वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 39
From जैनकोष
दसणसुद्धो सुद्धो दंसणसुद्धो लहेइ णिव्वाणं ।
दंसणविहीणपुरिसो न लहइ त इच्छियं लाहं ꠰꠰39꠰।
सम्यक्त्व की प्राप्ति के उपाय में व्यवहारसम्यक्त्व―जो जीव सम्यग्दर्शन से शुद्ध हैं वे वास्तविक शुद्ध हैं और शुद्ध होकर निर्वाण को प्राप्त होते हैं, किंतु जो सम्यक्त्व से विहीन हैं ऐसे पुरुष निर्वाण को प्राप्त नहीं हो सकते । जैसे मकान की जड़ नींव है । यदि नींव मजबूत है तो मकान बनवाते जाइये उस पर मंजिल पर मंजिल चढ़वाते जाइये और अगर नींव नहीं मजबूत है, ऊपर ही उठा दिया है तो वह मकान नीचे धस जायेगा, टूट-फूटकर गिर जायेगा ꠰ इसी प्रकार यदि सम्यग्दर्शन है तो ज्ञान सही रहेगा, चारित्र भी ढंग से बनेगा, निर्वाण भी पायेगा, और सम्यग्दर्शन नहीं है तो भले ही अपनी कल्पना का संयम बना लेवे कोई, मगर वह मोक्षमार्ग में चल नहीं सकता, मोक्षमार्ग नहीं मिल सकता । सम्यग्दर्शन क्या है ? सम्यग्दर्शन तो आत्मा का ऐसा स्वच्छ भाव है कि जिसके होने पर विपरीत अभिप्राय नहीं उठा करते और आत्मा का जो वास्तविक स्वरूप है उस स्वरूप का इसे अनुभव हो जाता है, पर इस सम्यक्त्व को पाने के लिए क्या उद्यम होना चाहिए ? तो जो उद्यम किए जाते उनका नाम है व्यवहारसम्यक्त्व । व्यवहारसम्यक्त्व तीन जगह होते हैं, सम्यग्दर्शन से पहले व्यवहारसम्यक्त्व, सम्यग्दर्शन के रहते हुए व्यवहारसम्यक्त्व और किसी का सम्यग्दर्शन छूट जाये तो भी उस समय के निकट व्यवहारसम्यक्त्व । सम्यग्दर्शन से पहले का व्यवहार सम्यक्त्व क्या है ? जैसे देव, शास्त्र, गुरु का एक साधारणतया उस रूप में श्रद्धान, 7 तत्त्वों में श्रद्धान और जो-जो भी चेष्टायें की जाती हैं मंद कषाय, 12 अनुप्रेक्षावों का मनन, भीतरी आत्मा की खोज, जो भी पौरुष चलता है वह व्यवहारसम्यक्त्व है । उसका आधार क्या है कि जैसे सम्यग्दृष्टिजन बाहर में जो कुछ करते हैं वे जो अभ्यास किए जा रहे हैं वह सब कल्याणार्थियों को विश्वस्त हो जाता है । व्यवहारसम्यक्त्व में किये गये इस अभ्यास के प्रसाद से अनंतानुबंधी कषाय व मिथ्यात्व-प्रकृति में अब क्षीणता होने लगती है । और जिस काल में अनंतानुबंधी और दर्शनमोह का उपशम हो जाये वहाँ सम्यक्त्व होता है । तो जो सम्यग्दृष्टि हुए हैं वे पुरुष भी इन्हीं उपायों से बढ़-बढ़कर हुए हैं । अब सम्यक्त्व हुआ या न हुआ मान लो कि सम्यक्त्व हुआ और फिर दूसरे को यों कहना कि यह जो व्यवहार की बात है मंदिर जाना, षट् आवश्यक करना आदि ये धर्म नहीं है, ये हेय हैं, पर जिस मार्ग से गुजर करके यदि खुद अच्छे ऊंचे स्थान पर पहुंचे हों तो वह मार्ग दूसरों के लिए उस पदवी में सर्वथा हेय कहना, यह तो एक तीर्थ को बिगाड़ना है । तथा जिसको सहजात्म परमपद की झांकी नहीं उसको तो व्यवहारधर्म हेय कहने का क्या अधिकार है ? इसलिए यह समझना चाहिए कि जो कुछ पौरुष किया जा रहा है मंदिर आना, स्वाध्याय करना, गुरुसेवा करना, तपश्चरण करना, व्रत करना, तत्त्वज्ञान में बढ़ना, अध्ययन करना आदिक ये सब उपाय हैं एक आगे बढ़ने के और इन उपायों की ही कृपा से उन सम्यक्त्वघातक प्रकृतियों में हीनता आती है । वह जब सम्यक्त्वघातक प्रकृतियों का उपशम हो जाये तो यहाँ उपशम सम्यक्त्व होता है ।
सम्यक्त्व से शुद्ध पुरुष की निर्वाण प्राप्तता व सम्यक्त्वहीन पुरुष का संसारभ्रमण―जो सम्यग्दर्शन से शुद्ध है, जिसने अपने आत्मा के सही स्वरूप का परिचय पाया है उसको जगत् का सारा समागम अपने लिए बेकार लगने लगता है । इन बाह्य पदार्थों से मेरे आत्मा को क्या लाभ होता है ? जो पदार्थ मिलते हैं, बिछुड़ते हैं उनमें प्रीति करने से क्या लाभ है ? जो मुझसे अत्यंत जुदे हैं उनसे प्यार बनाने में आत्मा क्या लाभ पायगा ? देखिये―मोह एक बड़ा अंधकार है । जो मोह-अंधकार में पड़ गए उन्हें कुछ प्रकाश नहीं, कुछ मालूम नहीं अपनी बात । मैं क्या हूँ, कहां से आया, कैसा हूँ, स्वरूप क्या है, क्या करना चाहिए, मुझे अपना कैसा भविष्य बनाना चाहिए, इसका कोई सही पता नहीं है । वे तो शरीर के नाते से उत्तर देते हैं । किसी से पूछो कि भाई ! तुम कहां से आये तो वह किसी गांव या नगर का नाम लेकर बता देगा कि अमुक जगह से आये । उसके चित्त में यह बात नहीं आती कि मैं किसी परभव से आया, या अनादि से मैं भ्रमता आया । अब किसी से पूछो कि भाई ! तुम कहां जावोगे ? तो वह किसी गांव या नगर का नाम लेकर बता देगा कि अमुक जगह जायेंगे । परंतु उसके चित्त में यह बात नहीं आती कि हम को यह भव छोड़ना पड़ेगा और किसी अन्य भव में जाना पड़ेगा, क्योंकि मोह-अंधकार है, वह देह को ही सर्वस्व मान रहा, उसको तो अपने मरण की भी कल्पना नहीं होती, मरण से डरता है, पर कल्पना नहीं होती कि मैं मर ही जाऊंगा । औरों के बारे में कुचर्चा कर लेते कि वह जीव बेचारा अकेला था, चला गया, अब उसका क्या है यहाँ । तो दूसरों के बारे में तो इस तरह से देखते हैं, पर अपने आपके बारे में इस तरह से नहीं देखते कि मैं चला जाऊंगा । मेरे लिए यहाँ का समागम क्या लाभ देगा ? मुझ आत्मा को यहाँ का समागम न रहेगा और अब भी जब तक इन बाह्यपदार्थों का समागम है तब तक आत्मा उनसे क्या लाभ पा लेगा ? उसे तो अशांति ही मिलेगी, शांति न मिलेगी । शांति तो तब मिलेगी कि जो अपना शांति का धाम है ज्ञानस्वरूप भगवान आत्मा, उसमें दृष्टि जमेगी तो शांति मिलेगी अन्यथा शांति नहीं मिल सकती । यह बहुत बड़ी समस्या है । समस्त समागमों का परिहार करें, मोह तजें तो आत्मा का वैभव मिलेगा और यह मोह तजें तो आत्मा का वैभव मिलेगा, और यदि बहुत-बहुत संबोधन किए जाने पर भी भीतर का मोह न हटा तो उसके फल में चतुर्गतियों में परिभ्रमण करना होगा ।
कल्पित सुख से उपेक्षा कर सहजानंदमय ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्व की रुचि होने का फल शाश्वत आनंद―अब यह बतलावो कि केवल एक मनुष्यभव का यह कल्पित सुख समागम पसंद है या अनंतकाल के लिए हम शांतिमय रह सकें यह पसंद है? यह अपने आपसे पूछो तो सही । यदि इस भव का जो सुख-समागम है उतना ही पसंद है तो उसके फल में तो आगे अनंतकाल संकट-ही-संकट सहना पड़ेगा । विवेकीजन तो इस बात को कभी न पसंद करेंगे कि वर्तमान में तो थोड़ा-सा कल्पित मौज मान लिया और आगे अनंतकाल दुःख भोगा । भले ही थोड़े समय कष्ट में रह लें पर यहाँ ऐसा कोई उपाय बना लें कि जिससे आगे अनंतकाल तक शांति और आनंद में रह सकें । यह बात विवेकीजनों को इष्ट है । करते भी लोग ऐसा ही धंधा, जो लोग बड़े-बड़े मिल खोलते अथवा कारखाने खोलते तो उनके प्रति पहले से ही वे यह समझ रखते हैं कि करीब इतने वर्ष तो इसके प्रति इतना श्रम, इतना-इतना खर्च तो करना ही पड़ेगा और उसके बाद कुछ वर्ष विशेष लाभ भी न दिखेगा मगर आगे चलकर आजीविका चलाने का बड़ा अच्छा साधन बन जायेगा ꠰ यह समझ पहले से होने के कारण वह तत्काल के कष्ट को हंस-हंसकर सह लेता है । तो जैसे एक इस भव के सुख के लिए यहाँ सोच लिया जाता है ऐसे ही आगे के अनंतकाल के लिए क्यों नहीं सोच लिया जाता ? मान लो यहाँ के 100-50 वर्ष की जिंदगी के लिए कुछ सुख-सुविधा बना भी ली तो क्या खास बात हो गई ? अतंतकाल के सामने यह 100-50 वर्ष का समय कुछ भी तो गिनती नहीं रखते । स्वयंभूरमण समुद्र के आगे एक बूंद बराबर भी गिनती नहीं रखता । यदि हम कोई बाहरी पदार्थों की इच्छा न करें, तृष्णा न करें, संतोषवृत्ति से अपना जीवन बितायें और अपने जीवन का ध्येय अपने आपके कल्याण का बनायें; आत्मध्यान, संत-समागम, तत्त्वमनन इनमें ही अपना समय बीते तो इसके फल में आगे अनंतकाल तक आनंद-ही-आनंद में रहेंगे । जिन महापुरुषों ने त्याग किया, तपश्चरण किया, अपने चैतन्यस्वरूप में तपे उन महापुरुषों ने निर्वाण पाया तो अब अनंतकाल तक के लिए निष्कंप निश्चल अनंत आनंदमय परिणम रहे हैं और जिन बड़े-बड़े लोगों ने भी राजा-महाराजावों ने अपने भव को भोगविषयों में ही गमाया, संसार के सुखों में ही गमाया तो वे संसार में रुलते रहे ।
सहज ज्ञानानंदस्वरूप अंतस्तत्त्व के उपयोग में शांति का अनुभव―अच्छा और विशेष नहीं तो यहाँ ही यह निर्णय कर लो कि मैं अपना ज्ञान किस पदार्थ में जोडूं कि मुझको शांति मिले ? इसकी ही परीक्षा करलो । बाह्य पदार्थों में परिग्रह में, कुटुंब में यदि उपयोग जोडूं और जोड़ता ही रहूं तो उसके फल में क्या बीती अब तक ? इसे तो खुद समझ सकते हैं । कभी शांति मिली क्या ? कल्पना से भले ही कुछ से कुछ सोचते रहें, मगर इससे यह उपयोग अपने ठिकाने में जम नहीं सकता । और इस उपयोग को किसी बाह्य पदार्थ में न जोड़ें, अपने आपके स्वरूप में जोड़ें, मैं आत्मा हूँ, अमूर्त हूँ, ज्ञानस्वरूप हूँ, ज्ञान का परिणमन यह ही मेरा व्यवसाय है और उस ज्ञान के परिणमन में जो आनंद-लाभ है वही मेरा उपभोग है । मेरी दुनिया उतनी ही है जितना कि मेरा स्वरूप है । मेरे स्वरूप से बाहर मेरा परमाणुमात्र भी नहीं है, सब कुछ यह मैं हूँ और पूरा हूँ । मेरा अस्तित्व अधूरा तो नहीं है, जो हूँ सो पूरा हूँ,अपने स्वभावमात्र हूँ, मेरा मैं ही हूँ, मेरा अन्य कहीं भी कुछ नहीं है ꠰ इसलिए मैं अपने उपयोग को अपने में ही रमाकर संतुष्ट रहूंगा, ऐसा कोई यदि प्रयत्न करता है तो वह शांति का अनुभव करता है । मतलब यह है कि बाह्य पदार्थों में दौड़ लगाना, तृष्णा बढ़ाना यह अशांति का ही कारण है, हाँं पुण्ययोग से जितना जो कुछ उदय में है, मिलता है वह आपके थोड़े पौरुष से मिल जाता है । क्या वजह है कि एक लकड़हारा, घसियारा दिनभर बहुत-बहुत श्रम करके भी अपने पेट भरने लायक भी नहीं कमा पाता और कितने ही लोग आराम में रहकर धर्मध्यान में समय बिताकर गुरुसत्संग, भगवत्भक्ति, परोपकार की भावना, ऐसे शुभ वातावरण में रहकर साधारण से प्रयास से ही हजारों लाखों की आय बना लेते हैं । तो इसका कारण क्या है कि जैसा पूर्व में सुकृत किया, जैसी जिसकी पूर्व पुण्य-निधि है उसके अनुसार सब कुछ होता है । पुण्य पाप के अतिरिक्त कोई बात नहीं हो पाती संसार में तो फिर हम बाह्य पदार्थों में उपयोग रमाकर, तृष्णा बनाकर क्यों यह दुर्लभ मानव जीवन व्यर्थ खोयें? अपने आप पर कुछ दया होनी चाहिए ।
इंद्रिय और मन के विषयों की रुचि में आत्मवैभव का विघात―विपरीत अभिप्राय दूर हों उसे कहते हैं सम्यग्दर्शन । जो सम्यग्दर्शन से शुद्ध है वह पुरुष शुद्ध है, साफ है, मोक्षमार्ग गमन करने वाला है, वह निर्वाण को प्राप्त हो लेगा । निर्वाण के मायने क्या ? मोक्ष के मायने यह है कि आत्मा जितना है, अपने आप जैसा है, जो है वही मात्र रहे, दूसरा कोई लाग-लपेट न रहे, देह-संपर्क न रहे, कर्म-संबंध न रहे, विकार-विभाव-तरंग न रहे, स्वयं अकेला रहकर जैसा रह सकता है वैसा रह जाये उसे कहते हैं सिद्ध भगवान । अब ऐसी स्थिति तो अपने आत्मा के लिए सहज है । एक उद्दंडता छोड़ने भर की जरूरत है । उद्दंडता क्या कि अन्य पदार्थों में अपना योग जुटाना, उपयोग जोड़ना, लगाव लखना और उससे अपना महत्त्व मानना यह बहुत बड़ा पाप है । लोक में यश की इच्छा करना, कीर्ति की भावना अभिलाषा रखना, यह इतना बड़ा अंधकार है कि जिसमें रहकर यह जीव कभी भी शांति नहीं पा सकता । मानो कुछ लोगों ने अच्छा कह दिया, थोड़े बहुत लोग परिचय में आ गए और यह उनकी ओर आसक्त हो गया, आकर्षित हो गया तो यह अपने आत्मा की ओर कैसे मुड़ेगा ? बड़ा गोरखधंधा है । यश में महत्त्व मानता है यह जीव, और उसका जाल ऐसा कठिन है कि वह कभी परमात्मस्वरूप के स्मरण के भी काबिल नहीं रहता । अब उसके लिए तो जनसमूह भगवान बन गया, ये लोग मेरी तारीफ कर दें, ये मेरी महिमा गा दें, मेरी प्रतिष्ठा बढ़ा दें, तो मैं महान हूँ, अपनी महत्ता को भूल गया । हे आत्मन्! तू अपने आप महान है, तू अपने स्वरूप से ही महान है । कैसा तेरा ज्ञानस्वभाव कि जो जाने बिना रहे ही नहीं, और कितना जाना ? जगत् में जितने सत् हैं उन सबको जाना, यह कला तेरे में अपूर्व है । अद्भुत विलक्षण पदार्थ है यह आत्मा और तेरे में स्वभाव में स्वयं सहज आनंद पड़ा हुआ है ।
कर्मजाल में अपने को न उलझा कर विविक्त एकत्वगत अंतस्तत्त्व में उपयुक्त होने का अनुरोध―भैया !आकुलता कहां है ? आकुलता है पर के लगाव में, पर के संपर्क में । तो तू परिश्रम भी करे, पर पदार्थों में उपयोग लगाने का और उसके फल में कष्ट भी पाये, ऐसा करने की क्या जरूरत ? और जो सहज अपने आपकी ओर आये, अपने में परिश्रम करे, यह बहुत सुगम बात है, इसमें परिश्रम भी कुछ नहीं, सहज बात है उसे करता नहीं ꠰ जितने भी कष्ट हैं वे सब बनाकर, परिश्रम कर कष्ट होते हैं, स्वयं अपने आप तो इस आत्मा में कोई कष्ट नहीं है । तो ऐसा अद्भुत सहज ज्ञानानंदस्वरूप अपने आत्मा को निरखें तो उसे कहते हैं सम्यग्दृष्टि । जो जीव सम्यक्त्व से सहित है वह शुद्ध है । सभी मनुष्यों में भावनायें उठती हैं, प्रोग्राम के भाव जगते हैं, मुझे जीवन में क्या करना चाहिए, यह करूंगा यह करूंगा, ये अनेक बातें चित्त में आती हैं, पर यह जानें कि जगत् में जो कुछ मिलता है, बिछुड़ता है, कैसी ही कुछ बात है, यहाँ कर्म प्रधानता है । जैसा उदय है उसके अनुसार बात बनती है किंतु अपने आप में शांति पाना, अपने को पवित्र बनाना, सही करना, निर्लेप होना, आनंद का अनुभव बनाना यह अपने पुरुषार्थ द्वारा साध्य है । दृष्टि मोड़ी, अपने को निरखा, यहाँ ही रम गया उसको शांति-ही-शांति है, यह कला है सम्यग्दर्शन की । सम्यक्त्व की पूजा भी करते हैं रत्नत्रय की पूजा में । सम्यक्त्व की जाप भी देते हैं । जाप में आखिरी तीन दाने ऊपर के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक᳭चारित्र के हैं, ऐसा मानकर नमस्कार करते हैं । तो जिस सम्यग्दर्शन की माला जपते, पूजा करते, कीर्ति गाते वह अपने में आये तो उसका कितना बड़ा प्रताप है ? सम्यक्त्व की दशा पाना हो तो ऐसा पौरुष बनाने का अभ्यास करना, रुचि करना, जितनी देर बने उतनी देर करना ।
सारहीन तत्त्वों की उपेक्षा कर समयसार में रुचि करने का अनुरोध―भैया ! ऐसा ध्यान बनाना कि जहाँ-जहां हम चित्त दिया करते हैं वे-वे सब पदार्थ मेरे को क्या लाभ देते हैं ? और मेरे साथ कब तक रहेंगे और मेरा उनसे संबंध क्या है ? ऐसी बातें विचारने से यह बात ध्यान में आयेगी कि मेरे आत्मा के लिए तो बाहरी प्रत्येक पदार्थ यहाँ तक कि इसमें लगा हुआ यह देह भी, सभी पदार्थ मेरे लिए बेकार हैं । ये सब मेरा कुछ काम नहीं कर सकते, मेरा उद्धार नहीं कर सकते । ये मेरे लिए सारहीन हैं, जब मेरे लिए सभी सारहीन हैं तो मैं उनमें क्यों उपयोग को गड़ाये रहूं और ऐसा ही ख्याल ध्यान निरंतर बनाये रहूं । वैभव को देखकर फूला-फूला फिरना, इतराना, अपने बाल-बच्चों को निरखकर अपने को महान समझना, जगत में यश कीर्ति देखकर अपने आपमें हर्ष मानना यह सब बड़ा अंधेरा है । ये जगत् के सारे बाहरी समागम, इनमें लगाव बनाना नियम से संसार का कारण है । तब क्या करना ? गुजारे के लिए रहना पड़ता है सबके बीच, प्रीति से बोलना भी पड़ता है तो वह सब ठीक है, करना पड़ता है गृहस्थी में मगर भीतर से यह अज्ञान न रहे कि ये ही मेरे सब कुछ हैं । यदि उनको ही अपना सर्वस्व समझ लिया तो उसके फल में अशांति ही मिलेगी, वहाँ शांति नहीं प्राप्त हो सकती । यदि ज्ञानबल है और त्याग सकते हैं और त्यागकर आत्मा के ध्यान में बढ़ सकते हैं तो यह तो और भी ऊ̐ची बात है, किंतु जब ऐसा नहीं बन पा रहा और यहाँ ही रहना पड़ रहा तो अपने भीतर ऐसा ज्ञान-प्रकाश तो बनाये रहें कि जिनके बीच हम रह रहे हैं ये मेरे नहीं हैं । अगर हों कुछ तो आप मानो । सही बात मानने की बात कही जा रही है । अगर कुछ भी आपके लिए ये समागम नहीं बन पाते हैं तो ऐसा मानने में फिर कष्ट क्यों माना जाता है ? क्यों नहीं ऐसा माना जा रहा कि मेरा परमाणुमात्र भी नहीं हैं ? मैं आत्मा एक हूँ, अकेला हूँ, सबसे निराला हूँ और अपने चिच्चमत्कारमात्र हूँ, स्वयं की ज्ञानदर्शन-वृत्तिरूप हूँ, और अपने स्वरूप के कारण परिपूर्ण हूँ, आनंदमय हूँ । मेरे को बाहरी पदार्थ एक भी साथ न हों तो भी मेरा कुछ बिगाड़ नहीं, बल्कि पवित्रता बढ़ती है । सो इतना तो गृहस्थी में रहकर करना ही चाहिए कि जो कुछ मिला है उसका सही ज्ञान रखें कि ये मेरे कुछ नहीं हैं, इनके संपर्क से मुझे कुछ लाभ नहीं, बल्कि कलंक है ꠰ हां गुजारे के लिए रह रहे हैं, पर मेरे आत्मा का तो मेरा आत्मा ही सर्वस्व है, दूसरा कुछ नहीं । जिन्होंने अब तक कुछ लाभ पाया है, निर्वाण पाया है उन्होंने अपने आत्मा का आश्रय लेकर पाया है, परपदार्थ का आश्रय लेकर नहीं पाया है । तो ऐसा अपने को समस्त परद्रव्यों से निराला अपने दर्शनज्ञानस्वरूप परिपूर्ण अपने को निरखा, यह पौरुष बने, यह अभ्यास चलता रहे तो इस दुर्लभ मानवजीवन की सफलता है अन्यथा तो जैसे अनेक भव पाये, जन्मे-मरे, संकट पाये, उसी सिलसिले में यह भी भव बीत जायेगा और आगे भी न चेत पायेंगे, तो यह भव एक चेतने का है, यहाँ विवेक करना है, मोह और राग की हठ को तोड़ना है और अपने स्वरूप की ओर आना है ।