वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 10
From जैनकोष
सपरज्झवसाएणं देहेसु य अविदिदत्थमप्पाणं ।
सुयदाराईविसए मणुयाणं बड्ढए मोहो ।।10।।
शरीरों में स्वपराध्यसाय होने से कल्पित पुत्रादि में मोह की वृद्धि―अपने शरीर को अपना आत्मा मानना, पर के शरीर को पर जीव मानना ऐसा जो एक मिथ्या अध्यवसाय है इसकी वजह से अब अन्य कल्पनायें भी उठने लगीं कि यह मेरा पुत्र है, यह मेरी स्त्री है, यह मेरा पति है, ये मेरे मित्र हैं आदि । उनके बारे में नाते-रिश्तेदारों की कल्पनायें भी जगने लगीं । और इन कल्पनाओं का आधार भी है यह । इस देह का रमण जिस देह के द्वारा हो वह पति या स्त्री है । इस देह की उत्पत्ति जिस देह के निमित्त से हुई है वे माता और पिता है । यह देह जिसके पेट से निकला है वहीं से और दूसरे देह निकले हैं वे भाई और बहिन हैं । सारे निर्णय देह के आधार पर हो रहे हैं । कौनसा रिश्ता है ऐसा कि जो रिश्ता आत्मा के आधार पर हो ? कोई रिश्ता नहीं होता आत्मा के आधार पर । सारे रिश्ते देह के आधार पर है । कोई भी नाम ले लो―बताओ मौसी किसका नाम है ? मौसी अर्थात् मासी याने मा सरीखी । जिस देह से यह मैं पैदा हुआ, यहाँ मैं के मायने देह समझना, तो वह जननी-देह जहाँ से उत्पन्न हुआ वहीं से जो दूसरा स्त्रीलिंग-देह हुआ वह मौसी है । जिस पुरुष देह से मैं उत्पन्न हुआ वह पुरुष-देह जहाँ से उत्पन्न हुआ वहाँ से जो पुरुष-स्त्री-देह हुए वे हैं काका बुआ आदिक । तो सारे नाते-रिश्ते इस देह के कारण चल रहे । आत्मा के नाते से कोई देह का रिश्ता नहीं है । नाना, नानी, सास, स्वसुर, दादा, दादी आदिक सारे रिश्तों को आप घटा लो । बस देह के नाते से रिश्ता है, आत्मा के नाते से नहीं । तब फिर इस आत्मा का दूसरा क्या लगा ? कुछ भी नहीं । तो यह सब मूढ़दृष्टि का व्यवहार है ।
व्यवहारप्रवर्तन में रहते हुए ज्ञानी की वृष्टि―व्यवहारपालन तो ज्ञानियों को भी करना पड़ता है, पर उनके भीतर यह सम्यक्त्व-प्रकाश होता कि जीव यह है, देह यह है । ऐसा निमित्त-नैमित्तिक योग है, इस तरह का बंधन चल रहा है, ऐसी परिणति बन रही है और वहाँ इसको गुजारे के लिए ऐसा राग करना पड़ रहा है । वह सारा प्रकाश सही है, पर मूढ़दृष्टि का व्यवहार वही सर्वस्व देखकर, उससे निराला जीव न देखकर होता है । तो जहाँ इन देहों में दृष्टि रखकर कि यह मैं स्व हूँ, ये सब पर हैं इस प्रकार का अध्यवसाय चला कि वहाँ पुत्र, दारा आदिक के विषय में मनुष्यों को मोह बढ़ने लगा । बताओ छोड़कर तो सब जाना पड़ेगा और जाने का भी कोई समय किसी को विदित नहीं है, पता नहीं आज हैं कल क्या होगा । और, जो लोग गुजरे हैं उनके दृष्टांत सामने हैं । कुछ साथ नहीं जाता लेकिन इस जीवन में यह मोही जीव यह नहीं मान पाता कि इन सब बाह्य पदार्थों से मेरा कुछ संबंध नहीं । कैसा उदय है, कैसा कर्मविपाक है ? ये सब बातें यदि अपने आपमें स्वभावत: हो रही हों तब तो मोक्ष मिलेगा ही नहीं, क्योंकि विकार होना स्वभाव बन गया । अपने आप हो रहा है सब । जो सहज होवे अपने आप, उसका अभाव कैसे किया जा सकता ? मिटता है वह जो नैमित्तिक हो । स्वभाव नहीं मिटा करता । ये विकार जितने हैं ये सब नैमित्तिक हैं । ये मिट सकते हैं ।
विकार का निमित्त व विकारविनाश का उपाय―विकार का निमित्त क्या है ? रागद्वेष, सुख दुःख कषायें जगती हैं, इनका कारण क्या है ? कर्म का उदय । जहाँ निमित्तकारण शब्द बोला वहाँ यह बात तो प्रकट ही है कि इस निमित्त का द्रव्य क्षेत्र काल भाव उपादान में नहीं गया । इसलिए वह तो शंका करना ही नहीं । निमित्त अत्यंताभावरूप होता है, पर निमित्त के सान्निध्य बना उपादान विकार कर ले तो विकार कभी मिट न सकेंगे और फिर ये जीव विकार के नित्य कर्ता रहेंगे, क्योंकि ये तो अपने आप अपने स्वभाव से बने हैं, वे मिटे कैसे ? तो विकार के उत्पन्न होने में निमित्त कारण है कर्मविपाक और विकार के व्यक्त होने में आश्रयभूत कारण हैं दुनियाभर के ये सारे पदार्थ । ये पदार्थ सब विकार के निमित्त नहीं कहलाते किंतु आश्रयभूत कहलाते । अर्थात् यह उपयोग इन बाह्य पदार्थ में लगे तो ये आश्रयभूत: कारण कहलायें । निमित्तकारण में यह बात नहीं है कि उपयोग निमित्त में लगे तो निमित्तकारण कहलायेगा । हमारा उपयोग निमित्त में लगे तो, न लगे तो, जो निमित्त है वह निमित्त है, पर आश्रयभूत पदार्थ में यह बात है कि उपयोग लगे तो वह कारण कहलायेगा । इस कारण निमित्त और आश्रयभूत कारण की बड़ी सावधानी रखना है समझने में ꠰ और आश्रयभूतकारण का नाम लेकर उदाहरण देना कि देखो अमुक निमित्त मिला । पुरुष मिला और विकार न जगा तो निमित्त तो कुछ न रहा । अरे ! यह निमित्त है ही नहीं, यह आश्रयभूत कारण है । आग को आप जानें या न जानें यदि किसी तरह आग पर पैर पड़ गया तो पैर में जलन तो होगी ही । तो ऐसे ही कर्मविपाक को ये असंज्ञी जीव क्या जानें । एकेंद्रिय, दोइंद्रिय आदिक क्या जाने ? मनुष्य भी क्या जानें ? उनका उदय होता है । ये विकार प्रतिबिंबित होते हैं । हाँं इतना अंतर कर लिया जाता है ज्ञानबल से कि यदि यह ज्ञानी अपने स्वरूप के मनन में लगा है, किसी बाहरी पदार्थ में उपयोग नहीं दे रहा है तो उसके विकार व्यक्त न होगा, पर अव्यक्त तो होगा ही ꠰ तो यहाँ बात यह जानना है कि चूंकि ये विकार नैमित्तिक है इसलिए ये हट सकते हैं और आश्रय में उपयोग लगाने से ये विकार मजबूत बनते हैं, दृढ़ होते हैं इसलिए आश्रय में उपयोग मत लगाइये । विकार व्यक्त न होंगे । और विकार व्यक्त न हों, ऐसा जो पौरुष है वही इस अव्यक्त विकार को भी समाप्त कर देगा । तो इस भेद का मूढ़दृष्टि को परिचय नहीं है तो वह तो, इन देहों को देखकर अपना नाता मानता है, और उनकी चेष्टाओं से अपने को लाभ-हानि समझता है । ऐसा यह बहिरात्मापन हेय है, छोड़ने योग्य है ।