वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 80
From जैनकोष
जह रयणाणं पवरं वज्जं जह तरुगणाण गोसीरं ।
तह धम्माणं पवरं जिणधम्मं भावि भवमहणं ।꠰80꠰।
(236) संसारसंकटविध्वंसक जैनशासन की भावना का उपदेश―हे आत्मकल्याण चाहने वाले जीव ! तुम उस जिनधर्म को धारण करो जो संसार को मथ देता है अर्थात् जिससे संसार के संकट जन्ममरण ये सब दूर हो जाते हैं । वह जिनधर्म क्या? आत्मधर्म । आत्मा का जो स्वरूप है ज्ञानस्वरूप, उस मात्र अपना अनुभव करो, मैं इतना ही हूँ । बाहरी पदार्थ के संयोग से मानना कि मैं पुत्रवाला हूँ, घरवाला हूँ, धनवाला हूँ, यह तो दूर रहो, यह तो अत्यंत ही मूढ़ता की बात है । पर जो अपने को ऐसा भी तक रहा है कि मैं विचार वाला हूं, विभावों में आत्मीयता अनुभव करना यह भी मूढ़ता है । मोह छोड़ा नहीं जाता । लोग ऐसी विवशता अनुभव करते और कहते हैं, पर यह दृष्टि में नहीं आता कि मोह मेरा स्वरूप ही नहीं । अपने को ज्ञानमात्र देखें, उसके छोड़ने में, कौनसी तकलीफ है? परिस्थितिवश राग करना पड़े वह तो परिस्थिति की बात है, पर भीतर में श्रद्धा सही ही रखना चाहिए, मेरा अन्य परिजनों से तो संबंध ही क्या? रागद्वेष मोहविकार विकल्प तर्क आदि जो मेरे में उठते हैं वे भी मेरे स्वरूप नहीं । इस प्रकार के अंतस्तत्त्व का नाम है जिनधर्म, उसका पालन करें अर्थात् रागद्वेष को जीतने वाले भगवान जिनेंद्र ने जो मार्ग बताया है उस मार्ग पर चलें ।
(237) सर्वश्रेष्ठ आत्मशासन से अपने को अनुशासित करने का कर्तव्य―यह जिनमार्ग सर्व धर्मों में श्रेष्ठ है । लोक में धर्म बहुत माने जाते, पर वस्तुत: धर्म तो एक ही है । जो आत्मा का स्वभाव है वही धर्म हैं और वही सर्वश्रेष्ठ है सो ऐसा श्रेष्ठ है जैसे सर्वरत्नों में वज्रहीरक श्रेष्ठ होता है, ऐसे ही सर्व धर्मों में यह आत्मधर्म, जैनधर्म ज्ञानस्वरूप, इसकी उपासना यह सर्वश्रेष्ठ है । जैसे वृक्ष में चंदन श्रेष्ठ है, ऐसे ही यह आत्मभावना सर्व कर्तव्यों में श्रेष्ठ है, जिसके प्रताप से संसार के जन्ममरण संकट आदिक सर्व दूर हो जाते हैं । एक क्षण तो अपने आप पर दया करके सर्व का ख्याल छोड़ दीजिए । कोई मेरा कुछ नहीं है, एक अणु भी मेरा हितकारी नहीं है, मेरा कुछ नहीं है । मैं ज्ञानमात्र हूँ । मुझे अपने आपको ज्ञानस्वरूपमात्र निरखना है, उसी को तको । एक क्षण भी अगर अपने को ऐसा अकेला ज्ञानमात्र निरख सके तो इसके साथ ऐसा अद्भुत आनंद आता है कि जिससे पूर्ण श्रद्धा हो जाती है कि हितकारी तो मेरा यह स्वरूप ही है, क्योंकि जिसके सहवास से सुख मिले तो उस पर श्रद्धा जम जाती है । यह प्राय: लोकरीति है, और फिर जिस तत्त्वज्ञान के अनुभव से अलौकिक सत्य आनंद जगे, फिर उसे आत्मा में क्यों श्रद्धा न होगी? आत्मा की चर्चा करके भी श्रद्धारहित है जो कोई सो इस कारण है कि उनको ज्ञान के अनुभव का स्वाद नहीं आया । ज्ञानानुभव हो, उसका आनंद पा लिया गया हो, उसे कभी खबर न भूलेगी, सदा ध्यान में रहेगी कि नहीं ? विधि तो यही है । अन्यत्र कहीं आनंद नहीं, फिर इसी ज्ञानस्वरूप में ज्ञान बनाये रहने का पौरुष करेगा । उसी में रम जायेगा । यदि शांति चाहिये हो तो अपने आत्मा के सही स्वरूप का भान कीजिए । जो करेगा सो पार होगा । केवल बात बोलने से कोई पार नहीं होता, किंतु जो हिम्मत बनाये समस्त बाह्यपदार्थों का ममत्व त्यागे, अविकार ज्ञानस्वभाव को ज्ञान में लें उसमें वह शूरता आयेगी कि वह आनंद का अनुभव करेगा, कर्मों का क्षय करेगा । जन्म मरण के संकट अपने दूर करेगा । सो हे मुने ! तुम सर्व में श्रेष्ठ इस जैनधर्म को, इस ज्ञानस्वरूप को भावो, इसी में रुचि करो, यह ही संसार के सर्वसंकटों को छेदने वाला है ।