वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 40
From जैनकोष
इय उवएसं सारं जरमरणहरं खु मण्णए जं तु ।
तं सम्मत्त भणियं समणाणं सावयाणं पि ꠰꠰40।।
आत्मानुभव की जन्ममरणविनाशकता―प्रकरण यह चल रहा है कि आत्मा के सहज शुद्ध चैतन्यस्वरूप में अपने आपकी प्रतीति करना, इस ही को जानना और यही जानते रहना अर्थात् रागद्वेष न आने देना यह रत्नत्रय है । और इस रत्नत्रयधर्म के प्रताप से भव्य आत्मा निर्वाण को प्राप्त होते हैं । सो यह सारभूत उपदेश जन्ममरण को हरने वाला है ꠰ हम आप पर सबसे बड़ी भारी विपत्ति जन्म और मरण की है । अब मरेंगे, उसके बाद जन्मेंगे, फिर मरेंगे, फिर जन्मेंगे । यह जन्म मरण का तांता तो लग रहा है, यह सबसे बड़ी कठिन समस्या है । सो इस समस्या का हल करने की बात जो मन में है नहीं और पंचेंद्रिय के विषयो में रत होने की धुन हो गई । मोह, रागद्वेष में रत होने की धुन हो गई, सो विवेकी पुरुष वह है जो ऐसा दुर्लभ मनुष्यजीवन का अवसर पाकर व्यर्थ न खोये । जो श्रावकजन हैं वे रह रहे हैं कुटुंब में, घर में, समाज में और सर्व प्रकार के आरंभ के कार्य भी करने पड़ रहे हैं, पर सत्य बात जानते रहें तब तो कल्याण है और सत्य बात ओझल हो जाये, केवल यहाँ के रागद्वेषों में ही रमते रहें तो इसमें आत्मा का अकल्याण है । बड़ा होने का यही फायदा उठाइये । आज श्रेष्ठ मनुष्यभव पाया, श्रेष्ठ कुल पाया, जैनधर्म का समागम पाया, जिनवाणी का उपदेश बांचने सुनने को मिलता है, ऐसा उत्तम अवसर पाया तो इसका लाभ यह है कि एक बार अपना प्रकाश तो पा ले कि वास्तव में हूँ क्या ?
नेत्र मिच जाने पर स्पष्ट अकिंचनता का एक दिग्दर्शन―राजा भोज के समय की एक घटना है कि वह एक रात अपने महल में पड़े-पड़े एक कविता बना रहे थे और उसी रात एक विद्वान् कवि जिसे बहुत दिनों से पुरस्कार न मिलने के कारण परिस्थिति ने चोरी करने के लिए मजबूर कर दिया था वह राजा के महल में ही चोरी करने आया । अचानक कोई ऐसी आहट हुई कि वह चोर उस राजा के पलंग के नीचे छिप गया । राजा उस समय कविता बना रहा था । कविता इस प्रकार थी―चेतोहरा युवतय: सुहृदोऽनुकूला:, सद्बांधवा: प्रणतिगर्मगिरश्च भृत्या: । गर्जंति दंतिनिवहास्तरलास्तुरंगा: । ये तीन चरण कविता के बन गए थे, चौथा चरण बनाने के लिये इन्हीं को वह राजा बार-बार दोहरा रहा था, चौथा चरण उससे बन नहीं रहा था । वह चोर नीचे से सुन रहा था, अब उससे न रहा गया सो पलंग के कुछ बाहर निकलकर वह चौथा चरण बोल उठा । चौथा चरण यह था―सम्मीलने नयनयोर्नहि किंचिदस्ति । इस चौथे चरण को उस चोर द्वारा सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ, मानो एक बहुत बड़ी निधि पा गया हो, पर वह इस आश्चर्य में डूब गया कि आखिर वह कौन है । यहाँ पहले राजा के बनाये हुए तीनों चरणों का अर्थ सुनो । राजा अपने वैभव का वर्णन करते हुए कह रहा था कि मेरे पास मेरे मन का हरण करने वाली ऐसी-ऐसी कलावती, रूपवती स्त्रियां हैं, मेरे ऐसे-ऐसे मन के अनुकूल चलने वाले मित्र हैं, मेरे ऐसे-ऐसे आज्ञाकारी विनयवान सेवक हैं, मेरे पशुशालावों में हस्ती गर्जना कर रहे हैं, घोड़े हींस रहे हैं । इत्यादि इस प्रकार से वह राजा अपने वैभव का वर्णन कर रहा था तो उस विद्वान् चोर ने नीचे से जो चौथा चरण बोला था, उसका अर्थ है कि दोनों नेत्र मिच जाने पर फिर यह कुछ नहीं है । तो राजा ने जब चोर के द्वारा वह चौथा चरण सुना तो उसके ज्ञान के नेत्र खुल गए और उस चोर को गले लगाया और बोल उठा―भाई ! तुम कौन हो ? अपना परिचय दो, तुमने तो आज हमारे ज्ञाननेत्र खोल दिए । मैं तो अभी तक अज्ञान के अंधेरे में भटकता हुआ बड़ा दुःखी रहा करता था, पर तुमने मुझे एक बहुत बड़ी चेतावनी दे दी । तुम मेरे बड़े मित्र हो । अब जरा अपना परिचय बताओ । तो वह चोर बोला―महाराज ! मैं चोर हूँ । अरे ! तुम चोर कैसे ? तुम तो एक अच्छे विद्वान् पुरुष हो । मुझे समझाओ कि तुम कैसे अपने की चोर बता रहे ? तो उस चोर ने अपनी सारी कहानी सुनायी । आखिर राजा ने उसे भारी पुरस्कार देकर विदा किया । तो यहाँ यह समझो कि जो कुछ मिला है ठीक है, उसकी व्यवस्था करें और उसके ज्ञातादृष्टा रहें, पर सच्चा ज्ञानप्रकाश चित्त में रक्खें कि मेरा परमाणुमात्र भी कुछ नहीं है । सत्य सत्य परिचय पाना यह जन्म-मरण का रोग नष्ट कर देता है । समाधितंत्र में बताया है कि जन्म-मरण पाने की तरकीब तो यह है कि इस शरीर को मानते जावो कि यह ही मैं हूँ, बस ये शरीर मिलते जायेंगे, और जन्ममरण से छुटकारा पाने की तरकीब यह है कि अपने को देह से निराला ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व अनुभव करो, इसी प्रकिया में चलते-चलते जन्म-मरण की परंपरा छूट जायेगी । आखिर भगवान् ही तो है यह आत्मा, यदि वह देह चाहता है तो खूब देह मिलते रहेंगे और यदि अपने आत्मस्वरूप को चाहता है तो इसको आत्मस्वरूप मिल जायेगा । सो यथार्थ परिचय के द्वारा सर्व पदार्थों से विरक्त होकर अपने स्वरूप के अभिमुख होना, आश्रय लेना यह जन्म जरा मरण को हरने वाला उपाय है ।
सम्यक्त्व की कल्याणाधारता―भैया ! धर्म का आधार सम्यक्त्व है, यदि सही मार्ग न दिखे तो कोई उस मार्ग पर गमन कैसे करे ? सम्यग्दर्शन में शांति का मार्ग दिख जाता है, फिर आगे व्रतादिक का पालन करते हुए, आत्मध्यान में बढ़ते हुए फिर यह मोक्षमार्ग में गमन भी करता है । सो यह सम्यक्त्व मुनियों के होता, श्रावक के भी होता और यहाँ ही क्या, चारों गतियों के जीवों में सम्यक्त्व हो सकता । सम्यग्दृष्टि नारकी भी होते । अब यहाँ के पुण्यवान् राजा आदिक जो पंचेंद्रिय के विषयों में आसक्त हैं और एक नरक का नारकी जो कि ज्ञानी सम्यग्दृष्टि है, इन दोनों का भीतरी अंतर तौलिये―एक मलिन बन रहा और एक पवित्र है , उसका फल भविष्य में मिलेगा । तिर्यंचों में भी सम्यग्दृष्टि होते हैं, कोई पशु कोई पक्षी सम्यक्त्व पा लेते हैं । उनकी भी दृष्टि आत्मसंतोष की रहती है और बाहरी समागमों से विरक्त रहते हैं । देवों में भी सम्यग्दृष्टि देव होते हैं, वे भी पाये हुए समागमों में मौज नहीं मानते । मनुष्यों में भी सम्यग्दृष्टि मनुष्य होते हैं और वे संयम भी धारण कर सकते हैं, बाकी तीन गतियों के जीव संयमी नहीं बन सकते, मनुष्य ही संयमी हो सकते हैं, तो ऐसा ऊंचा मनुष्यभव है । सो ऐसा अपने स्वभाव का आदर करना चाहिए और आत्मा में संतोष सहज होवे, ऐसा पौरुष करना चाहिए ।