वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 4
From जैनकोष
भावरहिओ ण सिज्झइ जइ वि तवं चरइ कोडिकोडीओ ।
जम्मंतराइ बहुसो लंबियहत्थो गलियवत्थो ।।4।।
(11) भावरहित पुरुष के करोड़ों जन्मों तक तपश्चरण करने पर भी असिद्धि―जो साधु, भावरहित होता है याने अनंतानुबंधी अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण ये 12 कषायें जिसके नहीं हैं, मात्र संज्वलन कषाय है सो भी मंद, और ऐसी स्थिति में सम्यग्दर्शन के कारण आत्मा की ओर जो दृष्टि रहती है उससे जो अविकार ज्ञानानंद स्वभाव का अनुभवन चलता रहता है, अलौकिक आनंद मिलता रहता है, ऐसी निर्मलता जिसके प्रकट ही नहीं हुई ऐसा भावरहित साधु कोड़ाकोड़ी जन्मों तक बड़ा तेज तपश्चरण करके अपने शरीर को सुखाये तो सुखा ले, मगर मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता । वह जन्म जंमांतर पाता ही रहेगा । चाहे बाह्य तप कितने ही कठिन हों । एक कायोत्सर्ग से खड़ा हैं, रात्रिभर खड़ा है, लंबे हाथ करके खड़ा है, वस्त्र त्याग दिया है, कैसा ही कठिन से कठिन तप करे कोई, पर भावरहित मुनि मुक्ति नहीं पा सकता । इसका कारण यह है कि मिथ्यादर्शन, ज्ञान और मिथ्याचारित्र इनमें वह पग रहा है, जो बाह्य नग्न भेष है उसमें जो अहंकार है । यह मैं हूँ, मैं मुनि हूँ, मैं इतना बड़ा हूँ, ऐसा मुनिपना तो अहंकार है और उसके अनुकूल फिर मिथ्याज्ञान चलता रहता है । ये भक्त हैं, ये मुझसे छोटे है, मैं पूज्य हूँ, ये पुजारी हैं । इन्होंने यह क्यों नहीं किया आदिक बहुत सी अटपट बुद्धियां चलती रहती हैं और आत्मस्वरूप में मग्नता तो हो ही नहीं सकती मिथ्यादृष्टि जीव के । सो वह मग्न होता है बाह्य इंद्रिय और मन के विषयों में, तो ऐसे मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के विभावों में जो पग रहा है और इसी कारण रत्नत्रय में जिसकी प्रवृत्ति संभव नहीं है वह कोड़ाकोड़ी भवों तक कायोत्सर्ग करके नग्न मुद्रा में खड़ा रहेगा, तो भी मुक्ति प्राप्त नहीं होती, बल्कि अनेक जन्म मरण करता ही रहता है । तो सम्यग्दर्शन एक ऐसा मौलिक उपाय है कि जिस उपाय के पाये बिना यह जीव धर्म के नाम पर कितने ही परिश्रम कर डाले, सब व्यर्थ है ।