वर्णीजी-प्रवचन:भावपाहुड - गाथा 95
From जैनकोष
सव्वविरओ वि भावहि णवयपयत्थाइं सत्ततच्चाइं ।
जीवसमासाइं मुणी चउदसगुणठाणणामाइं ꠰꠰95꠰।
(318) सर्वविरत होकर भी ज्ञानभावना का प्रवर्तन―सर्व परिग्रह से विरक्त भी हो गए तो भी हे मुने इन 9 पदार्थों के मनन में लगो । 7 तत्त्वों के मनन में लगो । जीवसमास की चर्चा भी समझो और 14 गुणस्थानों को भी जानो । सर्व कुछ छोड़ दिया, मुनि हो गए, पर अब 24 घंटे समय काहे में बिताना? अगर ठाली रहे तो अटपट बातें आयेंगी, समाज की पड़ोस की प्रशंसा की, निंदा की, आलोचना की, या प्रमाद करेंगे । उसमें भाव शुद्ध नहीं रहते । तो 24 घंटे समय बिताने को चाहिए ना कुछ । तो क्या चाहिए मुनियों को कि तत्त्वविज्ञान का मनन चिंतन करें । किसमें ये समय बिताये, पर मुनियों का तो जो कर्तव्य है उसे मुनि न करें तो उनका पतन है । मगर श्रावकों की भी कुछ जिम्मेदारी है कि वे अपना ऐसा व्यवहार रखें साधुजनों से कि उनका पतन न हो सके । और व्यवहार क्या, बस उनकी भक्ति पूर्वक सेवा करें और उन्हें किसी पचड़े में न पड़ने दें । अगर वे कोई बात कहते हैं पचड़े की समाज की तो यहाँ तक कि मुनियों की तो समारोह विधान में द्रव्यपूजन में या अन्य बातों में भी प्रवृत्ति न करना चाहिए । उनका तो केवल आत्मध्यान और ज्ञान का काम है । अब यदि कोई मुनि अन्य बातों में पड़ता है तो श्रावक जन उन्हें करने से रोकें । बाहरी बातों में पड़ने से उनके मुनिपने में हीनता आती है और उन विधेयकों में भी पापबंध होता है । हमें चाहिए साधु परमेष्ठित्व, जिनका कि रूप अरहंत के करीब निकट का है। तो कुछ उत्तरदायित्व श्रावकों पर भी है । सो दोनों ही अपना कर्तव्य यदि नहीं निभाते तो जहाँ जाना है सो दोनों ही जायेंगे । तो साधुजनों को प्रतिबोध किया है कि सर्वविरत होकर भी तत्त्वविज्ञान की भावना में रहें ।
(319) नवतत्त्वपरिचय में जीव व अजीवतत्त्व का संक्षिप्त परिचय―नव पदार्थों को जाने कि जीव अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य और पाप । यदि पुण्य और पाप न कहें तो 7 तत्त्व कहें । 7 तत्त्वों में भी 9 बातें आयीं और 9 में भी 7 बातें आयी । पुण्य और पाप तो आस्रव के भेद हैं । अलग से न बोले पुण्य पाप तो एक आस्रव ही कह लें, दोनों आ गए । तो 7 तत्त्व समझिये । जीव मायने जो जानन देखनहार स्वयं आनंदमय है, चैतन्यस्वरूप है वह कहलाता है जीव । सो कैसी श्रद्धा करना कि वास्तव में जीव है कैसा? जीव सत्य ज्ञानस्वरूपी है । अपने ही प्रदेशों में अपने ही स्वरूप में रहने वाला है । सबसे निराला यह जीवद्रव्य है । अजीव-जीव को छोड़कर बाकी सब भाव अजीव हैं । तत्त्वविज्ञान की भी दृष्टियां अनेक होती हैं । कहां बैठकर देखना? उससे वस्तु की मुद्रा में विभिन्न दर्शन चला करते हैं । जैसे जब 4-5 मंजिल के ऊपर खड़े होकर नीचे सड़क पर देखेंगे तो चलने फिरने वाले लोग छोटे-छोटे दिखाई दें तो और जब नीचे सड़क पर पहुंचकर अपने सामने चलते फिरते लोगों को देखेंगे पूरे 5-5꠰। फिट के दिखाई देंगे, तो ऐसे ही तत्त्व को समझने का एक मूड होता है जुदा-जुदा । झगड़े किस बात पर चलते हैं? एकांत हो जाये तो झगड़ा हो जाये । यदि अनेकांत और स्याद्वाद को अपनायें तो कभी झगड़ा हो ही नहीं सकता जीव और अजीव में ही देखो―जब पर्याय दृष्टि से देखा तो जीव लगा कि यह औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और पारिणामिक भाव में रहता है और अजीव वह लगा कि जिसमें ज्ञानदर्शन नहीं है । अब जरा शुद्धदृष्टि से देखें तो जीव वह कहलाया कि जो मात्र चैतन्यस्वरूप है, जिसमें विषय नहीं, कषाय नहीं, गुण पर्याय का भेद नहीं । तो ऐसा जब जीव को देखा जा रहा है तो अजीव क्या रहा? धन वैभव तो अजीव हैं ही, यह देह भी अजीव है, कर्म भी अजीव हैं और कर्म के उदय का निमित्त पाकर जीव में जो अध्यवसान, रागद्वेष भाव, तर्क, चिंतन विचार जो भी चलते हैं वे भी अजीव हैं, अब जिसको समझ न होवे वह तो है अजीव और जिसमें समझ बने वह है जीव । अभी यह जाना, अब यह जाना । अब कहां बैठ कर देखा जा रहा है उसका फल है यह सब । और अजीव वह है जिसमें ज्ञान नहीं है । यहाँ 7 तत्त्वों में अजीव शब्द से परिलक्षित हैं कर्म, क्योंकि दोनों का ही गुथन और निवारण इन तत्त्वों का प्रयोजन है ।
(320) आस्रव तत्त्व―जीव और कर्म ये तो हुए जीव और अजीव आस्रव हुआ जीव में कर्म का आना । अब उसके विशेष विवरण में चलें तो जीव में कर्म कहां प्रवेश करते ? जो कार्माणवर्गणायें हैं वे कर्मरूप बने इसे कहते हैं आस्रव और ऐसा ही निमित्तनैमित्तिक योग है कि एक क्षेत्रावगाह रहते हैं । जैसे बाप का लड़के से प्यार अधिक होता तो लड़का बाप को छोड़कर तो न रहेगा । बाप कहीं जायेगा तो वह लड़का भी जायेगा । यह एक सामान्य बात कह रहे, अगर किसी से प्रीति करे तो वह साथ रहेगा । ऐसे ही जीव ने कर्म के फल से प्रीति की तो ये कर्म इसके साथ लगे हैं । एक जगह एक बूढ़ा व्यक्ति अपने द्वार के चबूतरे पर आराम से बैठा हुआ था । उसके पास उसके ही कई नातीपोते खेल रहे थे । उनमें से कोई लड़का उस बुड्ढे का हाथ झकझोर रहा था, कोई सिर हिला रहा था, कोई मूछ पटा रहा था, उससे वह बुड्ढा काफी हैरान हो गया । यहाँ तक कि रोने भी लगा । इतने में ही वहाँ से निकला कोई संन्यासी । तो वह संन्यासी पूछ बैठा―कहो बाबा जी, तुम क्यों रो रहे? तो वह बुड्ढा बोला―क्या बताऊं, मैं तो बड़े संकट में हूँ, मेरे ही ये नाती पोते मुझे बड़ा हैरान करते हैं, सीधे बैठने नहीं देते । तो क्या मैं तुम्हारा यह संकट मेट दूं । हां हां महाराज आपकी बड़ी कृपा होगी जो हमें इस संकट से बचा लेंगे । अब वह बुड्ढा तो ऐसा समझ रहा था कि सन्यासीजी कोई ऐसा जादू फेंक देंगे कि ये नाती पोते फिर तो हमारे सामने हाथ जोड़े-जोड़े फिरेंगे, पर संन्यासी ने कहा अच्छा उठो, तुम हमारे साथ चलो । इस नाती पोते के झगड़े को छोड़ दो । तो वह बुड्ढा झुंझलाकर बोला―अरे तुम मुझे क्यों बहका रहे? जावो । चाहे ये हमें पीटे या मारे ये हमारे नाती पोते ही कहलायेंगे ꠰ हम इनके बाबा ही कहलायेंगे । हमारे इनके बीच में इतना फर्क डालने वाले तुम कौन तीसरे आ गए? तो देखो जिस मोह के कारण ये संसारी प्राणी दुःखी होते जाते उस मोह को छोड़ना नहीं चाहते ।
(321) आस्रव की दुःखकारिता―मुग्ध व्यामोही यह चाहते हैं कि राग छोड़ना न पड़े और आनंद मिल जाये, पर यह बात कभी संभव नहीं । इस अनादि संसार में न जाने कितने ही भव पाये, कितने ही संग समागम पाये फिर भी बताओ इस वक्त भी पास में है क्या कुछ? कुछ भी तो नहीं है । सूने के सूने हैं लेकिन इस भव में भी यह मोह छोड़ा नहीं जा पा रहा । धुन बनी है धन वैभव जोड़ने को । खूब धन वैभव जोड़-जोड़कर, उसे देख देखकर खुश हो रहे । अरे खुश कहां हुए? वे तो बड़ी विपत्ति में हैं । जब भाव शुद्ध नहीं है, भाव जब अज्ञानमय है तो विपत्ति में पड़े हैं । जैसे बहुत ऊंचे चढ़कर कोई गिरे तो उसको बड़ी चोट लगेगी ऐसे ही कोई बड़ा सुख पाकर अपने भावों से गिरे तो उसकी बड़ी कठिन दुर्गति होगी । सो मोह रागद्वेष ये आश्रय हैं, ये यहाँ दुःखदायी हैं और जीव इनमें लगाव लगाये तो ये कर्म उसके साथ रहते हैं । ऐसा ही निमित्तनैमित्तिक योग है, कर्मों का आस्रव हुआ ।
(322) बंध तत्त्व―जैसी कषाय साथ में है वैसा ही उसका बंध भी होता । बंध मायने है―इस आत्मा के साथ कर्म का रहना । पर यह बंध कैसे न हो? कषाय तो साथ लगी है । शास्त्रसभा में बैठे हों और पास ही में जरा दूर खुद का लड़का बैठा हो तो झट उस लड़के पर ही ध्यान पहुंचता है । इतनी भी बात चित्त में नहीं आती कि थोड़ी देर के लिए ध्यान से बैठकर जिनवाणी सुने । भीतर ये रागद्वेष मोह ऐसा घन पड़े हुए हैं कि जैसे पत्थर में पानी का प्रवेश नहीं, ऐसे ही इस मोह भरे हृदय में जिनवाणी के शब्दों का प्रवेश नहीं है । इन कषायों को दूर करना पड़ेगा अन्यथा धर्मपालन का ढोंग क्यों रखा जा रहा? अगर यह आशय न बनाया कि ये कषायें बैरी हैं और मुझे कषाय छोड़ना चाहिए तो इन कषायों में और इन बाह्य विषयों में कुछ भी सार नहीं है । ऐसा अगर आशय न बने तो मंदिर में आने का प्रयोजन क्या है, सो तो बताओ? फिर तो ऐसा समझो जैसे उर्दू में कहते तफरी करना (दिल बहलाया) किसी तरह से समय काटने की एक प्रकार की आदत सी बन गई ।
(323) भावशुद्धि के लिये सहजात्मस्वरूप की प्रतीति की अनन्यसाधकता―अरे अगर यह आशय बना लिया जाये कि अज्ञान और कषाय ये ही मेरे बैरी हैं और ज्ञान और वैराग्य ये ही मेरे मित्र हैं, मुझे कुछ मिलेगा तो मेरे आत्मा भगवान से मिलेगा । बाहर से कुछ नहीं मिलने का अरे जितने भी बाहरी संग समागम हैं वे तो मात्र अनर्थ के लिए हैं । मुझे तो ज्ञान चाहिए । मुझे तो वैराग्य की उमंग चाहिए । तो जिनके पूर्णज्ञान प्रकट है, जिनके वीतरागता हुई है उन भगवान की मूर्ति है यह । उसे निरखकर हम साक्षात् भगवान का ध्यान बनायेंगे तो कुछ तो मेरे पर असर होगा । ज्ञान और वैराग्य के लिए कुछ तो प्रीति होगी । यह प्रयोजन रखकर घर से मंदिर में आवे और मंदिर में अपने आवश्यक कार्य करे तब तो लाभ है अन्यथा जैसे लोग कहने लगते वैसा ही कह लो कि कुछ तो ठीक है । जहाँ कषाय है वहाँ ही अधर्म है । धर्मध्यान का पूरा ठेका नहीं है कहीं कि मंदिर में आने पर मेरे धर्मध्यान बन ही जायेगा । अगर ज्ञानभाव है तो बन जायेगा नहीं तो खोटा ही ध्यान बनेगा । और कहो अशुद्ध दशा में है, मान लो शौच के लिए गए हुए हैं या अन्य किसी प्रकार से अशुद्ध दशा में हैं, और कहो उसी अशुद्ध दशा में बड़ा पवित्र ध्यान बन जाये? वैसे ये मंदिर, शास्त्र, प्रतिमा आदिक धर्मपालन के साधन हैं, पर इनके साथ अपना ज्ञान सही रहे तो ये धर्म के साधन बनते हैं, और यदि वहाँ भी ज्ञान सही नहीं है, अज्ञानदशा में चल रहे हैं, कषायें चल रहीं हैं तो उन धर्मसाधनों से भी कुछ फायदा न उठाया ।
(324) संवरतत्त्व का निर्देश―भैया ! इन धर्मसाधनों से ज्ञानपूर्वक धर्मसाधना करते रहें विषय कषायों से अपने को दूर रखें तो वहाँ कर्मों का संवर होगा याने कर्मों का आना रुक जायेगा । बताओ यह संवर आपको पसंद है कि नहीं? हा पसंद होना ही चाहिए, अन्यथा गुजारा न चलेगा । अब आप खुद विचारें कि हमारे अंदर धर्म पालन करके वीतरागता का भाव आता है कि नहीं? देखा होगा कि लोग मंदिर में कभी-कभी स्त्री पुरुष एक साथ दर्शन करने के लिए खड़े होते तो वहाँ क्या करते कि रागवश उस स्त्री के हाथ से तो बादाम चढ़वाते और खुद काला एक कमलगट्टा चढ़ा देते । अब बताओ जहाँ राग साथ लगा है वहाँ वीतरागता के दर्शन कहां से हो सकते? बहुत से लोग कहने भी लगते कि स्वाध्याय में हमारा मन नहीं लगता, अमुक ग्रंथ के पढ़ने में हमारा मन नहीं लगता । तो ठीक है, यदि उस ग्रंथ के पढ़ने में मन नहीं लगता तो जो सरल रोचक ग्रंथ हों उनका स्वाध्याय करें । जैसे भी हो, अपने अंदर धर्म भाव बनाकर संवर तत्त्व में आइये । इस सम्वर तत्त्व में आने से कर्मों का आना रुक जायेगा ।
(325) निर्जरा व मोक्ष तत्त्व का निर्देश―निर्जरा तत्त्व में कर्मों का झड़ना होता है । जो पहले रागद्वेष मोहवश कर्मबंध किया वे कर्म निर्जरा तत्त्व में झड़ते हैं । सो यह विचार करो कि कर्म जुदे और कर्मफल जुदा । मैं तो ज्ञानस्वरूप हूँ । ऐसे आनंदमय ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्व में आइये । कर्म झड़ जायेंगे । जैसे गीली धोती में यदि धूल चिपक जाये तो धूप में सुखा लेने पर थोड़ा सा झटक देने से ही सारी धूल झड़ जाती है ऐसे ही भव-भव के बांधे हुए कर्म भी ज्ञान और वैराग्य के बल से झड़ जाया करते हैं ! इस तत्त्व के चिंतन में अपने लिए शिक्षा भी मिलती है । जहाँ कर्म सब झड़ गए वहाँ मोक्ष तत्त्व प्रकट होता है, जो एक निज अंतस्तत्त्व है ज्ञानज्योति, वही मात्र रहे उसे कहते हैं मोक्ष । तो हे मुने बाह्य लिंग से निर्ग्रंथ दिगंबर तो हुए, मगर तत्त्व की भावना में चलें जिससे लाभ है, नहीं तो अपने को भी ठगा और जिन भक्तों से सिर रगड़वाया उनको भी ठगा । दोनों ही किसी जगह रुक जायेंगे । सो वह उससे बदला लेगा वह उससे । सो ज्ञानभावना में आवो और अपने इस दुर्लभ मानव जीवन को सफल करो ।
(326) जीवसमासों के परिचयन का उपदेश―भावपाहुड़ ग्रंथ में मुनिराज को उपदेश किया गया है कि मुनिवरों ! सर्व परिग्रहों से विरक्त होकर तुम ह पदार्थ 7 तत्त्व की भावना करो और 14 जीवसमास एवं 14 गुणस्थान का चिंतन करो । जीवसमास कहते किसे है? जहाँ जीवों का संग्रह हो, वह जीवसमास है । जिन धर्मों के द्वारा अनेक जीव ग्रहण में आयें उन धर्मो को जीवसमास कहते हैं । जीवों का वर्णन, जीव समास का वर्णन अनेक ढंग में होता है । अब 14 जीवसमास एक प्रसिद्धं ढंग है । 5 तरह के जीव होते हैं, सब जानते हैं । संसारी जीव एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय और पंचेंद्रिय । एकेंद्रिय किसे कहते हैं? जिसमें सिर्फ एक स्पर्शनइंद्रिय है । बस शरीर हो, जैसे पेड़, पानी, पृथ्वी, हवा, अग्नि ये सब एकेंद्रिय कहलाते हैं । जिसके स्पर्शन रसना ये दो इंद्रिय हों वह दोइंद्रिय । रसना जीभ को कहते हैं । जैसे लट, केंचुवा, जोंक, शंख, कौड़ी, सीप । तीनइंद्रिय जीव कैसे? जिनके स्पर्शन, रसना और घ्राण ये तीन इंद्रियां हों, जैसे चींटा, चींटी, बुला, लीख, कानखजूरा आदिक ये तीनइंद्रिय जीव है । चार इंद्रियजीव उन्हें कहते हैं जिनके आखें और हों, स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु । जैसे भंवरा, बर्र, मक्खी, मच्छर आदिक । पंचेंद्रिय उन्हें कहते हैं जिनके आंखें और हों, स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ।
(327) एकेंद्रियादि जीवों की पहिचान―एकेंद्रियादि जीवों की करीब-करीब पहिचान यह है कि एकेंद्रिय तो सब जानते हैं कि जिनके जीभ न हो । जो दोइंद्रिय जीव हों उनकी करीब-करीब पहिचान यह है कि उनके पैर नहीं होते और वे सरकते ही रहते हैं । एक सांप जैसों को तो छोड़ दो बाकी ये जीव ऐसे मिलेंगे सरकने वाले दोइंद्रिय । लट, केचुवा आदि ये सब सरकने वाले हैं, तीनइंद्रिय जीव हैं । चारइंद्रिय की पहिचान यह है कि दो से अधिक पैर हों और उड़ते हो । मक्खी, मच्छर, टिड᳭डी, भंवरा आदिक उड़ने वाले जानवर । 5 इंद्रिय जीव जिनके कान हैं वे पंचेंद्रिय जीव हैं । एक शास्त्रसभा में कई नवयुवक लोग शास्त्र सुनने आया करते थे । उनसे एक बार किसी साधु ने पूछा कि बताओ एकेंद्रिय जीव कौन है? तो उनमें से एक श्रोता बोला कि महाराज एकेंद्रिय तो आप हो ।....कैसे ?....ऐसे कि आप अकेले हो । न आपके पास स्त्री है, न बच्चे हैं ।....अच्छा तो दोइंद्रिय जीव कौन हैं ?....महाराज दोइंद्रिय तो हम हैं ।....कैसे ?....ऐसे कि हमारे घर तो हम हैं और हमारी बीबी है, बस दो प्राण है, इसलिए दोइंद्रिय हैं । तो अध्ययन के बिना ऐसी कितनी ही अटपट बातें हो जाती हैं ।
(328) चौदह जीवसमासों का संक्षिप्त निर्देश―यहां जीवसमास बतला रहे कि 14 किस तरह से हुए । 5 तो ये हो गए जीव । अब इनमें एकेंद्रिय होते हैं दो तरह के (1) वादर एकेंद्रिय और (2) सूक्ष्म एकेंद्रिय । जिसका शरीर दूसरे से रुक सके वह वादर एकेंद्रिय है । और यदि एकेंद्रिय का शरीर दूसरे से न छिद सके वह सूक्ष्म एकेंद्रिय है । और पंचेंद्रिय के भी दो भेद हैं (3) असंज्ञी पंचेंद्रिय और (2) संज्ञी पंचेंद्रिय । जिन पंचेंद्रियों के मन नहीं है, जिन में विचार शक्ति नहीं हैं वे हैं असंज्ञी पंचेंद्रिय । ये दोनों में बहुत थोड़े मिलेंगे । बताया जाता है कि जल में रहते सर्प या कोई पक्षी । ऐसे बहुत कम हैं । न जैसे समझलो । जितने भी पंचेंद्रिय हैं वे प्राय: संज्ञी मिलेंगे । तो अब कितने भेद हो गए? 5 की जगह 7 हो गए । एकेंद्रिय, फिर दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय, और दो पंचेंद्रिय, ये 7 प्रकार के जीव पर्याप्त होते हैं और अपर्याप्त भी होते, तब ये हो गए 72=14 । पर्याप्त का अर्थ है कि जिसकी शरीर रचने की शक्ति पूर्ण हो गई । जैसे कोई जीव पहले भव से मरकर आया तो कोई नया शरीर ही तो लेगा । अब जो नया शरीर मिला तो वह तो ऐसा ही पड़ा हुआ है । उस पर जीव आयेगा तो पिंड की शरीर रचना होने लगेगी । इस प्रकार की योग्यता में थोड़ा समय लगता है । तो जब तक शरीर रचने की शक्ति नहीं हो पाती तब तक अपर्याप्त है और शरीर रचने की शक्ति हो जाती है तब पर्याप्त होता है । ऐसे ये 14 प्रकार के जीवसमास है ।
(329) जीवसमासों के परिज्ञान से उपयोग्य शिक्षण―अब जीवसमास को सुनकर क्या सोचना? हम आप जो आज बैठे हैं और जरा-जरा सी बात पर इतराते रहते हैं ना, क्योंकि पुण्य का ठाठ है, खाने पीने की सब सुविधा है, कुछ पास में रुपया पैसा भी है, शारीरिक बल भी है । कुछ बुद्धि भी पायी है मगर अज्ञान और कषाय मौजूद हो, जरा-जरा सी बाहर की बातों में गुस्सा करें, ऐंठ जाये, घमंड बगराये, अनेक तरह की बातें करते हैं, पर भैया, यह तो जानें कि हम आप कभी एकेंद्रिय थे । अब एकेंद्रिय की क्या स्थिति, निगोद की क्या स्थिति? पेड़ वगैरह खड़े हैं । लोग तो उन्हें छू तक नहीं रहे और मान लो आज मनुष्य भव में न होते, जैसे ये पेड़ पौधे खड़े ऐसे ही होते आप हम, जो अभिमान कर रहे, लोभ कर रहे, कषाय कर रहे, ऊलजलूल अनेक तरह की चेष्टायें कर रहे, यदि पेड़ होते तो देख लो क्या करते आप । न आपका यह परिचित नगर होता, न आपका कोई घर होता, बस खडे रहते ऐसे मैदान में । बताओ आज उनसे अच्छी हालत में हैं कि नहीं? तो संतोष तो होना चाहिए कि हमारी स्थिति योग्य है और जो हमने योग्य स्थिति पायी है सो धर्मसाधना के लिए पायी है, अन्य बातों के लिए नहीं ।
(330) मनुष्यभव की सफलता के लिये कर्तव्य का दिग्दर्शन―अब कर्तव्य यह है कि ज्ञान ध्यान के प्रोग्राम में अपना समय लगायें । धर्म भी करते हैं सब प्राय:, मगर धर्म इतने तक ही रह गया कि एक बड़ा मंदिर बना लिया, खूब मंदिर में संगमरमर लगवा दिया, खूब काँच लगवा दिया, पर खुद के ज्ञान के लिए या अपने बाल बच्चों के ज्ञान के लिए अपना तन, मन, धन, वचन कुछ भी नहीं लगा रहे । फिर बताओ उन्हें शांति का मार्ग कैसे मिले? जो लड़ाइयां घर में, दुकान में, लेन देन में करते हैं वही फिर मंदिरों में होती हैं । क्योंकि ज्ञान का तो अपना कुछ प्रोग्राम ही नहीं है, और परिग्रह बढ़ाने का प्रोग्राम चल रहा है । तो उस पर कलह भी होती है । ऐसी मनुष्यभव की योग्यता पायी, पर इसका भी सदुपयोग नहीं कर पा रहे हैं । इसका खेद नहीं हो पाता मोहियों को । तो जीवसमास को निरखकर सोचों कैसे-कैसे दुनिया में जीव हैं । इससे यह शिक्षा लेना चाहिए कि हम आज कुछ भली स्थिति में आये हैं तो हम अपने आत्मा के स्वरूप का ज्ञान करके ही रहेंगे । क्यों रुल रहे हैं ये जीव संसार में? कैसे संसार के आवागमन से छूट सकें वे सब बातें अब हम पावेंगे और अपने को धर्ममार्ग पर लगायेंगे । धर्म कहीं बाहर नहीं है । धर्ममूर्ति स्वयं आप है । आत्मा स्वयं ज्ञान का पुंज है वही धर्म है । तो जब अपने अंदर में देखेंगे तो धर्म मिलेगा । भगवान की मूर्ति आंख खोल कर देखते रहने के लिए नहीं है । उसे देखें, पर अंदर के ज्ञाननेत्र द्वारा अपने आपमें भगवान के स्वरूप के समान जो स्वरूप है उसको निरखने के लिए भगवान के दर्शन हुआ करते हैं । सो जीवसमासों का परिचय पाकर अपने आपमें कुछ संतोष लाये और तत्त्वज्ञान के मार्ग पर अपना कदम उठायें ।
(331) गुणस्थानों के परिचय में प्रथम गुणस्थान का निर्देश―यहां मुनिवरो को समझाया जा रहा है कि बाह्य लिंग धारण करके कुछ न पा लोगे यदि भाव नहीं है जीव के भावशुद्धि के लिए तो अपने ज्ञानध्यान का प्रोग्राम बनाओ, 14 गुणस्थानों का चिंतन करो । गुणस्थान कहते हैं गुणों के स्थान को, दर्जे को । गुण दो है―(1) दर्शन और ज्ञान अथवा तीन (1) दर्शन, (2) ज्ञान और (3) चारित्र । मोक्षमार्ग में उपयोगी लीजिए―सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र । इनके ही होने, न होने, कम होने, अधिक होने के भेद से ये गुणस्थान बन जाते हैं ꠰ जहाँ सम्यग्दर्शन नहीं प्रकट है और उसकी जगह मिथ्यात्व प्रकट है उसे पहला गुणस्थान कहते हैं । मिथ्यात्व के वश होकर अपने आत्मा की सुध नहीं हो पाती । बाह्य पदार्थों में ही सार समझ रहे, बाह्य पदार्थों में ही झुक रहे हैं, ऐसी दशा होती है पहले गुणस्थान की । यह पहला गुणस्थान है । जैसे बच्चे लोग कहते ना कि हमारी यह फर्स्ट क्लास (पहली कक्षा) है, ऐसे ही फर्स्ट गुणस्थान (पहला दर्जा) यह है जीव की अत्यंत निचली दशा, जिसमें यह जीव संसार में रुलता है । इस मिथ्यात्वगुणस्थान में याने सबसे नीचे के स्थान में इस जीव की क्या हालत होती है सो तो विचारो । इस मिथ्यात्वगुणस्थान में यह जीव शरीर और जीव को एक मानता है । यह मैं हूँ । थोड़े-थोड़े समय में गुस्सा आ जाता, घमंड आने लगता, इसका कारण क्या है कि उसे अपने आत्मा की कुछ खबर नहीं और शरीर को ही मान लिया कि यह मैं हूँ । जब देह को ही मान लिया कि “यह मैं हूँ” तो अपना सम्मान, अपमान, प्रशंसा, निंदायें सब अनुभव करने लगेगा । तो जो देह और जीव को एक मानता है, कर्म के उदय से हुए विकार को अपनाता है वह कहलाता है मिथ्यादृष्टि । अनादिकाल से यह जीव मिथ्यात्व में रहा है, और मिथ्यात्व में ही रह रहा है, और मिथ्यात्व में ही रहेगा तो बस संसार में रुलता ही रहेगा । इसका बहुत ध्यान रखें कि इस जीव का बैरी है तो मिथ्यात्वभाव है, जहाँ अपना कुछ प्रकाश ही नहीं मिल रहा वहाँ वह पूरा अंधेरे में है । कहां संतोष करे यह जीव? संतोष का धाम तो अपना आत्मा है ꠰ वह आत्मा नजर में नहीं, दृष्टि में नहीं, उसकी सुध नहीं तो इसे संतोष कभी मिल नहीं पाता । इसके बिना जो लोग कुछ संतोष करते हैं वह तो एक विवशपने की बात है । अपने वश से संतुष्ट नहीं हो पाते । अपने वश से संतुष्ट तब ही हो सकते हैं जब अपने आपके स्वरूप की सुध हो कि मैं यह हूँ । मिथ्या दृष्टि को कहा संतोष हैं ꠰
(332) मिथ्याभाव में अटपट चेष्टायें―मिथ्यादृष्टिजनों के संबंध में एक कथानक आया है कि कोई दो मित्र कहीं जा रहे थे । वे दोनों ही मूर्ख थे । उन्हें रास्ते में मिली कोई एक बुढ़िया । उस बुढ़िया से उन दोनों ने रामराम किया तो बुढ़िया ने उनको आशीर्वाद दिया बेटा सुखी रहो । अब वे दोनों मित्र आगे बढ़ गए । कुछ दूर जाकर उन दोनों मित्रों में यह विवाद बन गया कि बुढ़िया मां ने आशीर्वाद किसे दिया । एक कहे कि हमें दिया और दूसरा कहे कि हमें दिया । आखिर दोनों में यह तय हुआ कि चलो उसी बुढ़िया के पास वापिस चल कर पूछें कि किसे आशीर्वाद दिया । सो वे करीब मील दो मील जगह वापिस लौटकर आये और उस बुढ़िया से पूछ बैठे―बुढ़िया मां हम दोनों में से तुमने किसे आशीर्वाद दिया था? सो बुढ़िया घबड़ा गई । सोचा कि क्या उत्तर दूं । खैर उसे एक युक्ति सूझी और बोली―बेटा हमने उसे आशीर्वाद दिया जो तुम दोनों में से अधिक मूर्ख हो । सो एक कहे हम अधिक मूर्ख और दूसरा कहे हम अधिक मूर्ख । बुढ़िया ने एक से कहा बताओ तुम कैसे अधिक मूर्ख हो । सो एक व्यक्ति बोला देखो बुढ़िया मां हम जो लंगड़े होकर चल रहे सो यह हमारी मूर्खता का ही कारण है, कैसे सो सुनो देखो हमारे दो स्त्रियां हैं, सो एक दिन क्या घटना घटी कि मैं अपने मकान के ऊपर की छत से सही से नीचे उतर रहा था सो एक स्त्री जो कि ऊपर थी । उसने मेरा हाथ पकड़ कर खींचा कि तुम ऊपर रहो, नीचे न जावो, ओर जो स्त्री मकान में नीचे थी उसने मेरा पैर पकड़कर खींचा कि तुम नीचे उतर आवो । इसी खींचा तानी में मेरा यह पैर टूट गया, सो देखो बुढ़िया मां मैं मूर्ख हूँ कि नहीं? तो बुढ़िया बोली हां बेटा तुम हो तो मूर्ख । अब दूसरे से कहा तुम अपनी मूर्खता की बात सुनाओ । तो दूसरा व्यक्ति बोला―हां सुनो बुढ़िया मां मेरी मूर्खता की कहानी । यह जो मैं एक आँख का अंधा बना बैठा हूँ उसकी घटना सुनो । मेरे भी दो स्त्रियां हैं सो एक बार रात्रि को हम दोनों स्त्रियों के बीच लेटे हुए थे, मेरे दोनों हाथों का सिरहना बनाकर दोनों स्त्रियां सो रही थी । सिर की ओर ऊपर एक सरसों के तेल का दीपक जल रहा था । समय की बात की वहाँ एक चूहा आया, दीपक की बत्ती निकाला और जल्दी हुई बत्ती हमारी ऊपर आ गिरी । उस समय मैं यह विचारने लगा कि यदि मैं दाहिना हाथ उठाकर बत्ती हटाऊं तो दाहिनी ओर सोने वाली स्त्री की नींद खुल जायेगी, उसे कष्ट होगा और यदि बायें हाथ से हटाऊं तो बायें हाथ की ओर सोने वाली स्त्री की नींद खुल जायेगी । वह कष्ट मानेगी । सो मैंने दोनों ही हाथों से उस जलती हुई बत्ती को न हटाया । परिणाम यह हुआ कि मेरी आंख फूट गई । सो देखो बुढ़िया मां मैं कितना मूर्ख हूँ । सो बुढ़िया ने उन दोनों की मूर्खता भरी बातें सुनकर कहा―बेटा मैंने तुम दोनों को आशीर्वाद दिया । तो यह तो एक उदाहरण की बात है, पद-पद पर सबसे ऐसे ही अटपट काम होते हैं । परमार्थ दृष्टि से देखो तो न जाने कहां-कहां चित्त जाता है, न जाने क्या-क्या बात सोचते हैं । न जाने क्या-क्या चेष्टायें करते हैं । यह सब होता है मिथ्यात्व कारण से । तो यह मिथ्यात्वभाव इस जीव का बैरी है ।
(333) संपदा में हर्ष व विपदा में क्लेश मानने की व्यर्थता―धन संपदा पाने में अपना भला मत मानें, ये कुछ चीज नहीं हैं । विपत्तियां कितनी ही आयें उनसे घबड़ाये नहीं । विपत्ति कोई वस्तु नहीं है, ये तो सब बाहर के प्रसंग है । यदि बाहर-बाहर में ही उपयोग जुटा रहेगा तो उसका फल नियम से कष्ट ही है । यहाँ से उपेक्षा करें और अपने आपके स्वरूप में दृष्टि दें । मैं हूँ ज्ञानानंदस्वरूप । मेरे स्वरूप में कोई कष्ट नहीं क्योंकि बाहर के पदार्थ वे अपने आपमें अपना परिणमन करते हैं । उनसे मेरे में क्या आता है । मैं अपने में परिपूर्ण हूँ, और मेरे में कोई कष्ट नहीं । स्वरूप मात्र हूँ, सहज आनंदमय हूँ, मैं अपने आप में तृप्त रहूंगा, बाकी प्रसंग में आये हुए पदार्थों का मैं ज्ञाता दृष्टा रहूंगा । पुराणों में आये हुए पदार्थों का मैं ज्ञाता दृष्टा रहूंगा । पुराणों में आये हुए कितने ही कथानक ऐसे सुने होंगे कि न्याय के सामने राजा ने अपने इकलौते बेटे को भी फांसी दे दी । एक यम चांडाल की कथा बहुत प्रसिद्ध हैं, जिसने चतुर्दशी के दिन मांस न खाने का नियम लिया था । उधर राजा ने अपने राज्य में अष्टान्हिका पर्व की चतुर्दशी को जीवहिंसा का निषेध कर रखा था, पर हुआ क्या कि उस दिन उस राजा के लड़के ने मांस खाया जिसके फल में उसके पिता राजा ने उसे फांसी का हुक्म दे दिया । अब जिस चांडाल के द्वारा फांसी दी जानी थी उसका भी उस दिन का जीवहत्या न करने का नियम था सो फांसी देने से इन्कार किया । परिणाम यह हुआ कि राजा ने क्रोध में आकर उन दोनों को एक मगर मच्छ से भरे तालाब में पटकवा दिया । वहाँ देखने में क्या आया कि उस राजा के लड़के की तो दुर्दशा हुई और उस चांडाल को सिंहासन मिला । तो न्याय के बल पर उन्हें अपने बेटे को भी फांसी देने में रंच भी घबड़ाहट न हुआ, कारण क्या कि आत्मा उनका न्यायप्रिय था । वह राजा तो ऐसा निर्मोह था । यहाँ इतना भी नहीं सोच सकते कि घर में जितने प्राणी हैं उनके कर्मोदय से यह सब हो रहा है । मैं इनको क्या करता हूं? मैं तो अपने ही पुण्य पाप करने का अधिकारी हूँ । सो भाई कुछ तत्त्वज्ञान का ढंग बनायें जिससे कि अपने आत्मा का कल्याण हो ।
(334) इस जीव का मिथ्यात्व में अनंतकाल यापन―मिथ्यात्वभाव में यह जीव देह को मानता है कि यह मैं हूँ । कर्म के उदय से जो घटना बनती है, रागद्वेष सुख दुःख की छाया आती है उसको अपनाता है कि यह मैं हूँ । मिथ्यात्व के उदय में, यह जीव अगर संज्ञी पंचेंद्रिय है, तो कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु की अपना हितकारी मानता है । कोई एक लौकिक चमत्कार देखकर किसी भी रागी द्वेषी जीव को देव और भगवान मानकर उसे अपना शरण समझता है । गुरुवों में भी चाहे आरंभसहित हो, परिग्रह सहित हो, पंचाग्नि तप तपता हो, कोई बात जरासी चमत्कार की या पाचनकला की दिखे तो उनको ही गुरु मानते हैं और अपने जीवन में निरंतर व्याकुल रहते हैं क्योंकि प्रसंग आते हैं उनको अनेक घटनाओं के, और उन घटनाओं में यह अधीर होता है, घबड़ाता है । अनंतकाल इस जीव का मिथ्यात्व में ही गया है ।
(335) अविरतसम्यक्त्व नामक चतुर्थ गुणस्थान―कभी संज्ञी पंचेंद्रिय किसी जीव को कुछ चेत हुआ, क्षयोपशम भी विशेष बना, फिर उससे ज्ञान में अपना उपयोग लगाता है, मनन करता है, कषायें मंद होने लगती हैं और उस समय के तत्त्वज्ञान के अभ्यास का निमित्त पाकर जो सम्यग्दर्शन का घात करने वाली प्रकृतियां हैं―मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक᳭प्रकृति, अनंतानुबंधी क्रोध, अनंतानुबंधी मान, अनंतानुबंधी माया और अनंतानुबंधी लोभ, इन 7 प्रकृतियों का उपशम करता है । फिर समय पाकर क्षयोपशम करता है, फिर समय पाकर क्षय करता है । सर्वप्रथम उपशम सम्यक्त्व होता है, उसके बाद कुछ भी होता रहे, कितने ही बार छूटे, उपशम हो, यह बात अलग है कभी क्षयोपशम सम्यक्त्व होता है । क्षयोपशम सम्यक्त्व के बाद चाहे वह छूट जाये, फिर चाहे कभी उपशम भी बन पाये, कुछ भी होता फिरे, पर क्षयोपशम सम्यक्त्व के अनंतर क्षयोपशम सम्यक्त्व की हालत में हो सम्यक्त्वघातक 7 कर्मप्रकृतियों का क्षय होता है तो क्षायिक सम्यक्त्व बनता है । यों किसी भी प्रकार के सम्यग्दृष्टिजीव के संयम जब तक नहीं है तब तक उसे अविरत सम्यग्दृष्टि कहते हैं । यह है चौथा गुणस्थान ।
(336) द्वितीय और तृतीय स्थान―किसी भी मिथ्यादृष्टि जीव को जिसको अब तक सम्यक्त्व नहीं हुआ उसको पहले गुणस्थान के बाद चौथा हो, 5वां हो, छठा हो, 7वां हो, दूसरा और तीसरा गुणस्थान नहीं बनता । हां यह सम्यक्त्व हो गया हो पहिले, फिर सम्यक्त्व छूटे और अनंतानुबंधी कषाय के उदय से वह दूसरे गुणस्थान में आता है यदि मिथ्यात्व का उदय नहीं आया उतनी देर । बाद में जल्दी मिथ्यात्व आता है तो दूसरा गुणस्थान मिथ्यात्व की ही तरह है । जिसके उपशमसम्यक्त्व हो चुका उसके सम्यक्त्व के नष्ट होने पर मिथ्यात्व का उदय न आने तक दूसरा गुणस्थान बनता है । जैसे कोई छत से गिरे जमीन पर, जब तक न आ पाये तो उसकी हड्डी नहीं टूट रही मगर उसकी तो हड्डी टूटेगी । जिसे सम्यक्त्व हो गया, और मिथ्यात्व में आना है तो भी सम्यग्मिथ्यात्व के उदय में तीसरे गुणस्थान में आ सकता अथवा सम्यक्त्व से छूटकर सम्यग्मिथ्यात्व के उदय से तीसरे गुणस्थान में आ जाता । तीसरे गुणस्थान का नाम है सम्यग्मिथ्यात्व । जिसका न सम्यक्त्वरूप भाव हो न मिथ्यात्वरूप भाव हो, एक कुछ नहीं, ऐसा जात्यंतर है, वह है सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान । मिथ्यात्व, सासादन सम्यक व सम्यग्मिथ्यात्व ये तीन गुणस्थान हैं अशुद्ध ।
(337) चतुर्थ और पंचम गुणस्थान―चौथे गुणस्थान में सम्यग्दर्शन है, पर व्रत नहीं है, हां संयम के प्रति तीव्र भावना है कि मैं कब संयम धारण करूं । 5वां गुणस्थान कहलाता है श्रावक का । जो सम्यग्दृष्टि श्रावक है वह पंचमगुणस्थानवर्ती है । पहली प्रतिमा से लेकर क्षुल्लक, ऐलक, अर्जिका तक पंचम गुणस्थान वाले कहलाते हैं । यथार्थतया सब श्रावक हैं, पर क्षुल्लक ऐलक, आर्यिका को श्रावकोत्तम कहते हैं । आर्यिका मायने श्रेष्ठ । क्षुल्लक मायने छोटा ऐलक मायने अत्यंत कम कपड़ों वाला । (यह शब्द का अर्थ बोल रहे) क्षुल्लक का अर्थ है छोटा । पर क्या छोटा? इसमें विशेषण क्या लगावोगे? क्या छोटा श्रावक, यह अर्थ लगाओगे ? नहीं । यहाँ क्षुल्लक का अर्थ है छोटा मुनि । तो क्षुल्लक का अर्थ हुआ छोटा मुनि और ऐलक मायने बहुत कम कपड़े वाला मुनि । यथार्थतया यह मुनि नहीं है, पर मुनि के निकट होने से क्षुल्लक के साथ मुनि विशेषण होता है, ऐलक के साथ मुनि विशेषण होता है और पूर्ण मुनि जो निर्ग्रंथ दिगंबर है । तो चाहे क्षुल्लक मुनि कहो चाहे श्रावकोत्तम कहो । श्रावक, मुनि ये शब्द जरा रूढ़ि में प्रसिद्ध हुए इसलिए सुनने में अटपट लगते होंगे, किंतु जो व्याकरण और शब्दशास्त्र जानते हैं उनको अटपट नहीं लग सकते । हैं यह श्रावक, श्रावक में सर्वोत्कृष्ट । यहाँ तक कहलाया पंचम गुणस्थान ।
(338) मोक्षमार्ग का अवलोकन और मोक्षमार्ग पर गमन―चौथे गुणस्थान वाले ने मोक्षमार्ग देख लिया और पंचम में मोक्षमार्ग पर चल दिया । मोक्षमार्ग पर चलने वाला पंचम गुणस्थान और इससे ऊपर के गुणस्थान हैं और मोक्षमार्ग को दिखाने वाला चतुर्थगुणस्थान है ꠰ चतुर्थ गुणस्थान वाला मोक्षमार्ग पर बढ़ नहीं रहा, किंतु उसने मोक्षमार्ग देख लिया । नहीं बढ़ रहा फिर भी मोक्षमार्ग के देख लेने से उसकी धीरता है, बल है, साहस है । जैसे एक घटना लो । कोई मनुष्य किसी दूसरे गांव से शाम के समय अपने गांव को जा रहा था । उसे जाते हुए में देर हो गई, थोड़ी पगडंडी भी भूल गये । रास्ते में किसी जंगल में से जब वह गुजर रहा था तो अंधेरा छा गया, उसे कोई रास्ता ही नहीं सूझ रहा था । रास्ता भी पगडंडियों का था ꠰ वह अंधेरा हो जाने से कांटों की झाड़ियों में फंसता जा रहा था । उसके मन में आया कि अब तो जंगल पार करना बहुत मुश्किल है । कहीं कुछ रास्ता ही नहीं सूझ रहा था । सो वह उसी जंगल के बीच एक स्थान पर बैठ गया । बहुत घबड़ा रहा था कि न जाने अब क्या होगा? पता नहीं, जंगली जानवरों से प्राण बचेंगे भी या नहीं । अब कभी रास्ता मिलेगा या नहीं । रात्रि काफी बीत गई, वह मुसाफिर उस घनघोर भयानक जंगल के बीच भयभीत हो रहा था । इतने में एक क्षणिक बिजली चमकी और उतने में ही करीब 1 फर्लांग दूर उसे सड़क दिख गई, बस उसकी घबड़ाहट दूर हुई, धैर्य बंधा, मन में यह विश्वास जम गया कि अब तो हमारा जाने का मार्ग अत्यंत स्पष्ट है, प्रातःकाल होते हीं उस मार्ग से चले जायेंगे । सो उसी जगह वह बैठा रहा फिर भी रास्ता दिख जानें से उसका भय दूर हो गया । जब प्रातःकाल हुआ तो पगडंडी चलकर सड़क पर पहुंच गया । जब सड़क मिल गई तो खूब पसर कर, खूब शांत होकर एक ठसक के साथ चला जा रहा था । वह निश्चित हो गया कि अब तो गांव मिल ही जायेगा । तो ऐसे ही समझिये कि यह जीव इस जगवन में अटक गया । अज्ञान रूपी अंधकार में पड़ा हुआ बड़ा दुःखी हो रहा है, पर कोई बुद्धिमान ऐसा भी होता जो यह सोचता कि हम इस विषय कषाय भरे वन में भटक रहे हैं तो अब अधिक मत भटके । इन विषय कषायों में अधिक प्रीति न करें, जरा रुके और सोचें कि बात क्या है असल में? उसको फिर ऐसा मनन करते-करते बाह्य पदार्थों से उपेक्षा होकर एक भीतर में ज्ञानप्रकाश जगेगा जिससे आत्मा का अनुभव बनेगा, और समझ लेगा कि शांति का धाम तो यह है । यह हुआ सम्यग्दर्शन । पर उस ज्ञानानुभव को बनाने के लिए जब वह आत्मपौरुष करने चलेगा तो उसमें कुछ न कुछ संयम आयगा जहाँ थोड़ा संयम आया, श्रावकव्रत हुआ, तो वह कहलाया पगडंडियों पर चलना, और जहाँ महाव्रत हुआ, सकल संयम बना तो हुआ सड़क पर चलना । अब वह आनंद से चल रहा ।
(339) मुनिव्रत की साधना में अप्रमादी रहने का कर्तव्य―बाह्य घर कुटुंब छोड्कर, नग्न होकर भी अब यह उनके अपने भविष्य की बात है कि घर छोड्कर, सब कुछ छोड़कर फिर एक गृहस्थीसी बसाये, मोटर, रिक्शा, तांगा आदि रखे और अपने आराम के लिए स्त्री, पुरुष, भोजन-सामग्री साथ रखे, कुछ करे तो यह तो उसके लिए चिंता, शल्य, विकल्प वाली बात है । अरे उस निर्ग्रंथ दिगंबर मुद्राधारी मुनि को तो चाहिए कि वह स्वतंत्र, निर्भय, निःशंक विचरण करे, जो होगा सो होगा । अपने भाग्य पर विश्वास रहे । यदि अपने भाग्य पर विश्वास नहीं है तो फिर गृहस्थ और मुनि में अंतर ही क्या रहा? इसलिए मुनि को निष्परिग्रह रहना बताया है । मान लो साथ में अनेक लोग हैं तो उनके प्रति उसे यह ध्यान रहे कि इन सबका अपना-अपना भाग्य है, जिसका जैसा योग होगा सो होगा, किसी की चिंता रखने से फायदा क्या? अपने लिए भी उसे आहार संबंधी कोई विकल्प न रहे । जब जहाँ जैसा योग होगा सो होगा । यह महाव्रत तो एक ऐसा खड्गधार है कि जहाँ केवल एक अपने आत्मा से ही लगन है । वही ध्यान, उसको समाज का फंसाव नहीं, किन्हीं विधि विधानों में पड़ने से उसे कुछ प्रयोजन नहीं किन्हीं बाहरी बातों में पड़ना यह उनका कार्य नहीं, केवल ज्ञान ध्यान तपश्चरण कार्य ही इनको बताये गए―ज्ञानध्यानतपोरक्त:, ज्ञान, ध्यान और तपश्चरण में लीन, चौथी बात ही नहीं, ऐसी सड़क पर बड़ी ठसक के साथ मुनि को चलना चाहिए । मुनि की ठसक क्या? अपने आत्मा में ज्ञानस्वरूप का अनुभव ले-लेकर उस रस से तृप्त हो रहा, यही उसकी ठसक है और इस प्रकार अपनी ज्ञान प्रीति में ज्ञानानुभूति में रह-रहकर मोक्षमार्ग में बढ़े ।
(340) सातवां व छठवां गुणस्थान―जहां अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण का क्षयोपशम हुआ कि महाव्रत हुआ, वहाँ आता है 7वां गुणस्थान । उसके बाद छठा फिर सातवां, छठा यों दौड़ता रहता है । जैसे झूले पर झूलने में आगे झूला गया तो पीछे आयेगा, पीछे आया तो आगे जायेगा, ठीक इसी प्रकार वह मुनि छठे 7वें गुणस्थान में झूलता रहता है । सातवें गुणस्थान में संज्वलनकषाय का मंद उदय नहीं । पंचमकाल में यहाँ तक तो बात आती है और 7वें गुणस्थान से ऊपर बात अब नहीं आ सकती ।
(341) उपशमश्रेणी के 8वां, 9वां, 10वां व 11वां गुणस्थान―सप्तम गुणस्थान से ऊपर हैं दो श्रेणी । यदि चारित्रमोह का उपशम करता है तो उपशम श्रेणी पर चढ़ेगा । चारित्रमोह का क्षय करता है तो क्षपक श्रेणी पर चढ़ेगा । दोनों ही श्रेणी इस पंचमकाल में नहीं बनती । सप्तम गुणस्थान तक भावलिंगी मुनि हो सकते हैं पंचमकाल में, पर इनकी स्थिति ऊपर के गुणस्थान की नहीं होती । उपशम श्रेणी में चारित्रमोह का उपशम कर-करके बढ़ा तो 11 वें गुणस्थान तक पहुंचता है आगे नहीं है गति उसकी । वह गिरेगा । यदि वह जीवित है तो क्रम से गिरेगा । 11 वें से 10वें मे, 10वें से 9वें में, 9वें से 8वें में और 8वें से 7वें में, 7वें से छठे में, इसके बाद फिर कैसे ही गिरे? सम्यक्त्व बिगड़ जाये, नष्ट हो जाये, उपशमसम्यक्त्व ही तो था उसके नष्ट होने पर मिथ्यात्व तक में आ सकता । इतनी विशेष साधना करके भी, इतने महंत बनने के बाद भी, वीतराग होने के बाद भी गिरकर मिथ्यादृष्टि हो जाते हैं । 11वां गुणस्थान वीतराग है, हां सर्वज्ञ नहीं है, छद्मस्थ है, वह भी जब गिर जाता है तब फिर धर्मसाधना के लिए बहुत जागरूक रहना चाहिए । कोई योग ऐसा न मिले जिससे कि हमारा आत्माचार भंग हो जाये ।
(342) क्षपकश्रेणी के 12वें गुणस्थान में पहुंचने पर 16 प्रकृतियों का क्षय―यह जीव क्षपकश्रेणी में चढ़ा तो 8वें गुणस्थान में अपूर्वकरण हुआ, वहाँ बहुत ऊंचे परिणाम होते हैं । अभी कर्मों का यहाँ क्षय नहीं होता । 9वें गुणस्थान में चारित्रमोह की 20 प्रकृतियों का क्षय होता है । अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ का पहले क्षय हो गया । अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण कषाय 8 ये, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, पुरुषवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद 9 ये और संज्वलन क्रोध, मान, माया, 3 ये, दसवें में लोभ 1 का क्षय होता है । 10वें के बाद 12वें गुणस्थान में पहुंचा तो वहाँ क्षय हुआ 16 प्रकृतियों का । निद्रा, प्रचला, फिर ज्ञानावरण की 5, दर्शनावरण की बाकी 4 और अंतराय की 5 इन 16 प्रकृतियों का क्षय होते ही समग्र चार घातिया का क्षय हो चुकता है । फिर बनता है सयोगकेवली । जो लोग कर्मदहन का विधान करते हैं, 10वीं एक करना, 9वीं 20 करना, बारस 16 करना आदि तो उनका अर्थ क्या है कि जिस गुणस्थान में जितने कर्मों का क्षय होता है, बस उस गुणस्थान के नंबर के बराबर तिथि में इतने उपवास बताये गए हैं ।
(343) सयोगकेवली व अयोगकेवली―क्षीणमोह नामक बारहवें गुणस्थान के अनंतर यह जीव सयोगकेवली हो जाता है, सर्वज्ञ हो जाता है । 13 वें गुणस्थान में किसी भी प्रकृति का क्षय नहीं होता । जो अघातिया कर्म शेष रह गए उनमें से क्षय नहीं हो रहा, पर वीतराग हैं, सर्वज्ञ हैं । हितोपदेश होता है, विहार होता है, सब क्रियायें हो रही, वह सयोग केवली हैं । अंत में योग निरोध करके अयोगकेवली बन जाते हैं । 14वें गुणस्थान का समय हैं करीब-करीब समझिये दो चुटकी बराबर । शास्त्रीय शब्दों में अ इ उ ऋ लृ इन 5 ह्रस्व अक्षरों को बोलने में जितना समय लगेगा उतना समय प्रभु 14वें गुणस्थान में रहता है । 14वें गुणस्थान के पूर्ण होते ही अघातिया कर्मों से वे रहित हो जाते । पहले 72 फिर 13 प्रकृतियों का क्षय करके सिद्ध भगवान हो जाते हैं । तो यहाँ कुंदकुंदाचार्यदेव साधुजनों को संबोध रहे हैं कि तुमने सर्व परिग्रहों का त्याग भी किया तो अब सत्त्व, पदार्थ, जीवसमास, गुणस्थान इनका अर्थ देखो, चिंतन करो, और वहाँ एक अपने लिए शिक्षा प्राप्त करो ।
(344) अध्यात्मग्रंथों में 13 गुणस्थानों को आस्रवहेतु बताने का प्रयोजन―अध्यात्मदृष्टि से देखो कि 13 गुणस्थान आस्रव करने वाले हैं । 10वें गुणस्थान तक बंध होता है । 11वें, 12वें में सिर्फ आस्रव होता है । तो यह बताया गया कि ये 13 गुणस्थान आस्रव के कारण है, यह बात सुनने में कुछ अटपट सी लग रही होगी कि इतने ऊंचे मुनिराज और त्रैलोक्यपति अरहंत भगवान जिनको हम सयोग केवली कहते हैं और यह बतायें कि 13 गुणस्थान आस्रव के हेतु हैं । तो लो, अच्छा, प्रारंभ से बात देखो मिथ्यात्व आस्रव का हेतु है ना? अविरति? वह भी आस्रव का कारण है । अच्छा और कषाय? वह भी आस्रव का कारण है और योग? वह भी आस्रव का कारण है । तो ये जो चार आस्रव के कारण हैं इन 4 का ही पसारा तो 13 गुणस्थान हैं । और उन्हें यों समझ लीजिए कि ये गुणस्थान बनते हैं कमी से और यह भी कह सकते कि ये गुणस्थान बनते हैं विकास से । तो गुणों के विकास से गुणस्थान बनते हैं, इस दृष्टि से अभी न देखिये―गुणों में जो कमी रहती है उससे ये गुणस्थान बनते हैं यों निरखिये तब आस्रव की बात समझ लेंगे । जैसे किसी मनुष्य के बारे में कहा कि यह 60 वर्ष का हो गया तो उसे यों भी कह सकते और ऐसा नहीं कह सकते क्या कि यह 60 वर्ष आयु में कम हो गया? यह भी कह सकते । अब जिसका जैसा प्रयोजन है वह उस दृष्टि से देखेगा । यह 60 वर्ष का हो गया, ऐसा सुनकर वह खुश होगा और यह 60 वर्ष का कम हो गया, ऐसा सुनकर वह पश्चाताप करेगा कि मैं कुछ आत्मकल्याण न कर पाया । जैसे यह आत्मदृष्टि है ऐसे ही गुणस्थान के बारे में भी दो दृष्टियां है । विकास से गुणस्थान बने, एक यह दृष्टि और दोनों ही सत्य हैं, तो जब हम कमी को ये गुणस्थान मानते तो बड़ी कमी से मिथ्यात्व, उससे हल्की कमी, फिर उससे हल्की कमी यों लेते जावो वह 13वें गुणस्थान तक कमी है । हे अरहंत भगवान, मगर योग मौजूद हैं तो वह भी कमी है । यदि वह कमी नहीं तो उसको भी खतम क्यों किया जाये? तो ये गुणस्थान बने उस-उस प्रकार के कर्मविपाक के रहने पर, जब यों दृष्टि जायेगी तो समझ में आयगा कि ये 13 गुणस्थान आस्रव के हेतुभूत हैं । 14 वां गुणस्थान निरास्रव है अयोगकेवली । उसे कह लीजिये सिद्ध के समान ।
(345) शाश्वत आत्मस्वभाव के आश्रय से मुक्ति होने का निर्णय―इन गुणस्थानों के मनन में क्या निरखना चाहिए कि आत्मा का जो शाश्वत चैतन्यस्वरूप है उस स्वभाव का आश्रय करने से गुणों के विकास होते हैं । विकास कर सकें इसके लिए श्रावक होना और मुनि होना गुजारे की चीज है, कहीं श्रावक के भेष से मोक्ष नहीं या मुनि के भेष से मोक्ष नहीं किंतु मुनि के भेष में रहकर वह साधना बन पाती हैं जिस साधना से मुक्ति मिलती है । इसलिए यह सब आत्मसाधना की लगन वाले के लिए यह गुजारे के रूप में है । कैसे मैं अपने आत्मा में लीन होऊं ? जिसको यह धुन लग गई वह सब परिग्रहों का त्याग कर देता है । घर छोड़ा इससे मोक्ष नहीं मिला किंतु घर छोड़ने पर आत्मा में लीन होने का पुरुषार्थ बन पाया और उस आत्मपौरुष से उसको मुक्ति मिलती है । तो ध्यान क्या देना कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से मोक्ष मिलता है । इन तीन का अर्थ क्या है ? आत्मा के सहजस्वरूप का विश्वास ज्ञान और सहजस्वरूप में रमण इनकी पूर्ति से मुक्ति की प्राप्ति होती है । तो यहाँ आचार्यदेव मुनिवरों को संबोध रहे हैं इस गाथा में कि सर्वसंग से विरक्त होकर तुम तत्त्व पदार्थ गुणस्थान आदिक तत्त्व विज्ञान में अपना उपयोग लगावो ताकि ऊल जलूल बातें न आयें और आत्मरमण की प्रक्रिया बन जाये ।