वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 100
From जैनकोष
जदि पढदि बहुसुदाणिं य जदि काहिदि बहुविहं च चारित्त ।
तं बालसुदं चरण हवेइ अप्पस्स विवरीदं ।।100꠰।
अनात्मज्ञ के भूत का बालश्रुतपना व चारित्र का बालचारित्रपना―जिस साधु को अनादि अहेतुक निज सहज चैतन्यस्वरूप का भान नहीं है, वह साधु यद्यपि अनेक शास्त्रों को पढ़ लेवे, वाक्य वचनों का शुद्ध स्पष्ट उच्चारण कर लेवे, तर्क व्याकरण छंद अलंकार सिद्धांत न्याय-साहित्य का विशेष विद्वान हो लेवे, यहाँ तक कि ग्यारह अंग, नौ पूर्वों का पाठी भी हो लेवे तथापि उसका वह श्रुत बालश्रुत कहलाता है । इसी प्रकार अंतस्तत्त्व के अनभिज्ञ साधु के महाव्रत समिति बाह्यगुप्ति समतादि आवश्यक क्रियाकांडरूप प्रवृत्ति भी चले तो भी वह बालचारित्र कहलाता है । जो सहजात्मस्वरूप से अनभिज्ञ है वह धर्ममार्ग में बाल कहलाता है । जो जिसमें अनभिज्ञ है वह उस विषय में बाल अथवा बालक है । बाल अर्थात् मिथ्यादृष्टि का जितना भी श्रुताध्ययन है वह बालश्रुत है तथा जितना भी चारित्र है वह बालचारित्र है । ऐसे श्रुत के साथ व ऐसे चारित्र के साथ आत्मभावना रंच भी नहीं है । जहाँ सहज शुद्ध एक ज्ञायकस्वभाव सहज परमात्मतत्त्व का परिचय नहीं है वहाँ मोक्षतत्त्व का भी श्रद्धान नहीं हो सकता । शांति के धाम अंतस्तत्त्व की प्रतीति के बिना शांतिलाभ असंभव है ।