वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 61
From जैनकोष
जी जीवो भावंतो जीवसहावं सुभावसुंजुत्तो ।
सो जरमरणविणासं कुणइ फुडं लहइ णिव्वाणं ।।61।꠰
(107) आत्मस्वभावभावनायुक्त श्रमण के निर्वाण का लाभ―जो भव्य जीव तत्त्व की भावना करता है, ज्ञानमय तिज स्वरूप को निरखता हुआ जीव के स्वभाव को जानता है और उसकी आराधना करता है वह जन्म जरा मरण का विनाश कर प्रकट मोक्ष को प्राप्त होता है । जीव के बारे में कुछ न कुछ ज्ञान अनुमान सबको हो रहा है । जीव है, यह लोक में प्रसिद्ध बात है और जीव शब्द कहकर लोग उसका व्यवहार भी किया करते हैं, पर यह जीव वास्तव में क्या है, यह जीव के स्वभाव का ज्ञान करने पर ही ज्ञात हो सकता है ꠰ जिसको आत्मा के स्वभाव का यथार्थ ज्ञान नहीं है, बल्कि अन्य ऐकांतिक दार्शनिकों के उपदेश सुनकर विपरीत स्वरूप में आत्मा को परख रहा है वह पुरुष संसार में परिभ्रमण करता, जन्म जरा मरण के दुःख सहता रहता है, किंतु जो जीव आत्मा के यथार्थ स्वरूप को जानता है और जानकर उस रूप उपयोग करके अनुभवता है वह पुरुष इन समस्त परिभ्रमणों को दूर कर देता है । यह बात कुछ एकदम परोक्ष में नहीं है, तो स्पष्ट है, ऐसा ही निमित्तनैमित्तिक योग है । सारा जगत का परिणमन निमित्तनैमित्तिक योगपुर्वक चल रहा है । स्वतंत्रता तो यह है कि उपादान अपने आप में ही परिणमता है । दूसरे पदार्थ में नहीं परिणामता । दूसरा पदार्थ आत्मा में नहीं परिणमन करता । यह तो है वस्तुस्वातंत्र्य, किंतु परिणमन जो हो रहा है वह सब निमित्त पाकर हो रहा । निमित्त पाकर होने में कुछ निमित्त की क्रिया नहीं पहुंच जाती । निमित्त तो केवल उपस्थित मात्र रहता है, वह अन्य में परिणत नहीं करता, किंतु परिणमने वाले पदार्थ में कला ही ऐसी होती है कि वह कैसे पदार्थ का सान्निध्य पाकर किस रूप परिणम जाये? ऐसी योग्यता, ऐसी कला यह उपादान में होती है, पर वह कला निमित्त पाकर प्रकट होती है, इतना भर निमित्तनैमित्तिक योग है ।
(108) आत्मस्वभाव के आश्रय का प्रभाव―जब जीव अपने शाश्वत ज्ञानस्वभाव की सुध लेता है तब तो कर्मबंधन से यह छूटता है और स्वरूप को भूलकर बाह्यपदार्थों में उपयोग को लगाता है तो कर्मबंधन से आक्रांत हो जाता है । यह भी सब निमित्तनैमित्तिक योग की बात है । यहाँ कोई निमित्त सद्भावरूप होता है, कोई अभावरूप होता है ꠰ तो सद्भावरूप निमित्त का सन्निधान पाकर उपादान में विषम परिणमन होता है, यह तो प्रत्यक्षसिद्ध बात है, पर अभावरूप निमित्त होने पर जो पदार्थ में विशुद्ध परिणमन होता है सो वह यदि सूक्ष्म दृष्टि से विचारा जाये तो उसका यह अर्थ है कि पहले निमित्त का सान्निध्य पाकर जीव में विकाररूप परिणमन होता था । अब उस निमित्त का अभाव हो जाने पर विकाररूप परिणमन नहीं हो पाता है । और विकाररूप परिणमन नहीं हो रहा तो कुछ तो परिणमन है । तो वही कहलाता है शुद्ध परिणमन । जो पुरुष आत्मा के सहज यथार्थ स्वरूप की जान जाये जैसा कि निर्विकार स्वभावानुरूप यथार्थ पर्याय के होने पर वहाँ सहजस्वरूप जल्दी जान जाता है ऐसे इस अनादि अनंत शाश्वत ज्ञानस्वरूप की जो भावना करता है वह पुरुष जन्म, जरा, मरण का नाश करके शीघ्र निर्वाण को प्राप्त होता है ।