वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 57
From जैनकोष
ममत्तिं परिवज्जामि णिम्ममत्तिमुवटि᳭ठदो ।
आलंबणं च मे आदा अवसेसाइं वोसरे ।।57।।
(99) भावलिंगी साधु का ममत्वपरिहार―भावलिंगी साधु का कैसा अंदर में पौरुष होता है उसका निरूपण इस गाथा में है ꠰ इस ज्ञानी आत्मा ने निज को निज और पर को पर खूब परख लिया है और निज के ही कारण जो स्वरूप है, स्वभाव है उसे स्वरूप से जान लिया, और परपदार्थ का उदय होने पर, निमित्त होने पर जो आत्मा में छाया, माया, विकार, प्रतिबिंब प्रतिफलन जो कुछ भी प्रभाव होता है उसको परभावरूप से पहिचान लिया तो ऐसा स्वपर का परिचय करने वाला ज्ञानी अपने आप में यह निर्णय किए हुए है कि मैं परद्रव्य और परभाव से ममत्व करना छोड़ता हूँ । भिन्न-भिन्न जान लेना यह ही ममत्व का त्यागना है । यदि सही मायने में निज सहज स्वभाव को परभाव से भिन्न परख लिया तो उसका ममत्व तो छूट ही गया । उसका दृढ़ निर्णय है कि मैं सर्व देहादिक परिग्रहों से ममता को छोड़ता हूँ और निर्ममत्व जो अपना ज्ञानमात्र स्वरूप है उस स्वरूप में प्रसिद्ध होता हुआ मैं अपने भावों का ही आलंबन करता हूँ । अब मेरे आत्मा का ही आलंबन रहे, शेष समस्त पदार्थों का आलंबन त्यागता हूँ । इस जीवन परपदार्थ का आलंबन किया इसको यह सर्वस्व अनुभव रहा है, चित्त में परपदार्थ ही बसाये, मेरा शरण अमुक पदार्थ हैं ऐसा निर्णय रखा और किसी पर के वियोग होने पर इष्टवियोगज नामक आर्तध्यान इसने किया । उनमें अशांति ही पायी, सो उन सब करतूतों से ऊबकर विवेकबल से ज्ञान पाकर यह ज्ञानी अंतरात्मा अपना यह निर्णय बनाये हैं कि मेरा तो एक आत्मा का ही आलंबन रहे, शेष समस्त परपदार्थों के आलंबन को मैं त्यागता हूँ ।