वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 11
From जैनकोष
मिच्छाणाणेसुरओ मिच्छाभावेण भाविओ संतो ।
मोहोदयेण पुणरवि अंगं सं मण्णए मणुओ ।।11।।
मिथ्याभावभावित अज्ञानी की मिथ्या मान्यता का प्रवर्तन―यह जीव मिथ्याज्ञान में राजी है, मिथ्याभाव से अपनी भावना बना रहा है, इस कारण मोह के उदय से यह फिर भी देह को आपा मानता है । जैसे इस जीवन में देह को माना कि यह मैं हूँ और मर गए, यह जीव निकल गया देह से तब तो इस मान्यता का छुटकारा हो जाना चाहिए । जैसे कई बातों का ज्ञान नहीं रहता आगे के भवों में ऐसे ही शरीर को आपा मानने का भी छुटकारा हो जाना चाहिए पर नहीं होता, इसका कारण है कि मिथ्या ज्ञान में यह रत है । आत्मस्वरूप भी नहीं पाया, मिथ्याभाव से यह अपने आपको भा रहा है । मैं यह हूँ । पुरुष हूं, स्त्री हूँ, नारकी हूँ, पशु हूँ । अपने आपको वही भावना भा रहा है जैसा कि इसको देह मिला । यदि यह संस्कार जीवनभर रखा तो मरने के बाद भी वही संस्कार जाता है और जिस देह को पाता है उसी को ही यह आपा मान लेता है । आगे भी दु:खी
रहकर जन्म लेगा तो वहाँ भी आपा मानेगा । मानो यह मिथ्या भावना की परंपरा चल रही है । इस मिथ्याभाव का फल सिवाय व्याकुलता के और कुछ नहीं है । मिलना-जुलना कुछ नहीं, रहना कुछ नहीं । देह भी न रहेगा । जो-जो है वह सदा रहता है । संयोग सदा नहीं रहता । तो संयोग ही तो मिटा, जीव मरता नहीं । पुद्गल भी मरता नहीं । चाहे कुछ भी अवस्था हो जाये पर सत्त्व मिटता नहीं । बस संयोग को जन्म कहते हैं और वियोग को मरण कहते हैं । सो मिथ्याभाव से भावित हुए ये प्राणी मोह के उदय में जन्म-जन्म में इस शरीर को ही आपा मानते जाते हैं । अशुद्ध देह हाड़, मांस, पींजरा का देह, ऊपर से एक चाम चादर मढ़ी भई है जो चाम चादर का रूप रंग है जिसमें यह सब अपवित्रता ढकी हुई है । ऐसे दुर्गंधित देह को यह जीव मानता है कि यह मैं हूँ । अनेक संकट आने पर भी इस जीव के मिथ्याबुद्धि नहीं हटी । मोह से दु:ख होता और उस दुःख को दूर करने का उपाय मोह ही समझता है यह मोही और इस दुर्बुद्धि के कारण मोह मिटने का अवसर मिलना इसको कठिन होता है ।