वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 36
From जैनकोष
रयणस्तयं पि जोई आराहइ जो हु जिणवरमएण ।
सो झायदि अप्पाणं परिहरदि परं ण सदेहो ꠰꠰36꠰꠰
रत्नत्रय के आराधक के आत्मा का ध्यान और पर का परिहार―जो निकट भव्य पुरुष जिनवर के बताये हुए मार्ग के अनुसार रत्नत्रय का ध्यान करता है वह अपने आपको पाता है और समस्त पर को त्याग देता है । रत्नत्रय के मायने क्या ? तीन सार बातें । रत्न नाम पत्थर का नहीं कहलाता । रत्न शब्द का अर्थ है जो जिसमें सार है वह उसमें रत्न है । कई शब्द ऐसे होते हैं कि जिनका कोश के अनुसार वाच्य न मालूम होने से भ्रम हो जाता है । जैसे सिंहासन, भगवान सिंहासन पर विराजमान है । उस सिंहासन का अर्थ क्या है ? अनेक लोग तो उस सिंहासन के पाये सिंह के पंजे की तरह बनाने लगे । सिंह के पैर जैसे आकार उनके पाये में हो तो सिंहासन है, पर यह बात नहीं है, यह अर्थ नहीं है । सिंह कहते हैं श्रेष्ठ को । सिंह मायने यह पशु सिंह नहीं है किंतु सिंहआसन मायने श्रेष्ठ आसन । यहाँ कर्मधारय समास है न कि तत्पुरुष समास । याने सिंह का आसन नहीं किंतु जो श्रेष्ठ है आसन सो सिंहासन । ऐसे ही रत्न क्या कहलाता ? जो जिसमें उत्कृष्ट हो वह उसमें रत्न कहलाता है । अब लोगों की दृष्टि भौतिक पुद्गल में अधिक है, उन्हीं में उत्कृष्ट की छांट करते हैं तो उन्हें सबसे अधिक उत्कृष्ट मिले हीरा, मणि आदिक, तो उनका नाम रत्न कहने लगे । तो रत्न मायने सार । सार क्या है जगत में ? अपने लिए अपना ज्ञान होना, अपनी रुचि होना और अपने में रम जाना यह है सार बात । ये तीन बातें भेदविवक्षा में है, अभेद से तो एक तत्त्व है ज्ञानमात्र, चैतन्यमात्र । यह ज्ञानमात्र आत्मा अपने आपको ज्ञानमात्र मान ले और उसके साथ ही चूंकि एक सहज परम आनंद का अनुभव हुआ है इस कारण यह ही सार हैं, यह ही उपादेय है, यह ही हमारे लिए शरण है, इस प्रकार की ज्ञान में दृढ़ता आती, वह ज्ञान हुआ, ज्ञान में दृढ़ता हुई । और ऐसा ही ज्ञान बनाये रहना चारित्र हुआ है । जिसको यह परिचय हुआ है कि यह ज्ञानमात्र अंतस्तत्त्व यह ही मेरा सत्यस्वरूप है वह उसमें ही रमेगा । सत्य स्वरूप के मायने अपने आप अपने ही सत्त्व के कारण अपने में जो स्वरूप हो वह है सत्यस्वरूप । पर का संबंध पाकर कोई रूप बनता है तो वह सत्यस्वरूप नहीं है, क्योंकि वह औपाधिक है और मिट जाने वाला है । जो ध्रुव हो, सहज हो वह मेरा स्वरूप है और इस ज्ञानमात्र स्वरूप की दृष्टि में आकुलता का नाम नहीं रहता । आकुलता हुआ करती है नियमत: किसी परपदार्थ का आश्रय करने में । यहाँ यह ज्ञानी अपने आपमें अपने ज्ञानमात्र स्वरूप को निहार रहा है और उसमें दृढ़ता ला रहा है और ऐसा ही ज्ञान बनाये रहना बस यह ही हुआ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ।
वस्तु की द्रव्यपर्यायात्मकता की अनिवारितता―आत्मा का वह सहज स्वरूप क्या है ? जिसकी दृष्टि में व्याकुलता का नाम नहीं रहता, वह स्वरूप एक है, अवक्तव्य है । देखिये सत् में से द्रव्यत्व और पर्याय ये दो निकाले नहीं जा सकते ꠰ प्रत्येक वस्तु है और परिणमती रहती है, ये दो बातें नहीं निवारित हो सकतीं । जो शाश्वत है वह तो है द्रव्य । द्रव्यार्थिकनय की दृष्टि में जाना गया और जो क्षण-क्षण में रूप है, परिणमन होता है, मुद्रायें होती हैं वे हैं पर्याय । द्रव्य भी अवक्तव्य है और अखंड है और पर्याय भी अवक्तव्य व अपने काल में अखंड है । जैसे द्रव्य शाश्वत, अखंड है तो पर्याय अपने समय में अखंड है । नवीन पर्याय हुई वह भी अखंड है, याने उन पर्यायों में यह अंतर नहीं जाना जा सकता है उस काल में कि यह क्या परिणाम रहा है और क्या यहाँ हो रहा है यह बात नहीं बतायी जा सकती । मगर यह बात बतायी जाती कि तीर्थप्रवृत्ति में बताना ही पड़ता है तो वह भेददृष्टि से कथन हुआ है और उसका आधार क्या ? कि पहले द्रव्य में भेद किया तब पर्याय में भेद बना । द्रव्य में भेद से निहारने का नाम है गुण और जब गुण समझे गए तो उनके आधार से पर्याय में भी भेद किया गया है । वस्तुत: है और परिणमता है । वह एक ही परिणमन है आत्मा का, और ऐसा अनोखा विलक्षण परिणमन है कि उसका निमित्त पाकर कर्म का आस्रव भी हो रहा, कर्म का बंध भी हो रहा, कर्म का संवर भी हो रहा, कर्म की निर्जरा भी हो रही, चारों तत्त्वों में एक परिणमन का निमित्त पाकर हो रहे । तो वह कैसे एक अवक्तव्य विलक्षण परिणमन है जिसको समझाते समय यह कहना पड़ा कि उस परिणमन में जितने अंश में राग है उतने अंश में आस्रव-बंध है जितने अंश में राग नहीं है उतने अंश में संवर-निर्जरा है । यह भेद करके बताना पड़ा, वस्तुत: जैसे द्रव्य अखंड है ऐसे ही वह पर्याय भी अपने समय में अखंड है । बस उतनी बात सबकी सबमें चल रही है । इससे आगे कुछ नहीं है, इससे आगे जितना जो कुछ प्रतिपादन है वह व्यवहार है ।
व्यवहार की प्रयोजकता―व्यवहार चूंकि वस्तुस्वरूप के अनुरूप प्रतिपादन है इसलिए झूठ नहीं है । कहीं झूठ के मार्ग से सत्य की पहिचान नहीं होती, पर व्यवहार और परमार्थ क्या है इस निर्णय का आधार भेद और अभेद है । उस वस्तु को भेद से पहिचाना यह व्यवहार हुआ और भेद से पहिचानने का व्यवहार प्रयोजनवान है पहली भूमि में । अब पहिचान करके फिर एक उस परमार्थ अखंड का ही स्वाद लेना चाहिए । तब एक प्रयोजनवान है केवल यह शुद्धनय । तो शुद्धनय से पहिचाना गया जो आत्मा का अंतस्तत्त्व है वह वचन में नहीं आ सकता फिर भी वचन में लाये बिना काम भी नहीं चल सकता । तीर्थप्रवृत्ति कैसे हो ? लोगों को स्वरूप का ज्ञान कैसे बने, इसका उपाय सिवाय भेद करके समझाने के अन्य कुछ नहीं है । भेद करके समझते गए पुरुष फिर भेद को छोड़कर अभेद का स्वाद ले, यह उसकी कला है, पर उसको बताने का उपाय अन्य कुछ हो नहीं पाता । तब भेद-दृष्टि से निरखा तो पहले शक्तियों का परिचय बना । इस आत्मा में दर्शनशक्ति, ज्ञानशक्ति और चारित्रशक्ति है और उनके ही प्रसंग में आनंद-शक्ति का भी परिचय है ।
आत्मा के दर्शनगुण और ज्ञानगुण का दिग्दर्शन―दर्शनशक्ति के मायने आत्मा में निज में निजी खुद की झलक का स्वरूप । ज्ञानशक्ति के मायने ऐसी शक्ति जिसके प्रताप से अन्य सब पदार्थों की यहाँ झलक चलती जाये । जैसे दर्पण है, यदि उसमें खुद की झलक नहीं तो बाह्य पदार्थों की झलक नहीं हो सकती । तो वहाँ दो कलायें हैं, दर्पण खुद में भी चमचमाहट रख रहा है और बाह्य पदार्थों का भी प्रतिबिंब ले रहा है । प्रतिबिंब लेता हुआ दर्पण खुद की चमचमाहट को नहीं छोड़ रहा है । भले ही उस प्रतिबिंब के समय दर्पण की स्वयं में चमचमाहट तिरोहित है, यदि सारे दर्पण पर प्रतिबिंब आ गया तो लो चमचमाहट नहीं नजर आती है उस दर्पण की खुद की, लेकिन यदि न हो चमचमाहट तो प्रतिबिंब भी नहीं हो सकता । ऐसे ही यह आत्मा अपने ही स्वभाव से सत् को जानकर सतों को जानने वाले स्वयं की चमचमाहट झलक प्रकाश निरंतर बनाये रहता है । जैसे भगवान में दर्शन और ज्ञान दोनों के परिणमन निरंतर चलते हैं ऐसे ही छद्मस्थ में भी दर्शन और ज्ञान दोनों के परिणमन निरंतर चलते हैं । अंतर केवल उपयोग का है, भगवान दोनों को उपयोग में एक साथ लेते हैं, छद्मस्थ उपयोग में दर्शन और ज्ञान दोनों को एक साथ नहीं ले पाते । जब दर्शनोपयोग है तब ज्ञानोपयोग नहीं, जब ज्ञानोपयोग है तब दर्शनोपयोग नहीं, मगर दर्शनगुण और ज्ञानगुण दोनों हैं सो उनके परिणमन निरंतर ही चल रहे, कोई गुण परिणमन शून्य नहीं होता ।
द्रव्य क्षेत्र काल भाव से आत्मा का परिचय―अपने आत्मा को किस प्रकार निरखा जावे । पदार्थों के निरखने के 4 उपाय होते हैं । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव । और भाव के दो प्रकार करने से याने भेदरूप भाव और अभेदरूप भाव देखने से ये 5 प्रकार हो जाते हैं पदार्थ के निरखने के । जैसे कोई पौद्गलिक, ढेला पदार्थ लिया, उसको जानना है तो द्रव्य से यह है जो कि पिंडरूप है, क्षेत्र से यह इतना घेरा लिए हुए है, काल से इसका वर्तमान यह परिणमन है, भाव से इसमें इस प्रकार के गुण हैं । आत्मा को देखिये―आत्मा द्रव्य से गुण पर्यायों का पिंड है । अनंत गुण, अनंत पर्यायों और भूत-भावी अनंत पर्यायों को लेकर, गुण-पर्याय का पिंड आत्मद्रव्य है, यह द्रव्य से देखने में समझ में आ रहा, क्षेत्र से यह असंख्यात प्रदेशी है । यह वर्तमान में शरीर प्रमाण है यह ध्यान में आया । कालदृष्टि से यह शांत है, अशांत है, कषायग्रस्त है, कषायविहीन है, इस तरह की परिणतियां दृष्टि में आती हैं और भावदृष्टि से इसके गुण दृष्टि में आते । ज्ञान, दर्शन, चारित्र, आनंद, शक्ति आदिक अनंत गुण इसमें हैं । ये चार बातें बतायी गई ।
अभेदभाव स्वभाव के ज्ञान में आत्मानुभव का अवसर―अब यह देखिये कि परिचय तो हुआ आत्मा का चारों से मगर आत्मा का अनुभव किससे बनेगा । अनुभव किसे कहते ? ज्ञान से ज्ञान में ज्ञान ही हो, यह है अनुभव की मुद्रा । ज्ञान में मात्र ज्ञानस्वरूप ही ज्ञेय हो रहा हो और वह होता है केवल ज्ञानपरिणमन द्वारा, इंद्रिय द्वारा नहीं, मन द्वारा नहीं । भले ही यह मन बहुत देर तक याने आत्मा के बहुत निकट तक यह ले जाता है उपयोग को मगर उपयोग द्वारा उसको अनुभवते समय मन का काम नहीं रहता । मात्र उपयोग और यह सहज परमात्मतत्त्व इन दोनों का एकीकरण है । तो आत्मानुभव की बात कह रहे हैं कि आत्मा को अनंत गुणात्मक देखा, अनंत शक्तिवाला देख रहे । उस देखने में क्या आत्मानुभव बनता है ? नहीं बनता ꠰ आत्मा का परिचय मात्र हो रहा, परिचय होना, अनुभव होना, इन दोनों में अंतर है । परिचय तो दूसरे के बुखार का भी हो जाता, इतनी डिग्री बुखार है, पर दूसरे के बुखार का अनुभव नहीं होता । परिचय तो अपने आपके इन गुणों का भी किया जा रहा मगर जब यह परिचय हो रहा है तो वहाँ परत्व है, स्वत्व नहीं बना । स्वत्व बनता है अनुभूति में । स्व होकर भी पर चलता रहता है, अच्छा जब क्षेत्र की दृष्टि से आत्मा का विचार करते हैं कि यह असंख्यात प्रदेशी है, शरीरप्रमाण है, तो क्या इस उपयोग में आत्मा का अनुभव बनता है? नहीं बनता । परिचय के लिए आवश्यक है सब समझना, पर अनुभूति की दशा इन परिचयों में नहीं चल रही, तब फिर कालदृष्टि से अपने आत्मा को देख रहे कि यह क्रोध में है, मान में है, माया में है, लोभ में है, समता में है । जिस किसी भी पर्याय में हैं उस पर्याय को निरख रहे हैं तो उस पर्याय के निरखने के समय क्या आत्मानुभूति है ? नहीं है, क्योंकि आत्मानुभव में अद्वैत, एकत्व, अभेद, जिसे कहो ज्ञान से ज्ञान में ज्ञान ही हो, यह स्थिति बनती हैं, वह स्थिति भाव में, गुणभेद में ही नहीं प्राप्त होती । तब 5वां प्रकार है अभेदभाव ꠰ जैसे भेदभाव में अनंतगुण दृष्टि में आये तो अभेदभाव में अखंड, अवक्तव्य, असाधारण, चैतन्यस्वरूप दृष्टि में आया । और इस उपाय से यह भव्य आत्मानुभव में सफल हो जाता है ।
ज्ञानमात्र परभाव-शून्य भावना में शुद्ध आत्मा का दर्शन―अपने आपको निरखना है ज्ञानमात्र । ज्ञानमात्र देखा उसी का ही अर्थ है परभावशून्य, किंतु उसका और समर्थन करने के लिए व्यतिरेक द्वारा बताते हैं कि यह मैं सहजस्वरूप परभाव से निराला हूँ । परभाव, पर का निमित्त पाकर होने वाले भाव । यद्यपि रागद्वेषादिक पर के भाव नहीं हैं, ये जीव के भाव हैं मगर पर का निमित्त पाकर होने वाले भाव परभाव कहलाते हैं क्योंकि उन परभावों का अन्वय-व्यतिरेक कर्मोदय के साथ है, जीव के साथ नहीं है । यह भी बात ध्यान में लाने योग्य है कि आत्मा में जो रागद्वेषादिक भाव जगते हैं, कल्पनायें बनती हैं उनका अन्वय-व्यतिरेक जीव के साथ नहीं, किंतु कर्मविपाक के साथ है । अन्वयव्यतिरेक का मतलब? कर्मविपाक के होने पर ही होना, कर्मविपाक के न होने पर न होना ꠰ यह संबंध विकार का निमित्त के साथ है, पर विकार निमित्त का नहीं है, वह विकार निमित्त की परिणति नहीं है, किंतु वह है इस उपादान की परिणति । जिसे यों कहो कि निमित्त ने कुछ किया नहीं और निमित्त-सन्निधान बिना कुछ होता नहीं । इसका मतलब क्या है ? जैसे हम धूप में जा रहे हैं और सड़क के किनारे एक पेड़ खड़ा है उसके नीचे से भी हम गुजरे और उस समय हमारे शरीर में छाया पड़ी तो बताओ उस छाया को क्या पेड़ ने किया ? पेड़ तो पेड़ के प्रदेशों में है, पेड़ जो कुछ कर पायगा सो अपने ही प्रदेशों में कर पायेगा । जो भी अदले-बदले, कुछ भी बात हो पेड़ की वह पेड़ में होती, पेड़ से बाहर कुछ न हो पायगा । तो वह छाया पेड़ ने नहीं की । तो फिर किसने किया ? उपादान-दृष्टि से उत्तर हुआ कि चूंकि यही शरीर छायारूप परिणम गया तो वह छाया परिणति शरीर की है । लेकिन वृक्ष के सान्निध्य बिना वह छाया परिणति नहीं बनी, तब वहाँ यह कहना चाहिए कि ‘निमित्त प्राप्योपादानं स्वप्रभाववत्’, निमित्त को पाकर उपादान अपने प्रभाव वाला हो जाता है, वह प्रभाव अन्य का नहीं है । भाव प्रभाव में कुछ फर्क नहीं, प्रकृष्ट भाव को प्रभाव कहते हैं, पर उपादान ने यह प्रभाव निमित्त-सान्निध्य में प्रकट किया है, इस कारण वह नैमित्तिक है, इस कारण वे विकार नैमित्तिक हैं । यद्यपि जीव ने ही परिणमन किया, पर कर्मविपाक के अनुरूप अपने में वह प्रभाव पैदा किया इस कारण वह नैमित्तिक है । उससे मैं सूना हूँ शुद्ध आत्मा ।
एकत्वविभक्त आत्मा का शुद्धत्व―शुद्ध आत्मा का अर्थ यह नहीं कि रागद्वेषरहित आत्मा, वह भी अर्थ है प्रकरणवश । जहाँ निज शुद्ध आत्मा की चर्चा चल रही हो वहाँ रागद्वेषरहित आत्मा यह अर्थ न करना चाहिए क्योंकि वर्तमान परिणमन रागद्वेषरहित हैं नहीं, किंतु क्या करना कि पर और परभावों से निराला और अपनी ही शक्तियों में तन्मय, इसे कहते हैं शुद्ध । जैसे शुद्ध दूध मायने अन्य पदार्थ से निराला और अपनी सब शक्तियों में संपूर्ण, उसे कहते हैं शुद्ध तत्त्व, ऐसे ही निज शुद्ध आत्मा अपने सत्त्व के कारण जो अपने में जौहर है, जो अपने में चमत्कृति है, अपना स्वरूप है उस स्वरूप से संपूर्ण है, पर अन्य पदार्थों से अत्यंत जुदा है, अन्य पदार्थों से अत्यंत जुदा और अपने आपके स्वभाव में तन्मय ऐसे आत्मतत्त्व को निरखने का नाम है शुद्ध आत्मा का ध्यान करना । यह ध्यान ही धर्मपालन है, धर्मपालन में यह ही किया जाता है और जिसके जितनी इसकी दृढ़ता है उसके उतना ही धर्मपालन चल रहा ।
व्यहारधर्मपालन से अपने को सुरक्षित कर परमार्थधर्मपालन में नि:शंक प्रगति की संभवता―धर्म कहीं बाह्य पदार्थों से नहीं आ रहा, शरीर की किया से नहीं आ रहा । धर्म तो आत्मा में अंत:प्रकाशमान स्वरूप के आलंबन से आ रहा है, पर इस स्वरूपावलंबन के लिए चलने वाले पुरुष को पूर्व संस्कारवश अनेक विघ्न आ रहे, विघ्न क्या ? परपदार्थों के उपयोग । उन विघ्नों को टालने के लिए, उन विघ्नों से तत्काल मुक्त होने के लिए व्यवहारधर्म का पालन है । और व्यवहारधर्म के पालन में अपने आपको सुरक्षित रखते हुए जितने अंश से निज सहज स्वभाव की आराधना चल रही है उतने अंश में धर्मपालन हो रहा है, सो वहाँ विशेष अंतर नहीं, गमन नहीं, किंतु फेर मात्र है । यह उपयोग उस ज्ञान में रहते हुए भी ज्ञान की ओर अभिमुख न था । अब यह उपयोग जहाँ बस रहा है वहाँ अभिमुख हो गया, इतना दृष्टि का फेर है । कोई बड़ा व्यायाम नहीं है, बड़ा परिश्रम नहीं है । कहीं आने-जाने उठाने-धरने की बात नहीं है, किंतु उपयोग जहाँ था वहाँ का परिचय करने लगा । अज्ञानदशा में इसकी स्थिति बैट्री की लाइट की तरह थी । जहाँ से प्रकाश निकल रहा वहाँ का तो प्रकाश नहीं चलता, दूर फिक रहा । तो यह उपयोग दूर-प्रकाश पा रहा, पर जिस प्रकाश में यह पड़ा है उस प्रकाश को नहीं पा रहा है । अब यह स्वप्रतिष्ठ प्रकाश को पा रहा है बस यह है एक फेर और सहीं दृष्टि का आना । तो अपने आपको इस ज्ञानी ने ज्ञानमात्र परभावशून्य निरखा । ऐसे ही सब कुछ निरंतर बने रहने का नाम चारित्र है । इस चारित्र में भी बाधायें आती हैं उन बाधावों को तत्काल दूर करने के लिए व्यवहारचारित्र का पालन होता है और व्यवहारचारित्र के पालन में अपने को सुरक्षित बनाकर योग्य पात्र बनाकर फिर वह अंतरंग चारित्र में रमता है । ज्ञान से ज्ञान में ज्ञान ही हो का प्रयोग जितने अंश में यह करता है उतने अंश में धर्मपालन है । अपना कल्याण कितना सुगम है, कितना स्वाधीन है कि जिसके लिए बाहर में कुछ अधीनता या श्रम नहीं है । ऐसे अंतस्तत्त्व के जाने बिना इस जीव ने अनेक परवस्तुओं में लगाव लगाकर भटक-भटककर जन्म-मरण करते हुए अनंतकाल खोया । अब यदि यह खुद का अंतःस्वरूप परिचय में आये, अनुभव में आये तो ये जन्ममरण के संकट सदा के लिए छूट जायेंगे ।