वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 63
From जैनकोष
जेसिं जीवसहावो णत्थि अभावो य सव्व हा तत्थ ।
ते होंति भिन्नदेहा सिद्धा वचिगोयरमदीदा ।।63।।
(111) आत्मस्वभाव की आराधना में आत्मोपलब्धि―जिन भव्य जीवों के जीव नामक पदार्थ सद्भावरूप हैं स्वभावरूप है भेदरूप नहीं है, ऐसी श्रद्धा है और जिस स्वरूप में जीव है उसी स्वरूप में जिसकी दृढ़ आराधना बनती है वे भव्य जीव देह से विमुक्त होकर सिद्ध होते हैं । सिद्ध का स्वरूप वचनों से नहीं कहा जा सकता । जो कुछ वचनों से कहा भी जा रहा तो उसका अर्थ वे ही समझ पाते हैं जिनको शुद्ध स्वरूप के संबंध में अभेदज्ञान हुआ है । जीव स्वद्रव्य पर्यायस्वरूप है, सो द्रव्यदृष्टि से जब निरखते हैं तो वह कथंचित् याने द्रव्यदृष्टि से अस्तिरूप है, नित्यरूप है और जब इस ही जीव को पर्यायस्वरूप से देखते हैं तो एक पर्याय दूसरी पर्याय से बिल्कुल जुदी है और पर्याय का स्वरूप और द्रव्य का स्वरूप जुदा है, तब वह जीवस्वरूप और द्रव्य का स्वरूप जुदा है, तब वह जीवपर्यायस्वरूप की दृष्टि से जैसा कि पहले द्रव्यार्थिकनय में देखा था वह नहीं है, इस कारण नास्तित्वरूप हैं, तथा अनित्यरूप है । पर्याय का स्वभाव ही यह है कि जो एक समय में है वह दूसरे समय में नहीं होता । सो जब जीव द्रव्यपर्यायस्वरूप है, भाव की भी परिणति होती है और प्रदेश के संकोच विस्तार की भी परिणति होती है तो इस संसार अवस्था में जीव के कर्म का निमित्त पाकर मनुष्य, तिर्यंच, देव, नारक, पर्याय हुआ करते हैं । जो इन पर्यायों का अभाव दिखता है, तो अभी तक मनुष्य थे, अब मनुष्य न रहे ऐसा निरखकर कहा करते हैं कि जीव मिट गया, जीव का अभाव हो गया, जीव का नाश हो गया । मगर द्रव्यदृष्टि से देखिये तो जीव तो नित्य स्वभावरूप है । उसकी पर्याय का अभाव होने से कहीं जीव का सर्वथा अभाव नहीं हो गया । वह तो देह से अलग हुआ अभी, सो संसार में अन्य देह में चला गया, और मुक्त अगर होना है तो देह से निराला होकर सिद्ध हो गया है, तो वह सिद्ध वचन के गोचर नहीं है । तीन लोक, तीन काल के समस्त सत् अवश होकर वहाँ ज्ञान में झलक रहे हैं । सो जो जीव देह को नष्ट होता हुआ देखकर जीव को सर्वथा नष्ट मानते हैं उनकी दृष्टि विपरीत है, वे सिद्ध होने का मार्ग नहीं पा सकते ।