वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 13
From जैनकोष
परद्रव्वरओ बज्झइ पिरओ मुच्चेइ विविहकम्मेहि ।
एसो जिणउवएसो समासओ बंधमोक्खस्स ꠰꠰13।।
परद्रव्यरत का बंधन और स्वद्रव्यरत की मुक्ति―जीवों को बंधन इष्ट नहीं है । कोई भी जीव बंधन में बंधना नहीं चाहता । मगर बंधन तो यहाँ विकट लगा हुआ है । घर नहीं छोड़ सकते, कुटुंब की परतंत्रता, धन की परतंत्रता । यह बाह्य बंधन भी बहुत है और अंदर में रागद्वेष क्रोधादिक नहीं छोड़ पाते हैं । दुःखी भी होते जाते हैं फिर भी मोह नहीं छूटता है अंतरंग से । जो भी बंधन है वह इसके निमित्तभूत कारण का बंधन है । तो यह बंधन होता क्यों है और यह बंधन मिटेगा कैसे ? इस तथ्य को इस गाथा में बताया है । जो परद्रव्य में लीन है, रागी है वह जीव तो बंधता है और जो नाना कर्मों से विरक्त है वह जीव मुक्त होता है । जिसको किसी भी परद्रव्य की कोई आशा है वह बंधा हुआ है और जिसको किसी भी परद्रव्य की आशा, इच्छा, रति नहीं है वह अब भी स्वतंत्र हे । जीव का स्वरूप स्वतंत्र है, अपनी सत्तारूप है, दर्शन ज्ञानमय है सहज आनंदस्वरूप है । इसमें कोई कष्ट नहीं है, पर अपने में संतोष न करके बाह्यपदार्थों में जो यह राग बनता है उससे बंधन है और संकट भी होते हैं । धन्य है उस मनुष्य का जीवन जिसने अपना लक्ष्य रागरहित, विकाररहित आत्मस्वरूप में रमने का बनाया है । और जिन्होंने अपना यह लक्ष्य नहीं बनाया उनको मिलता क्या है ? जो मिला है वह तो नियम से छूटेगा । एक अणु भी इस आत्मा का नहीं है । जहाँ देह भी अपना नहीं है अपना राग भी अपना नहीं है, फिर वहाँ कहना ही क्या है ? बड़े-से-बड़े समागम बड़े-से-बड़ा ऐश्वर्य इस ही जीवन में खतम हो जाता है । देखिये अब तक जो अपने देश में प्रधानमंत्री हो, जिसकी बड़ी प्रतिष्ठा हो वह भी चुनाव में हार जाने पर कैसी स्थिति को प्राप्त हो जाता । अब वह मंत्री पद से हट गया, क्या रही उसकी अब प्रतिष्ठा ? उसके लिए तो उस पद के आगे करोड़ों का वैभव भी कुछ नहीं है । यदि उसके दिल से पूछो तो वह तो यही चाहेगा कि चाहे करोड़ों अरबों का ऐश्वर्य कोई ले लो मगर मेरा वह प्रधानमंत्री पद मिल जाये, पर ऐसा अब हो कैसे सके ? तो इतना बड़ा वैभव भी इस जीवन में देखते-देखते खतम हो जाता है, फिर मरने पर तो कहना ही क्या ? कुछ भी इसके साथ न जायेगा, पर मोह-अंधकार ऐसा सवार है कि यह नहीं सोच पाता है मन में और बाह्य पदार्थों की लंपटता रखा करता है । तो जो परद्रव्यों में रत है वह तो बंधता है और जो नाना प्रकार के कर्मों से विरक्त है वह कर्मों से छूटता है । ऐसा बंधन और मोक्ष के बारे में जिनेंद्रदेव ने संक्षेप से बताया है । सबसे विकट बंधन है जीव का मोहभाव । अब मोहभाव क्या है कि महान मिथ्यात्व प्रकृति का विस्फोट होता है तो उसकी एक छाया पड़ी इस उपयोग में और इसने माना कि यह ही मैं हूँ । बस, इसका मिथ्यात्व पुष्ट होता है । जैसे ये बाहर के खंभा आदिक हमारे ज्ञान में आ रहे हैं, पर मैं खंभा नहीं बन गया, ऐसे ही ये रागद्वेष विकार, ये कर्म के अनुभाग हमारे ज्ञान में आ रहे हैं, पर मैं विकार नहीं बन गया, ऐसा सोचकर विकार से विरक्त रहे वह पुरुष सच्चा विरक्त है । किसी कारण से कोई घर में विरक्त हो गया तो भी विरक्त न कहलायेगा । किसी कारण से कोई धनसंपत्ति से विरक्त हो जाये तो भी असली विरक्त यों नहीं कहा जा सकता । यदि अपने भीतर की कषायों से विरक्त हो जाये तो वह असली विरक्त है और यह फल है । जो कषाय से विरक्त हुआ है वह घर से, वैभव से भी विरक्त होता है । मगर घर से विरक्त होने का नाम विरक्त नहीं, किंतु घर संबंधी जो राग है उस राग को छोड़ने का नाम विरक्त है । तो जो विरक्त है वह तो मुक्त है और जो रक्त है, रागी है वह कर्मबंधन से बंधता है ।