वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 27
From जैनकोष
सव्वे कसायमोत्तुं गारवमयरायदोसवामोहं ।
लोयववहारविरहो अप्पा झाएइ झाणत्थो ।।27।।
क्रोध का त्याग होने पर आत्मध्यान की पात्रता―समस्त कषाय को त्यागकर, रागद्वेष और मोह को छोड़कर लोक व्यवहार से विरक्त होते हुए ध्यानस्थ मुनि शुद्ध आत्मा का ध्यान करते हैं । जहाँ कषायें हैं वहाँ शुद्ध आत्मा का ध्यान कैसे हो सकता ? जीव के बैरी कषाय हैं क्रोध, मान, माया, लोभ । कषायों की उग्रता मिथ्यात्व में होती है । जहां स्वपर का यथार्थ भान नहीं और अपने देह को मानना कि यह मैं हूँ, दूसरे देह को मानना कि यह दूसरा है, देह में ही आत्मा की बुद्धि है उनके पद-पद पर क्रोध आता है । लोग कहते कि अमुक को बहुत क्रोध करने की आदत है, जरा-जरा सी बात में क्रोध आ जाता है । सो बात यह है कि कुछ पुण्य का योग होता है, अच्छी प्रकार रह रहे हैं, कोई तरह की असुविधा नहीं है, कोई दुःख नहीं आ पड़े हैं तो ऐसे मौज में रहने वाले अज्ञानी जीव, बाहर में अनुकूलता चाहते हैं, सब लोग मेरे माफिक चलें । सब मुझको बड़ा माने ऐसी कल्पना बन जाती है ठलुवा होने से और ऐसा होता है नहीं, क्योंकि सब जीव बिल्कुल स्वतंत्र है । उनका जैसा परिणाम है सो करेंगे । यह चाहता है कि सब मेरे अनुकूल हों, तो क्रोध आयेगा ही, क्रोध प्राय: बचपन में अधिक रहता । कुछ और बड़े तक भी रहता, तो जब तक कोई कष्ट नहीं आता, संकटों से जब तक नहीं टकराता तब तक यह जीव मद में रहता है, और बाह्य पदार्थों को अपने अनुकूल चाहता है यह ही कारण है कि इसको क्रोध आया करता है । यह क्रोध बैरी है । रहे सहे गुणों को भी यह क्रोध जला देता है । कोई पुरुष कितना ही उपकारी हो और एक बार क्रोध आ जाये तो किया हुआ उपकार भी सब फुंक जाता है । यह क्रोध खुद का अनर्थ करनेवाला हे, क्रोध बैरी के रहते हुए आत्मा का ध्यान नहीं बन पाता ।
मान माया का त्याग होने पर आत्मध्यान की पात्रता―दूसरी कषाय है घमंड, मान हो जाना, मान होता है मिथ्याभाव में । जिसने देह को माना कि यह मैं हूँ उसको इस देह के प्रति बड़ी प्रीति होती है और इस मूर्तिमान देह को ऐसा मनवाना चाहता है कि लोग इस मुझको बड़ा मानें । जहाँ मान बसा हुआ है वहाँ नम्रता नहीं है । जहाँ नम्रता नहीं है वहाँ आत्मध्यान की पात्रता न होगी । आत्मध्यान के मायने उपयोग का आत्मा की ओर झुकना । जिसने झुकना सीखा ही नहीं नहीं अर्थात् जो अभिमान में चूर रहता हो वह अपनी ओर क्या झुकेगा, जो बाहर में मान रखा है वह अपने प्रभु के दर्शन से वंचित रहता है । अभिमानी पुरुष आत्मा का ध्यान नहीं कर सकता । छली कपटी पुरुष की तो बड़ी दुर्गति है । वह धर्म से कोसों दूर है । दृष्टांत दिया है कि जैसे माला के किसी दाने में टेढ़ा छेद हो तो उस दाने में सूत का प्रवेश नहीं हो पाता, उस दाने को अलग ही करना पड़ता है । तो टेढ़ा मायने कपट, ऐसे ही जिस जीव में कपटभाव हो उसमें धर्मरूपी सूत का प्रवेश नहीं होता । कपटी हृदय बहुत बेकार हृदय है जिसमें ज्ञान विवेक ये कुछ भी नहीं ठहर सकते । सब कषायों में छल-कपट वाली कषाय को शल्य बताया है । इस कपट के रहते हुए धर्म में प्रवेश नहीं है । कपटी को ही तो दोगला और चौगला कहा करते हैं, क्योंकि कपट का रूप यों व्यक्त होता है कि मन से और, वचन से और, करेंगे कुछ और । तो जब वचन कुछ बोलेगा किसी से कुछ, किसी से कुछ तो वह दोगला और चौगला हो जाता है । अब दोगला और चौगला में बताओ कौन खराब है ? तो यह तो समय-समय की बात है, कहीं चौगला खराब तो कहीं दोगला । दोगला के तो दो गले हैं । जिसके दो गले हों सो दोगला । कहीं गले दो नहीं हो जाते किंतु किसी से कुछ बात कही, किसी से कुछ ऐसा दो को जो भिड़ाये उसका नाम है दोगला, और चौगला के क्या चार गले होते हैं ? अरे ! चार गले नहीं होते मगर किसी एक बात को, जो चार जगह भिड़ाये, एक से कुछ कहा, दूसरे कुछ तीसरे से कुछ और चौथे से कुछ । तो इस छल कपट में ऐसा व्यवहार बनता है । छली पुरुष धर्म का पात्र नहीं है ।
तृष्णा का त्याग होने पर आत्मध्यान की पात्रता―चौथी कषाय है तृष्णा । लोभ जगना ꠰ धन जोड़ते जायेंगे, उसमें कुछ उपकार करने का, खर्च करने का या त्याग करनेका भाव नहीं बनता । ऐसी वृत्ति तृष्णावी पुरुष की होती है ꠰ और किसी को तृष्णा नहीं है इसकी पहिचान यह है कि यह पाये हुए धन का दान करता है, त्याग करता है, परोपकार में लगाता है । जिसके तृष्णा है, लोभ है, कंजूस है वह धन का खर्च नहीं कर सकता, त्याग नहीं कर सकता । मगर एक कवि ने ऐसे कंजूस पुरुष की दिल्लगी की है । बताया है कि कंजूस व्यक्ति दुनियां में सबसे बड़ा दानी है । उसके बराबर दानी न कभी कोई हुआ और न हो सकेगा । कैसे कि कृपण (कंजूस) पुरुष जीते जी अपने संचित धन में से न तो खुद के लिए खर्च कर सकता न दूसरों के लिए, किंतु मरने पर सारा-का-सारा धन दूसरों के लिए छोड़ जाता है । देखिये, यह कंजूस पुरुष की निंदा की गई है न कि प्रशंसा । तो जिसके हृदय में तृष्णा का भाव है उसके हृदय में धर्म नहीं जगता । धर्म वास्तव में क्या है उसकी बात कही जा रही है । मंदिर में आये या कुछ समय दे दिया या बड़े-बड़े विधि-विधान कर लिए, इतने से कहीं धर्म नहीं हो गया । जिसके कषाय मंद हों और बाह्य वस्तुओं में मोह न हो उसको, धर्म होता है, और उस धर्म की बढ़वारी के लिए, उस धर्म की उमंग पैदा करने के लिए मंदिर में आते हैं । तो जिसके तृष्णा कषाय है उसके भी ध्यान नहीं बनता है
गारवों का त्याग होने पर आत्मध्यान की पात्रता―गारव यह भी एक अभिमान का रूप है किंतु यह साधुजनों के प्राय: हो जाया करता है जो ध्यान की योग्यता नहीं रखते, तो ऐसे गारव 3 प्रकार के होते हैं (1) शब्दगारव (2) ऋद्धिगारव और (3) सातगारव । शब्दगारव में यह अभिमान रहता है कि मैं बड़े शुद्ध शब्दों का उच्चारण करता हूँ । अच्छी कला के साथ लोगों को व्याख्यान सुनाता हूँ । मेरी शब्दकला बडी ऊ̐ची है । जैसा सुंदर उच्चारण करना मैं जानता हूँ उतना और कोई मुनि नहीं जानता, इस प्रकार के गर्व से भरा हुआ जो भाव है उसे कहते हैं शब्दगारव । दूसरा है ऋद्धिगारव ꠰ अपनी ऋद्धि संपदा, चमत्कार को जाहिर करना ऋद्धि गारव है । आजकल तो इसमें बड़ी तारीफ मानी जाती कि अमुक मुनि के इतने अधिक शिष्य हैं । जैसे औषधालय खुलवाने वाले लोग इस बात में अधिक अपनी तारीफ समझते कि अस्पताल में दिन-प्रतिदिन रोगियों की संख्या में विशेष वृद्धि होती रहती है । अरे ! वे यह क्यों नहीं सोचते कि एक ऐसा वातावरण बन जाये कि जिससे रोगी ही न पैदा हों अधिक । तो आज का वर्तमान युग है, इसमें तृष्णा चलती है बिना पढ़े-लिखे साधुजनों में भी । हर एक कोई संतोष चाहता है, पर संतोष कहां मिले । वे तो इसमें संतोष मानते कि मेरे पास शिष्यजनों की संख्या अधिक बढ़े और उससे वे अभिमान पुष्ट करें कि मेरे बहुत शिष्य हैं । जितने मेरे शिष्य हैं उतने अन्य मुनियों के नहीं हैं, इस प्रकार का भाव होना यह ऋद्धि गारव है । अथवा किसी प्रकार का कुछ चमत्कार हो गया तो उसमें भाव बनाना ऋद्धिगारव है । तीसरा है सात गारव । जिसकी बड़ी प्रतिष्ठा है, जिसके प्रति लोगों का बड़ा सेवा का भाव है । आहार विहार ठहरने की जगह आदिक बहुत शौक के साथ करते हैं, तो इसे कहते हैं साता मिली । तो कोई मुनि ऐसी साता मिलने पर गर्व करते हैं कि जैसे इंद्रपने का सुख, चक्रवर्ती का सुख, तीर्थंकर का सुख इस तरह का सुख भोग रहा हूँ मुनि होकर भी, अपने को पुण्य का प्रभाव जताना यह सब सात गारव है ꠰ जिनके गारव लगा है उनको धर्मध्यान की बात नहीं बन पाती । इस कारण उपदेश किया गया है कि गारवों को छोड़कर ध्यानस्थ मुनि आत्मा का ध्यान करते हैं ।
अष्टमदरहित ध्यानस्थ योगो के ध्यान का लाभ―मद 8 होते हैं, जिनके कारण सम्यक्त्व में भी दोष आता है, सम्यक्त्व भी नहीं जग पाता । वे 8 मद हैं―(1) कुलमद―अपने कुल का घमंड होना, मेरे पिता बाबा ऐसे धर्मात्मा थे, कभी किसी ने कोई दोष नहीं किया, निर्दोष उनका कुल रहा । बात तो ठीक है, निर्दोष कुल रहे यह तो अच्छी बात है, पर यह उसकी बात सोचकर भीतर में घमंड कर रहा इस कारण से यह कुलमद आ जाता । (2) जातिमद―मेरी मां ऐसे घर की है जहाँ ऐसा आराम रहता था । जहाँ बहुत धर्म का पालन होता है, बड़ी शील-सती घराने की है, ऐसा घमंड करके सोचना यह जातिमद है । चीज तो अच्छी है, होना चाहिए अच्छा ही अच्छा, पर उसको निरखकर मन में घमंड आ जाये तो वह जातिमद है । (3) ज्ञानमद―कुछ ज्ञान हो गया उसका घमंड होना―जैसा मैं जानता हूँ वैसा अन्य लोग नहीं जानते । मेरा ज्ञान श्रुतकेवली जैसा बन गया । ज्ञान को निरखकर घमंड करना ज्ञानमद है । (4) पूजामद―मैं इन सबके बीच में माननीय हूँ । बड़े-बड़े राजा महाराजा, मिनिस्टर आदि हमारे चरणों के सेवक हैं । इस प्रकार पूजा विषयक घमंड होना पूजामद कहलाता है । जहाँ ऐसा घमंड है वहाँ आत्मा का ध्यान कैसे संभव है ? (5) बलमद―बल का घमंड होना बलमद है, जैसे मैं सहस्रभट हूँ, लक्षभट हूँ, कोटिभट हूँ, इस प्रकार से अपने बल का घमंड करना बलमद कहलाता है । (6) ऋद्धिमद―मेरे पास बड़ी संपदा थी और ऐसी संपदा को छोड़कर मैं मुनि हुआ हूँ । अन्य मुनियों के पास इतनी कहां संपदा ? इनमें कई तो कर्जदार भी थे आदिक बातें बनाकर अपना घमंड पुष्ट करना वह कहलाता है ऋद्धिमद । (7) तपमद―तप के अनेक प्रकार होते हैं । जैसे एक चंद्रायण व्रत है, उसमें एक-एक ग्रास घटा-घटाकर एक ग्रास तक रह जाये, कई-कई दिनों के उपवास भी हो जायें, फिर पारणा करना, फिर अनेक दिनों के उपवास करना, ऐसे अनेक प्रकार के व्रत हैं, उन तपश्चरणों को करके अभिमान आ जाना कि मैंने ऐसे बड़े-बड़े महातप किये हैं, करता हूँ, मेरा जीवन ऐसे-ऐसे तपों में व्यतीत हुआ है, मेरे समान अन्य कोई तप नहीं कर सकता । अनेक मुनि तो रोज-रोज भोजन करते, तपस्वी तो मैं हूँ, इस प्रकार तप का अभिमान करना तपमद है । (8) रूपमद―अपने शरीर की सुंदरता का घमंड होना रूपमद है । जहाँ इस शरीर के रूप रंग आदि पर दृष्टि गई वहाँ फिर ध्यान नहीं बनता, अतएव आचार्यदेव उपदेश कर रहे हैं कि इन मदों को छोड़कर आत्मा का ध्यान करना चाहिए ।
आत्मध्यान की सन्मित्रता―संसार में केवल एक आत्मध्यान ही वास्तविक मित्र है, अन्य मित्र तो धोखा कर सकते हैं, अथवा इस जीव का मित्र कोई दूसरा हो ही नहीं सकता । सब जीव अपनी-अपनी सुख शांति पाने के लिए अनेक प्रकार की चेष्टायें करते हैं, पर आत्मध्यान यह वास्तविक मित्र है । दुःख दूर तब ही होगा जब आत्मध्यान बने । इससे पहले याने आत्मध्यान के बिना चाहे कैसी ही अच्छी स्थिति हो, राजा हो, सेठ हो, ख्याति प्राप्त हो तो भी उसको शांति सुख नहीं प्राप्त होती । जिसे शांति मिली उसे आत्मध्यान से ही मिली । शुद्ध आत्मा―‘‘सिद्धि जिनने भी अब तक है पायी, तेरा आश्रय ही उसमें हुवा सहाई ।’’ जो सर्व विविक्त अर्थात् सत्त्व मात्र से जो सहजस्वरूप है उस रूप में अपनी श्रद्धा करने वाला और उस ही अविकार स्वभाव का आश्रय करने वाला मोक्षमार्ग पाता है । तो आत्मध्यान ही एक वास्तविक मित्र है, रक्षक है, गुरु है, ऐसा जानकर आत्मध्यान में प्रयत्न करना चाहिए और आत्मध्यान के लिए उस शुद्ध आत्मतत्त्व का ज्ञान करना चाहिए ।
ध्येय शुद्ध अंतस्तत्त्व का दिग्दर्शन―यहाँं रागद्वेषरहित परिणति वाले को शुद्ध नहीं कह रहे हैं । वह तो पर्याय से भी शुद्ध हो गया, पर इतना तो जानें कि जब मैं आत्मा सत᳭ हूँ तो मैं ही तो सत् हूँ अपने में, मेरी अन्य पदार्थों से मिलकर सत्ता नहीं बनती । अन्य सब पदार्थों से निराला केवल अपनी सत्ता से सत् हूँ और अपने ही असाधारण स्वभावरूप हूँ । ऐसा अपने को निरखना यह कहलाता है शुद्ध अंतस्तत्व का ध्यान । रागद्वेषरहित जो शुद्ध आत्मा है वह तो कार्यसमयसार है, फल है, पर वह बात बनी कैसे ? जब हमने यह जाना कि मैं तो केवल हूँ, अपने सत्त्व मात्र से सहज चैतन्यस्वरूप हूँ, उस रूप अपने को मानना यह है शुद्ध आत्मा का श्रद्धान । कर्म मेरे से पृथक् हैं । याने उनका स्वरूप निराला है, देह का स्वरूप निराला है, विकार भी आये पर विकार को अपने स्वभाव से तो नहीं कर रहा, ये तो नैमित्तिक हैं । विकार नहीं होते, निमित्त के सन्निधान बिना विकार नहीं होते । किसी भी जगह पुद᳭गल में भी जो-जो भी विषम परिणमन हैं, अर्थात् विकार हैं वे किसी पर निमित्त के सन्निधान में ही होते हैं । सो विकार मेरे स्वभाव नहीं है । यह तो कर्म की छाया है । इससे भी निराला मेरा स्वरूप है, ऐसा ज्ञायकभाव मात्र अपने आपको मानना, ध्यान में लेना यह है शुद्ध आत्मतत्त्व का ध्यान । तो जहाँ रागद्वेष मोह बने हुए हैं वहाँ यह ध्यान नहीं बन सकता । तो इन दोषों को छोड़कर और लोकव्यवहार से विरक्त होकर ध्यानस्थ मुनि ध्यान कर रहा है ।
लोकव्यवहारविरत ज्ञानी का आत्मध्यान व आत्मध्यान के उपाय में प्रवर्तन―जो लोकव्यवहार में अधिक पड़ रहा है वह आत्मा का ध्यान नहीं कर सकता । आत्मा के ध्यान के जितने बाधक कारण हैं उन बाधक कारणों से हटना और अपने स्वभाव की ओर अभिमुख होना यह है ध्यान की प्रेरणा देने वाला वातावरण । और जो कुछ पुण्य को पाकर समागमों में ही राजी रहते हैं, रागद्वेष मोहादिक के लिए ही जिनका दिल तड़फता रहता है वे पुरुष आत्मतत्त्व का ध्यान नहीं कर सकते । वे ध्यान में प्रवीण होने के लिए लोकव्यवहार से भी विरक्त होते हैं । बोलना, व्यवहार करना, अधिक संपर्क करना ये सब ध्यान के बाधक व्यापार हैं । अपने को केवल निरखना, मैं जो हूँ वह अपने मात्र ही हूँ, अन्य रूप नहीं हूँ, अन्य से मेरा संबंध नहीं । ऐसा केवल अपने आपको जो निरखे वही लोकव्यवहार से विरक्त हो सकता है । ऐसी योग्यता वाले ध्यानस्थ मुनि याने जिनको ध्यान की धुन है, ध्यान में बैठे हैं सो वे इस शुद्ध आत्मतत्त्व का ध्यान कर लेते हैं ꠰ ध्यान बिना कोई नहीं है, सबके ध्यान लगा है । जिनके मन नहीं है उनके संज्ञा के आधार पर ध्यान है, और जो जिसका ध्यान रखते हैं वे उसके पुजारी कहलाते हैं । जिसका निरंतर ध्यान बना रहे तो उसके लिए भगवान बना हुआ है और यह भक्त बना हुआ है । तो अब यह परीक्षा करें कि हमारा भगवान कौन है ? जिसका ध्यान अधिकाधिक बना रहता है उसी को उसका भगवान समझो । यदि कोई मंदिर में आकर भगवान के दर्शन करके भी ध्यान बनाये रहता है निरंतर स्त्री पुत्रादिक का तो वह उन स्त्रीपुत्रादिक का भक्त है न कि भगवान का । जिस पर अधिकाधिक ध्यान रहे उसके लिए वही प्रभु बन रहा है । प्रभु नहीं है पर अपने को समझ रहा है कि मेरा रक्षक शरण सब कुछ ये ही हैं । ध्यान बिना कोई नहीं रहता । पर यह अपने में विवेक बनायें कि किसका ध्यान करने से हमको लाभ है ? वीतराग सर्वज्ञ परमात्मा का ध्यान करें तो बाह्य विषयों से चित्त हटा रहेगा और हम स्वतंत्र केवल निशल्य शांत रहेंगे और यदि विषयों का ध्यान करेंगे तो कायर, कषायवान्, छलवान्, तृष्णावान् रहकर अपना ही घात करेंगे । सो ऐसा ज्ञान जगना चाहिए कि यह अनुभव बन जाये कि मैं ज्ञानमात्र हूँ, और ज्ञानमात्र अपने को अनुभवने में ही मोक्षमार्ग है । यह बात बनेगी सत्संग से, स्वाध्याय से और प्रभुभक्ति से । तो तीनों बातों को देखिये, हम आपको सत्संग भी मिल रहा, प्रभुभक्ति भी रोज-रोज कर रहे और स्वाध्याय भी रोज होता । हाँं सत्संग तो स्वाधीन नहीं है मगर स्वाध्याय और प्रभुभक्ति इनमें कोई पराधीनता नहीं है, कर सकते हैं । तो स्वाध्याय सत्संग और प्रभुभक्ति, इन तीन उपायों से अपने आपको शांति के मार्ग में बढ़ाना चाहिए ।