योंकि प्रभु ने जो कुछ दिव्यध्वनि में बताया, जिसे गणधरों ने गूंथा और जो गणधरों ने गूंथा उसी परंपरा का अब तक आचार्यदेव ने वर्णन किया सो उससे स्वपर स्वरूप समझकर, पर से उपेक्षा कर स्व के अभिमुख होना यह ही रत्नत्रय का पालन है ।