वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 56
From जैनकोष
देहादिसंगरहिओ माणकसाएहिं सयलपरिचत्तो ।
अप्पा अप्पम्मि रओ स भावलिंगी हवे साहू ꠰꠰56꠰꠰
(96) निःसंग आत्माभिमुख साधु की भावलिंगिता―भावपाहुड़ ग्रंथ में यह प्रसंग चल रहा है कि परमार्थ ज्ञानस्वरूप भावलिंग के पाये बिना द्रव्यलिंग का आश्रय अनर्थक है, तो वह भावलिंग क्या है उसका वर्णन अब चल रहा है । देहादिक परिग्रहों से जो रहित है वह भावलिंग है । परिग्रह मूर्छा को कहते हैं, शरीर में, विभावों में अन्य पदार्थों में ममत्व न होना, निज को निज पर को पर जान, यह ज्ञान स्थिति होना यह है भावलिंग । अनेक अज्ञानी द्रव्यलिंग धारण कर लेते हैं, सर्वपरिग्रहों का त्याग कर दिया, बाहरी परिग्रहों का केवल शरीरमात्र रह गया मगर उस नग्न भेष में उस दिगंबर मुद्रा में ऐसा भाव रखना कि यह मैं साधु हूँ तो उसने अभी देह का परिग्रह छोड़ा नहीं । बड़े-बड़े मुनिराज मंदकषाय घानी में पिलकर शत्रु पर क्रोध भी न करें और कहो अज्ञानी हों उसका कारण क्या है कि पर्याय में साधुपन का भाव बना हुआ है, यह मैं साधु हूँ, मुझको कषाय न करना चाहिए । सबमें समता परिणाम रखना चाहिए । विरोधी पर क्रोध न करना चाहिए, ऐसा यह देह में साधु पर्याय की बुद्धि बना कर उस ही में अहं को बुद्धि करके कर रहा है चेष्टा, वह अज्ञानी ही तो है । जब तक स्वत: सिद्ध सहित अविकार ज्ञानमात्ररूप अपने आपको न अनुभवे तब तक देहादिक के आश्रय की जाने वाली बुद्धि यह सब अज्ञान है । तो जो देहादिक परिग्रह से रहित है वह है भावलिंगी ।
(97) निर्मान आत्माभिमुख साधु की भावलिंगिता―भावलिंगी साधु मान कषाय से पूर्णतया रहित होता है, अगर साधु किसी असंयमी पुरुष से वार्तालाप न करे तो यह अभिमान में शामिल नहीं किया गया, किंतु उस असंयमी से कोई काम नहीं पड़ रहा इसलिए उस ओर से मध्यस्थ है ꠰ कितनी ही ऐसी वृत्तियां होती हैं कि जिससे यह बात झलकती है कि लोग साधु होकर भी ऐसा मान रखते हैं कि छोटे लोगों से नहीं बोलते, अथवा सबके लिए समय नहीं देते, सबके बीच नहीं रहते, आदिक अनेक शंकायें हो सकती, मगर जिनको केवल अपने आत्मज्ञान से प्रयोजन है उनका संबंध आत्मज्ञान में सहायक लोगों से होता है अन्य जीवों से संबंध नहीं होता, तो यह अभिमान नहीं कहलाता, किंतु यह तो उस आराधक की संपन्नता है । जहाँ रत्नत्रय की साधना में सहयोग होता है । वहाँं तो साधुता का संबंध होता है और अन्य पदार्थों में अन्य जीवों में संबंध नहीं होता । हाँं उपदेश के समय सबके लिए उपदेश है, मगर अपने आपकी चर्चा का संबंध संयमी जनों के बीच होता है । साधुजन अभिमान से रहित हैं । अभिमान का कोई कहां तक निरख करे कि है या नहीं, कोई नम्रता के बड़े ढीले शब्द बोले, बड़ी कला से बात करे? और चित्त में यह बात हो कि इसे ढंग से बात करने में हमारी इज्जत बढ़ती है तो वह उसका मान हुआ कि नहीं हुआ? देखने में तो यह लग रहा कि यह तो बड़ा सरल है और अपने मुख से अपने आपको हल्का कह रहा है, पर इन वचनों से क्या यह नियम बनता है कि उसके चित्त में भी यही बात समायी हो? वस्तुत: अभिमान से रहित वही हो सकता है जिसने मान रहित ज्ञानमूर्ति अंतस्तत्त्व का अनुभव किया है । तो जो मानकषाय से पूर्ण अलग है वह भावलिंगी मुनि है ।
(98) आत्मरत साधु की भावलिंगिता―भावलिंगी मुनी का तीसरा लक्षण इस गाथा में कह रहे हैं कि आत्मा आत्मा में रत हो वह भावलिंगी है, आत्मा की प्रवृत्ति है कहीं न कहीं रमण करना और इसे कहते हैं चारित्र स्वभाव । अब यह जीव कहा रमण करे? बाह्य में रमण करे तो इसको बाह्य में हित की आस्था है, मिथ्यात्व है, तब बाह्य में रमण कर रहा, जिसको अपने स्वरूप में श्रद्धा है कि यह मैं ज्ञानमात्र आत्मा स्वयं हितमय हूँ उसकी लगन आत्मा में बनेगी, सो जो आत्मा अपने आत्मा में रत हो वह साधु भावलिंगी कहलाता है । भावलिंग का अर्थ क्या है? आत्मा का जो स्वभावपरिणाम है वह तो है भाव और इस ही भावरूप उपयोग रहे वह कहलाया भावलिंग । आत्मा अमूर्तिक और चैतन्यस्वरूप है । और उसका परिणमन जानना और देखना है । सो यह निरंतर जानता और देखता है, किंतु जब बाह्य निमित्तनैमित्तिक का संबंध है, शरीरादिक मूर्तिक पदार्थों का संबंध है और उनका निमित्त पाकर अंतरंग में मिथ्यात्वरागादिक कषायभावों का संबंध है तो कल्याण के लिए क्या आवश्यक है अब? कि यह सब संबंध छूटे, ये औपाधिक भाव दूर होवे, और इसीलिए कहा जा रहा है कि बाहर में तो देहादिक परिग्रहों से रहित है भावलिंगी मुनि और अंतरंग में रागादिक परिणाम से रहित है । क्रोध, मान, माया, लोभादिक कषायें जहाँ नहीं हो और अपना जो शुद्ध ज्ञानचारित्ररूप चैतन्यभाव है उसमें लीन होता है, ऐसा निकटभव्य साधु भावलिंगी कहलाता है ।