वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 25
From जैनकोष
वरवयतवेहि सग्गो मा दुक्खं होउ णिरइ इयरेहिं ।
छायातवटि᳭ठयाणं पडिवालताण गुरुभेयं ꠰꠰25꠰।
अशुभभाव से हटने की नितांत आवश्यकता―जीव भावमात्र, ज्ञानमात्र है, यह अपने ज्ञानपरिणाम को कर पाता है, जगत् में अन्य कुछ नहीं करता । तो इसका जो ज्ञानपरिणमन चल रहा सो कर्मों के उदय, क्षय, क्षयोपशम आदिक के अनुसार इसके 3 तरह के परिणाम चलते है―(1) अशुभ (2) शुभ और (3) शुद्ध । अशुभ परिणाम तो हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह ये 5 परिणाम हैं, पंचेंद्रिय के विषयों में रमना ये पाप के परिणाम हैं । और पुण्य परिणाम क्या हैं ? दया, दान, त्याग, शील, उपवास, भक्ति, पूजा, वंदन, ध्यान आदिक, ये सब शुभ परिणाम है । और शुद्ध परिणाम क्या कि न पुण्य के भाव जगें न पाप के भाव जगें किंतु ज्ञातादृष्टा मात्र रहे, ऐसी ज्ञान की जो स्वच्छ परिणति है वह शुद्ध परिणमन हैं । और तीन तरह के परिणमनों के तीन प्रकार के फल हैं । अशुभ परिणाम करने का फल है नरक में उत्पन्न होना, खोटे तिर्यंचों में, पशुपक्षियों में उत्पन्न होना ꠰ यह पाप परिणाम का फल है । स्वर्ग में अच्छे देव होना, या बड़े-बड़े राजा महाराजा सेठ आदिक कुलीन होना ये सब पुण्य के फल हैं । और शुद्धभाव का फल क्या है ? मोक्षमार्ग और मोक्ष पाना । अब इन तीन फलों में विचार करें तो नरक तिर्यंच, ये तो अच्छे फल नहीं हैं । कोई नहीं चाहता कि हम नारकी जीव बनें या पशु पक्षी कीट पतिंगा, पेड़ पौधा आदि बनें । ये तो बहुत ही अशुभ परिणाम के फल हैं । पुण्य का फल है देव होना, उत्तम मनुष्य होना । सो ये नारकादिक की अपेक्षा तो अच्छे हैं मगर इतना हो जाने से कल्याण नहीं हो जाता । क्योंकि हो गए बडे संसार में और आगे धर्म न चला, धर्म प्रवृत्ति न हुई तो फिर लौटकर ऐसी ही दुर्गति मिलेगी । उसमें फायदा क्या है ? और शुद्ध परिणाम का फल है मोक्ष । वही एक सर्वोत्तम उपादेय है, फिर भी यह बात तो बतलावो कि मोक्ष नहीं मिला तो उससे पहले दुर्गति अच्छी या सद्गति ? सद्गति अच्छी है । तो इस गाथा में यह बतला रहे हैं कि व्रत तप आदिक करके जो स्वर्ग का लाभ होता है वह तो श्रेष्ठ है, पर पाप-परिणाम के फल में जो नारकादिक गतियों के दुःख होते हैं वे श्रेष्ठ नहीं हैं । जैसे कोई दो पुरुष हैं । उन्होंने किसी बड़े पुरुष से मिलने का वायदा किया कि हम भी आपके साथ चलेंगे । अब वे दोनों पुरुष उस बड़े आदमी की प्रतीक्षा कर रहे थे । एक तो पेड़ की छाया में बैठा हुआ प्रतीक्षा कर रहा था और एक धूप में खड़े होकर प्रतीक्षा कर रहा था ꠰ अब देखो, प्रतीक्षा तो दोनों कर रहे थे पर दोनों में ठीक कौन माना जायेगा सो तो बताओ ? अरे ! ठीक वह माना जायेगा जो कि पेड़ की छाया में बैठकर प्रतीक्षा कर रहा था, तो ऐसे ही समझो कि पाप और पुण्य यद्यपि दोनों ही संसार में हैं और इनको चाहिए यह कि वे मोक्ष की प्रतीक्षा करें और करते भी होंगे । तो एक तो पाप के फल में दुर्गति में दुःख-सहता हुआ रहे और एक पुण्य के फल में देव आदिक होकर रहे तो इसमें धर्म की ओर मानो दोनों ही चलना चाहे तो वह देव होना भी भला है । वे देव अरहंत भगवान के दर्शन कर सकते हैं, अनेक प्रकार के कल्याणक समारोह मनाते हैं, मुनियों के उपदेश भी सुन सकते हैं । तो जैसे उन दोनों प्रकार के पुरुषों में छाया में बैठा हुआ पुरुष ठीक है ऐसे ही पुण्य के फल को पाने वाले देव उत्तम मनुष्य ये ठीक हैं । पर ये इसमें ही रम जायें, पाये हुए इन बाह समागमों में ही मस्त न हो जावें, ‘‘पुण्य पाप फल माहि हरषि बिलखो मत भाई ।’’ पुण्य का फल पाकर मस्त न हो और पाप का फल पाकर विषाद मत हो । ये सब तो पुद्गल की पर्यायें हैं, उत्पन्न होती हैं और नष्ट होती हैं । इस कारण यहाँ न रमकर उन सर्वद्रव्यों से मुक्त होवे, यह भावना रहना चाहिए, और यह जो कोई भावना करता है, जो मुक्त होना चाहता है वह क्या करता है, यह बात अगली गाथा में कहते हैं ।