वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 93
From जैनकोष
जह पत्थरो णु भिज्जइ परिटि᳭ठओ दोहकालमुदएण ।
तह साहूविण भिज्जइ उवसग्गपरीसहेहितो ।꠰93।।
(287) परीषह उपसर्गों से भी साधु की अचलितता―पूर्व गाथा में बताया था कि हे आत्मकल्याण चाहने वाले साधुजनों इन परीषहों को सहन करो और नियम का घात न हो, एतदर्थ प्रमत्त रहित बनो । तो प्रमत्तरहित की क्या दशायें होती हैं इसका इस गाथा में संकेत मिला है । जैसे पत्थर बहुत काल तक भी पानी में डूबा रहे, पानी में खड़ा हुआ होकर भी पत्थर भिदता नहीं, अपने स्वभाव से चिगता नहीं, इसी प्रकार जो साधुपुरुष हैं वे उपसर्ग और परीषहों से भिदते नहीं । चारों ओर से परीषह और उपसर्ग से घिरे हों तब भी वे विचलित नहीं होते इसका कारण क्या है? यहाँ तो जरा सी फुंसी हो जाये तो घबड़ाते हैं, जरा सा बुखार हो जाये तो घबड़ाते हैं, सिरदर्द हो जाये तो ध्यान नहीं लगता । और जो ज्ञानीजन हैं उन्होंने कौनसी औषधि पी ली जिससे बड़े-बड़े उपसर्ग परीषह आये तो भी वे विचलित नहीं होते? वह औषधि है आत्मा के सहजस्वरूप की धुन । यहाँ भी तो जिसको धन की तृष्णा में धुन है वह भी तो बड़े-बड़े परीषहों से घबड़ाता नहीं । हवाई जहाज से जाये या जल के जहाज से जाये, जल्दी-जल्दी दौड़-दौड़कर जाये, गर्मी में जाये, ठंड में जाये, भूख भी सहे, गाली भी सहे, अपमान भी सहे । ये धन की तृष्णा करने वाले लोग परीषहविजय में मुनियों से कम नहीं हैं (हंसी) । मुनि सहते हैं परीषह समता से और ये तृष्णा करने वाले धनिक लोग उपसर्ग सहते हैं ममता से । इन गृहस्थों को रहती है कषाय, मुनिजनों के कषाय नहीं होती यह एक अंतर है ।
(288) सहजज्ञानस्वरूप की धुन का चमत्कार―उन ज्ञानीजनों ने कौनसी वस्तु पायी ? आत्मा के सहजस्वरूप की धुन । अंतरंग में परखो कि मैं हूँ, जब मैं हूँ तो अकेला ही तो सत् हूँ । दो सत् पदार्थ मिलकर एक नहीं बना करते । तो यह वस्तुस्वरूप है । प्रत्येकपदार्थ अपनी-अपनी सत्ता से ही सत् है । भले ही आज मिलावट में हूँ और इस देहबंधन में फंसा हूँ । और यह सब हो रहा है निमित्तनैमित्तिक योगवश, मगर सत्ता सबकी अपनी ही है, किसी अन्य की कृपा से अन्य की सत्ता नहीं होती । तो मैं सत् हूँ, तो मेरा कोई वास्तविक परमार्थ स्वरूप तो है । वह परमार्थ स्वरूप क्या? ज्ञानमात्र । अनेक मिली हुई दवाई या शर्बत में परख करने वाले लोग परख कर लेते हैं कि इसमें ये-ये दवाई पड़ी है, यह दवा इतने अंश से है यह इतने अंश में । भले ही यह मनुष्यपर्याय है, यह केवल आत्मा की तो नहीं है मनुष्य पर्याय । यह केवल कर्म की तो नहीं है मनुष्यपर्याय, यह केवल शरीर की तो नहीं है मनुष्य पर्याय । तो क्या तीनों की मिलकर है मनुष्यपर्याय? सो तीन की मिलकर भी नहीं है मनुष्य पर्याय । तो क्या जादू है? कौन सा मदारी का खेल है? सबकी अपनी-अपनी परिणति होती रहती है तिस पर भी निमित्त नैमित्तिक योगवश तीनों ही बिगड़ रहे हैं । इन तीन का जो बिगाड़ है, उनका जो एक जोड़ है वह है मनुष्यपर्याय । तो इस बीच में भी ज्ञानबल से केवल आत्मा के सत्त्व को निहारो । मैं ज्ञानस्वरूप हूँ ।
(289) सहज परमात्मतत्त्व की दृष्टि की अलौकिक वैभवरूपता―इस ज्ञानस्वरूप का वास्तव में क्या कार्य है? स्वयं का, अकेले का वास्तव में कार्य है ज्ञान की वृत्ति लहर उठाना । शुद्ध रहे केवल जानन-जानन हो । देखो बिगड़ी हालत में बिगड़े पर ही दृष्टि दें तो बिगड़ी मिटेगी कि बढ़ेगी? बढ़ेगी और बिगड़ी हालत में बिगाड़ पर दृष्टि न दें ध्यान के लिए, उपासना के लिए और आत्मा के सहज स्वरूप पर दृष्टि दें तो बिगाड़ मिटेगा । और कोई माने कि बिगाड़ है ही नहीं मेरा, तब तो अच्छा कुछ नहीं बनने का । करेंगे क्या? क्या करना है फिर? जब बिगाड़ ही कुछ नहीं है । बिगाड़ की बात दृष्टि में लेना भला नहीं है, दृष्टि रखना है परमार्थ स्वरूप की । तो ज्ञानी साधु संतों ने सहज आत्मस्वरूप की अनुभूति की । उसकी धुन बनी, उसकी तृष्णा बढ़ी, तृष्णा नही किंतु तीव्र धुन । वही पसंद है, वही इष्ट है, अन्य कुछ मूल्यवान है ही नहीं । देह, प्राण ये कोई मूल्यवान वस्तु नहीं, किंतु सहज ज्ञानस्वरूप की दृष्टि यह ही इसके लिए मूल्यवान है । तो इसके लिए वह परीषहों से क्यों विचलित हो? विचलित होने से तो यह ज्ञानधन लुट जाता है इस कारण वे विचलित नहीं होते ।