वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 65
From जैनकोष
भावहि पंचपयारं णाणं अण्णाणणासणं सिग्धं ।
भावणभावियसहिओ दिवसिवसुहभायणो होइ ।।65।।
(120) आत्मशांति चाहने वालों का मार्ग ज्ञानभावना―अपने आपकी शांति चाहने वाले पुरुष अपने ज्ञानस्वरूप की भावना करें । देखिये धर्म, ज्ञान जो शांति के साधन आचार्यों ने बताये हैं यह केवल एक बताने भर की बात नहीं, कोई लकीर की बात नहीं किंतु प्रेक्टिकल करके देखें तो आत्मा को शांति का कारण सिवाय ज्ञानभावना के अन्य कुछ नहीं विदित होगा । ज्ञानी जानता है अपने को, मैं ज्ञानमात्र हूँ, ज्ञान ही मेरा सर्वस्व है, ज्ञान से ही रचा हुआ हूँ, ज्ञान की वृत्तियां उठें, ज्ञान की शुद्ध लहरें चलें जाननमात्र परिणमन रहे, यही मेरी कला है, यही मेरा काम है, इसका ही मैं कर्ता हूँ । अहा, ज्ञानका जानन परिणमन रहे, इसमें जो अलौकिक आनंद रहता है, समस्त विकल्प कलंक मिटने से जो एक वास्तविक सत्य सहज आनंद प्रकट होता है इसका ही मैं भोगता हूँ । इससे बाहर मेरा कुछ लेन देन नहीं । केवल अज्ञानी बनकर ही यह जीव बाहर में उपयोग लगाता है, विकल्प करता है ।
(121) गृहस्थ की नीति―संसार की रीति और मोक्ष की रीति ये परस्पर बिल्कुल भिन्न-भिन्न है । संसार की रीति की तरफ जब दृष्टि करते हैं तो ऐसा लगता है कि बढ़े चलो धन वैभव प्रतिष्ठा आदिक में, ये सब ठीक हैं । इसके बिना महत्त्व क्या? ये सब बातें जगती हैं । और, जब मोक्ष की दृष्टि से बात करें तो वास्तविकता ज्ञान में आती है कि प्रत्येक पदार्थ अपने प्रदेशों से बाहर कुछ कर ही नहीं सकता, बाकी तो सब निमित्तनैमित्तिक भावों से होता रहता हे । जो कुछ किया जा सकता है सो अपने ही गुणों में परिणमन किया जा सकता है । बाह्य से क्या संबंध? अरे उस संसार रीति का फल है―कर्म का बंध होना, जन्म मरण की परंपरा चलना, ये सब बातें चलती रहती हैं । अब घर में रहता हुआ गृहस्थ कैसे इसका समन्वय कर सके । साधुवों का तो ठीक है, स्पष्ट पंथ है, वहाँ तो कुछ भूला ही नहीं जा सकता है । एक मोक्ष रीति ही है । संसार रीति से वहाँ कुछ संबंध नहीं । जो साधु संसार रीति के वाचन में चलता है, इसमें अपना उपयोग लगाता है वह संसार के बंधन में ही है । तो साधुवों का तो बिल्कुल स्पष्ट निर्णय है कि मोक्षमार्ग की रीति में ही चले, पर गृहस्थ को क्या होगा? गृहस्थ का भी ठीक निर्णय है । जिस गृहस्थ के सदाचार का, पुण्य का उदय है सो साधारणतया यत्र तत्र प्रयास में धनवैभव आदिक सहज ही प्राप्त होते हैं । ज्ञानी गृहस्थ इसके लिए आकुलित नहीं होता । उसकी एक ही धुन है कि आत्मदृष्टि बनी रहे, सदाचार बना रहे । फिर उसका जो कुछ भी प्रयास होता है वह एक साधारण प्रयास में ही योग्य बातें चलती रहती हैं, पर मुख्य ध्यान तो मोक्षमार्ग की रीति का है, क्योंकि कदाचित् मान लो एक इस जीवन में कुछ संसार का वैभव बढ़ा लिया तो उससे इस जीव को क्या लाभ? जो अमूर्त है । ज्ञानस्वरूप है, देह से निराला है, देह को छोड़कर जायेगा उस अमूर्त ज्ञानस्वरूप आत्मा को कर्मबंध ही तो मिलेगा, जन्म मरण की परंपरा ही तो मिलेगी । इसलिए ये सब आत्महित में बाधक हैं । तो जिनको आत्महित चाहिए, संसार के संकटों से सदा के लिए छुटकारा चाहिए, उनका कर्तव्य है कि वे मोक्षमार्ग की रीति में चलें । वह रीति है ज्ञानभावना । अपने को ज्ञानस्वरूप मानें, अपनी सारी दुनिया इस स्वरूप में ही माने, अपने स्वरूप सर्वस्व से बाहर कुछ भी नहीं है ऐसा दृढ़ निर्णय रखें ।
(122) ज्ञानभावना की रीति―यहाँं आचार्य कल्याणार्थी पुरुषों को उपदेश कर रहे हैं कि अज्ञानता का शीघ्र नाश करने वाले जो 5 प्रकार के ज्ञान हैं उनकी भावना करो । ज्ञान मूल में एक ही प्रकार का है । उसमें विशेषतायें नहीं हैं । विशेषतायें जहाँ होती हैं, जीव के ही किसी पर प्रसंग के कारण होती हैं । स्वयं तो वह एक अवक्तव्य है । ज्ञान में जो ये 5 भेद डालें मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान, सो 5 प्रकार की, ये परिणतियां हैं, और वे किसी कारण से बतायी गई हैं । जहाँ मतिज्ञानावरण का क्षयोपशम है और इंद्रिय व मन सही है वहाँ इन इंद्रिय आदि के द्वारा कुछ ज्ञान जगता है, वह है मतिज्ञान । फिर उस ज्ञान के ज्ञेय में और ज्ञान बढ़ाया जाता सो है श्रुतज्ञान । श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर अवधिज्ञान जगता है । जहाँ कुछ आगे पीछे की कुछ दूर की घटना को वह आत्मज्ञान से आत्मा द्वारा ही जान लेता है, इंद्रिय मन की सहायता वहाँ नहीं होती । मनःपर्ययज्ञान दूसरे के मन की बात को जान जाना इसका काम है । यह साधुवों के ही होता है । मनःपर्ययज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर यह ज्ञान होता है । जहाँ समस्त ज्ञानावरण नष्ट हो गया वहाँ केवलज्ञान जगता है, जिससे तीनों लोक के भूत, भविष्य और वर्तमान के सब सत् व अलोक एक साथ पूर्ण स्पष्ट ज्ञात होते रहते हैं । ये सब ज्ञान के ही तो परिणमन हैं । ज्ञानस्वरूप एक है, उस ही के कारणवश ऐसे-ऐसे विकास बने हैं । तो जहाँ ये 5 प्रकार के विकास बनते हैं, ऐसे उस मूल ज्ञानस्वरूप को देखिये जैसे मनुष्य, बच्चा, जवान और बूढ़ा । तो बच्चा, जवान, बूढ़ा ये तो दशायें हैं, पर इन सब तीनों दशाओं में रहने वाला जो एक मनुष्य सामान्य है वह ज्ञान में तो आता है कि मनुष्य यह है, पर आंखों से देखेंगे तो मनुष्य न दिखेगा बच्चा दिखेगा, जवान दिखेगा, बूढ़ा दिखेगा, पर मनुष्य किसी को न दिखेगा याने वह मनुष्य सामान्य इन तीन दशाओंरूप में दिखेगा, पर ज्ञानबल से जब तर्क से सोचा जाता है कि बच्चा तो कुछ वर्षों में नहीं रहता, जवान भी नहीं रहता, वृद्ध भी कभी होता, पर मनुष्य तो जन्म से मरण तक रहता है । वह मनुष्य क्या? तो जैसे मनुष्य सामान्य और बालुक आदिक दशायें जानी जाती हैं, ऐसे ही ज्ञानसामान्य और मतिज्ञानादिक पंच दशायें जानी जाती हैं।
भैया, वहाँ दृष्टि ले जाना है कि जहाँ बाह्य विकल्प मिट जाते हैं और अपने स्वरूप का अनुभव हो? तो पहले इन 5 प्रकार के ज्ञानों के परिचय से तो कुछ ज्ञान बढ़ाये । अब ज्ञान बढ़ाकर उन पांचों को ही भूलकर उन पांचों का श्रोतभूत मूल आधार जो ज्ञानस्वभाव है उसकी भावना बनाये, तुरंत शांति मिलेगी, कर्म का क्षय होगा । यह बात तो आप अनुभव से कभी भी समझ सकते हैं । किसी भी क्षण बैठे हुए, लेटे हुए, खड़े हुए एकाग्र ध्यान बन जाये और इस परिचय के बल से कि जगत, बाहरी पदार्थों की घटनायें, इनसे मेरा कुछ संबंध नहीं है, मैं तो ज्ञानमात्र हूँ और अपने को मात्र ज्ञानस्वरूप में निरखे तो उसे अद्भुत शांति प्राप्त होती है, अपनी निज की चीज यस है बाकी सब पर हैं, बेकार है । जिन पर मनुष्यों को गौरव होता है कि ये मेरे हैं इनसे मैं महान हूँ, यह सब कोरा भ्रम है और वे अज्ञान दशा में चल रहे हैं, हालांकि संसार में यह सब संगम होता है, पर इनके बीच रहते हुए भी जल में कमल की भांति निर्लेप रहना चाहिये । जैसे कमल जल से ही पैदा हुआ, जल में ही रह रहा, फिर भी वह जल को छू नहीं रहा । वह जल से ऊपर दो-एक हाथ दूर रहकर वहाँ प्रफुल्लित रहता है । यदि कमल जल को छू ले तो वह ठीक नहीं रह सकता, ऐसे ही घर में पैदा हुए घर में रह रहे, मगर घर को छोड़कर रहे गृहस्थ तो वह सड़ा हुआसा रहेगा याने कर्मबंध से लिप्त होगा, संसार में जन्म मरण के संकट सहेगा । घर में पैदा हुआ, घर में रह रहा पर घर से अलग रहे उपयोग, प्रतीति में, श्रद्धा में यह रहे कि मैं तो ज्ञानस्वरूप हूँ, मेरा स्वरूप ही मेरा घर है । मैं अपने स्वरूप में ही बर्तता रहता हूँ तो वह गृहस्थ घर में रहकर भी अपने पदानुसार कर्मों का क्षयकरता रहता है और अलौकिक शांति पाता रहता है । तो हे भव्य तू इन 5 प्रकार के ज्ञानों को भावित कर अर्थात् सम्यग्दर्शन सहित होकर इन ज्ञानों में रह ।
(123) सम्यक्त्ववासित ज्ञानभावना सौरभ―जिसके सम्यक्त्व नहीं उसके कुज्ञान कहा गया है । फिर यह ज्ञान ही नहीं कहलाता । जीव का सहारा सम्यग्दर्शन है । संसार में दूसरा कोई सहायक नहीं । यहाँ गर्व करना एक बहुत बड़ी विपत्ति में डालने वाली बात है । मेरा यह है, मेरा इतना प्रताप है, मेरा ऐसा यश है, ये सब स्वप्न के समान विकल्प बनाना इस जीव की दुर्दशा कराने के कारण हैं । जिनको अपने आत्मा का सही बोध है, यह ज्ञानस्वरूप अमूर्त है, ज्ञान के द्वारा ही ज्ञान में आने वाला, किसी इंद्रिय द्वारा नहीं दिख सकता । बाहरी विकल्प छोड़कर आराम से रहे तो अपने ही जान द्वारा अपने ही ज्ञानस्वरूप को कुछ जानता हुआ, स्पर्श करता हुआ यह अपने में अद्भुत प्रमोद पाता है । तो सम्यक्त्व का महत्त्व जानें और ऐसा निर्णय करें कि मुझे सम्यग्दर्शन सत्यज्ञान सम्यक्चारित्र के अतिरिक्त कुछ चाहिये ही नहीं । लोक में ऐसा कह बैठते कि ‘‘मनचंगा तो कटौती में गंगा’’ । यहाँ वास्तविकता यह है कि अपना उपयोग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र से युक्त है तो सर्व उत्तम वैभव पा लिया गया है । बाहर में इस जीव का कुछ वैभव नहीं । केवल एक मान लेने की चीज है । और उस मानने का फल है नरक निगोद आदिक की दुर्गतियां संसार में भोगते रहना । आत्मा का वैभव रत्नत्रय ही है, सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्र ही है । अपने आपके ज्ञान में यह प्रतीति बन जाये कि मैं ज्ञानस्वरूप हूँ, अपने प्रदेशों में रहता हूँ इतना ही मात्र हूँ । इसके अतिरिक्त मैं अन्य कुछ नहीं । ऐसा ही विश्वास बने और ऐसा ही रमण करें, अपने आप में ही ज्ञान को रमाकर संतुष्ट रहे यह है अद᳭भुत वैभव जीव का । इसको छोड़कर अन्य कुछ भी वैभव नहीं है । सो हे आत्मकल्याण चाहने वाले पुरुषो ! अपने आपको इस ज्ञान भावना से युक्त करो ।