वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 49
From जैनकोष
होऊण दिढचरित्तो दिढसम्मत्तेण भावियमईओ ।
झायंतो अप्पाणं परमपयं पावए जोई ꠰꠰49꠰।
सांसारिक पदों का संक्षिप्त विवरण―दृढ़ सम्यक्त्व से बुद्धि को पूरित करके, दृढ़ चारित्रवान होकर जो आत्मा का ध्यान करता है वह परम पद को प्राप्त होता है । इस जगत् में कोई-सा भी पद इस जीव के लिए शांतिकारक नहीं हैं । जीव का पद संसार में क्या है? तो सबसे प्रारंभ में तो निगोद पद जीव का है, ये संसारियों के पद बतला रहे, पदाधिकारी संसारियों की चर्चा कर रहे । सुनो ! सब से पहले इस जीव ने निगोद का पद पाया जहाँ एक श्वास में 18 बार जन्ममरण किया, जीव है एक ऐसा कि जो एक सेकेंड में करीब 22-23 बार जन्ममरण करता है । वह एकेंद्रिय जीव है, न कुछ जैसा उसके ज्ञान है । अच्छा उससे बड़ा षद मिला तो पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और हरी वनस्पति का पद मिला । सो यहाँ की भी दशा देख लो । जो चाहे इन्हें छेदता-भेदता है, और गृहस्थ मनुष्यों के काम तो अधिकतर ये पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति ही आ रहे हैं । ये सब एकेंद्रिय जीव हैं, इससे ऊंचे पद पर आया यह जीव तो दोइंद्रिय हुआ, और ऊ̐चा पद हुआ तो तीनइंद्रिय का ऊ̐चा पद मिल गया, फिर क्रम-क्रम से चारइंद्रिय, असैनी पंचेंद्रिय और सैनी पंचेंद्रिय के पद इसे प्राप्त हुए । तो यहाँ भी मानो तिर्यंच हुए, सिंह, हिरण, बैल, गधा, सूकर, भेड़, बकरी आदिक हुए तो इनकी भी दशा देख लो क्या हो रही है । कोई क्रूर हैं, कोई कायर हैं, कोई लद रहे हैं, कोई मारे-काटे जा रहे हैं । एक नरक पद है कि जिसमें सावधानी के अवसर तो बहुत हैं पर वहाँ भी कोई बिरला ही जीव चेत पाता है । देवपद भी है देवगति का जीव । अच्छा शरीर मिला वैक्रियक, खाने-पीने की कुछ चिंता नहीं, जैसा चाहे छोटा-बड़ा देह बनाया, और ऊंचे उठे तो मनुष्यपद मिला । मनुष्यों में भी कोई दरिद्र है, भिक्षुक है, किसी की कुछ इज्जत नहीं, कोई नीच माना जाता, कोई ऊंचा । मान लो कोई ऊ̐चा भी माना गया तो आज हम आप लोग संसार के सब पदों से ऊपर उठकर एक मनुष्यपद में आये ।
वर्तमान महती उपलब्धियों से अपनी वास्तविक उपलब्धि पाने में ही कल्याण―भैया ! अपनी उपलब्धियों को देखते जाइए, हम आप आज मनुष्यभव में हैं, उच्चकुल में हैं, उच्चकुल में जन्मे हैं, जैनदर्शन के सुयोग समागम में हैं । देखिये, कितने ऊ̐चे पद में आये हैं फिर भी इसकी जरा भी परवाह नहीं करते, जैनशासन का सुयोग मिलना यह बहुत ऊ̐चे भवितव्य की बात है, जहाँ स्पष्ट ज्ञान मिलता है कि जगत् के सर्व पदार्थ स्वतंत्र हैं । किसी की सत्ता किसी दूसरे ने नहीं बनायी है और इसी कारण एक जीव का दूसरा जीव कुछ नहीं लगता । मुझ आत्मा का मेरे आत्मा से बाहर परमाणुमात्र भी कुछ नहीं है, स्पष्ट ज्ञान मिलता है जिस ज्ञान के प्रताप से सारी आपत्तियों की जड़ जो मोह है वह खतम होता है । जगत् में लोग जीते हैं, तृष्णा और मोह में बढ़ रहे हैं, राज्य की तृष्णा, धन की तृष्णा, मान अपमान के प्रश्न, यों कितनी प्रकार की तृष्णावों में बढ़ रहे हैं, सो इसको जो कुछ इन आँखों से दिखता है उतने में ही यह खुश है । इसको अपने आत्मा का कोई ख्याल नहीं है कि मेरा अब आगे क्या हाल होगा । यह तो संसार है,कभी ऊ̐चा पद मिला, कभी गिरे फिर कभी उठे, इस तरह यहाँ का जो कुछ श्रेष्ठ समागम पाया उसको पाकर हर्ष मानना भला नहीं है । यहाँ जो कुछ भी प्राप्त समागम है वह मुझसे निराला है, एक दिन यह सब मुझसे छूट जायेगा । इसमें क्या विकल्प करना कि अरे ! इतने का टोटा हो गया, अरे ! वे सब बाहरी पदार्थ हैं, इस आत्मा से ये बिल्कुल भिन्न चीजें हैं । इन बाहरी पदार्थों में ममता करने का फल है संकट आना और जहाँ अपने आत्मस्वरूप पर दृष्टि गई तो फिर वहाँ कोई संकट नहीं रहता । किसी दूसरे का स्वामी तो मैं हूँ नहीं और जिम्मेदारी ले रहा हूँ बहुतों की, सो ये अटपट बातें निभती नहीं तब यह जीव दुःखी होता । तो महावीर भगवान के शासन में हम आप रह रहे हैं, उन्होंने सन्मार्ग बताया, संसार के संकटों से छूटने का उपाय बताया और उसके साथ ही साथ जब तक संसार में रुलना पड़ रहा है तब तक कैसे रहे इसकी विधि भी बतायी है, उन महावीर प्रभु का ऋण कौन चुका सकता है? केवल हम उनकी भक्ति करें, इतना ही मात्र उनका आभार मान पाते हैं, पर उनका हम पर कितना उपकार है उसका बदला हम नहीं चुका सकते ।
ज्ञानवैभव से सर्वत्र शांति का अभ्युदय―ज्ञान सबसे उत्तम वैभव है, संसार में रहना तो कैसे रहना? जैसे जल में भिन्न कमल है, कमल जल से ही तो पैदा हुआ, जल में ही रह रहा, जल में ही फूल रहा, जल से ही उसकी जिंदगी चल रही फिर भी वह जल से अलग ऊपर उठा हुआ रहता है, तभी तो यह इतना प्रफुल्लित हैं । यदि वह कमल जल से मोह करने लगे कि रे जल ! मैं तो तेरे से ही पैदा हुआ, तुम से ही मिलकर रहूंगा, यों यदि जल से मिलने आ जाये तो वह कमल सड़ जायेगा । ऐसे ही यह मनुष्य घर में ही तो पैदा हुआ और घर में रहकर ही यह अपनी जिंदगी निभा रहा । भोजन न मिले तो कैसे जिंदगी चले? सब कुछ घर में चल रहा, मगर जो विवेकी मनुष्य हैं वे घर से अलग अपनी साधना बनाये हुए हैं अपने उपयोग में । अगर यह मनुष्य अपनी अज्ञानभरी कृतज्ञता जाहिर करने लगे कि हे कुटुंब ! तुमने मुझे पैदा किया, तुम मुझे जिंदगी से ठीक रखते हो, मैं तो तुम से मिलकर चिपककर, तुममें रमकर ही रहूंगा, तो वह मनुष्य सड़ जायेगा अर्थात् बरबाद हो जायेगा । जो मनुष्य जल से भिन्न कमल की नाई रहकर अपना जीवन बिताता है उसका जीवन सुखी शांत रहता है । जीवन को सुखी शांत रखने का कोई दूसरा उपाय नहीं । जो परिग्रह में तृष्णा करेगा उसे कष्ट-ही-कष्ट भोगना पड़ेगा, शांति मिल नहीं सकती और तिस पर भी अंत में सारा का सारा छोड़कर जाना पड़ेगा ꠰ तो “निज को निज पर को पर जान, फिर दुःख का नहिं लेश निदान ।”
सम्यग्दर्शन व सम्यक्चारित्र के तंत्र द्वारा सर्व संकटों से मुक्ति―प्रभु ने संसार के संकटों से बचने के दो मूल उपाय बताये हैं । (1) सम्यग्दर्शन और (2) सम्यक्चारित्र ꠰ सम्यक᳭चारित्र तो धर्म है और सम्यग्दर्शन धर्म की जड़ है । जैसे नींव और मकान, ऐसे ही सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र । सम्यग्दर्शन में मार्ग दिख जाता है कि हमको यह करना है, ऐसे ही आत्मा के अभिमुख रहना है, आत्मा में मग्न होना है, उसकी एक झलक भी आयेगी पर वह झलक स्थिर बनेगी सम्यक्चारित्र से । गृहस्थ एकदेश चारित्र से चलता है, मुनि सर्वदेश चारित्र से चलता है, मगर चारित्र है धर्म और सम्यग्दर्शन है धर्म का मूल । तो सम्यक्त्वभाव पाने के लिए क्या पौरुष करना? क्या इस जीवन को व्यर्थ की गप्पों में ही बिता देना योग्य है? अरे ! जीवन तो बीतेगा ही, मरण तो नियम से होगा । अब चाहे गप्पसप्प में समय गुजार दो, चाहे धर्मभावना में, यह तुम्हारे हाथ बात है । गप्पसप्प में समय बिताने से, बाहरी घटनाओं को देखकर हर्ष-विषाद करते रहने में ही यदि यह जीवन गमा दिया तो फिर मरण के बाद क्या स्थिति होगी सो तो विचार लो, संसार की नाना दुर्गतियों में जन्ममरण करना पड़ेगा । और ज्ञानभावना में यदि समय गुजार दिया, मैं ज्ञानमात्र हूँ, सबसे निराला हूँ, अविकार स्वभावी हूँ, स्वयं आनंदमय हूँ ऐसे केवल अपने को देखिये तो कोई कष्ट का काम नहीं, जब मैं अपने कुल की बात से हटकर नीचता में आता हूँ तो मेरे को कष्ट होता । मेरे कुल की बात क्या है? ज्ञातादृष्टा रहना, मात्र ज्ञानस्वरूप अपने को अनुभवना, यह है अपने चैतन्य-कुल की बात, और इस कुलीनता से हटकर जहाँ बाहरी परिग्रहों में यह मेरा है ऐसा अनुभव बनाया तो वहाँ कष्ट मिलेगा । यहाँ भी कोई पुरुष यदि किसी के घर पर एक जबरदस्ती सी करे कि यह तो मेरा है, तो बताओ, लोक में वह पागल-सा माना जाता कि नहीं? जिस पर अपना अधिकार नहीं उस पर यह अधिकार बनाता है । तो यहाँ स्वरूप में भी तो देखो, अधिकार नहीं मेरा जगत् में परमाणुमात्र भी किसी पर, मगर यह अधिकार मानता है कि यह मेरा है तो क्या इसे पागल न कहा जायेगा? कहा तो जायेगा मगर जहाँ सब ही ऐसे पागल हैं वहाँ पागल कहने कौन आयेगा? पर यह पागलपने से कम बात नहीं है कि अपने आत्मस्वरूप को छोड़कर अन्य पदार्थों में अनुभव बनाना कि यह मेरा है, इसे पागलपन कहो, ओछाई कहो, नीच घटना में आ गया यह कहो । कुछ भी कह लीजिए यह आत्मा के अयोग्य बात है ।
मोहपाप को हटाने के प्रयास में गृहस्थों के व्यवहारधर्म की उपयोगिता का संकेत―जो इस मोहपाप को हटाना चाहते हैं और मोह के संस्कार में अनादि से पले आये हैं सो एकदम ये हटते नहीं, इनसे राग छूटता नहीं, तो वे अपना चित्त कुछ तो बदलें कभी, इसीलिए श्रावकों को बताया कि वे रोज-रोज भगवान के दर्शन करें, पूजन करें, कुछ समय ग्रंथों का स्वाध्याय करें, गुरुजन मिलें तो उनकी सेवा में, संग में थोड़ा समय बितायें, अपनी शक्ति के अनुसार प्राणसंयम व इंद्रियसंयम दोनों प्रकार का संयम पालें । ऐसा अपना खानपान रखें कि जिसमें किन्हीं दूसरे जीवों की विराधना न हो और नहीं तो इतना तो कम-से-कम ध्यान रखा ही जाये कि दो इंद्रिय आदिक त्रस जीवों का जिसमें घात होता हो उन चीजों को न खायें । विषयों की प्रीति करने में लाभ नहीं है, प्रीति भी बने तो आसक्ति तो न होनी चाहिए । जैसे रात्रि में खाना-पीना यह कोई जरूरी है क्या? मगर आज यह विषय गौण हो गया है, क्योंकि प्राय: करके सबको असंयम ही प्रिय है । मगर जैनशासन में रात्रिभोजन का सर्वथा निषेध है । रात्रिभोजन में साक्षात् मांसभक्षण का दोष है । बाजार की सड़ी-गली चीजें जैसे दही, जलेबी आदि ये सब अभक्ष्य पदार्थ त्याग देने चाहिए । गोभी के फूल में तो साक्षात् मांस भक्षण का दोष है, वह तो छूने योग्य भी नहीं होता । उसके अंदर छोटे-बड़े कितने ही कीड़े होते हैं, और फिर स्वाद की दृष्टि से देखो तो उस गोभी के फूल में स्वयं कुछ स्वाद नहीं होता, ऐसा हमने मालूम किया है गोभी का फूल खाने वाले लोगों से । उसमें पकाया जाने पर जो स्वाद होता वह तो तेल मसाले का होता, तो गोभी का फूल तो बहुत ही अभक्ष्य चीज है, विवेकीजनों को उसका त्याग कर देना चाहिए । अंडा, मांस मच्छी, शराब वगैरह गंदी चीजों के त्याग की तो बात कहना ही क्या, वे तो सभी पुरुष मात्र को त्याग ही देने चाहिए । इनमें तो साक्षात् त्रसजीवों का घात होता है, तो इस प्रकार से हिंसात्मक कार्यों से बचना श्रावक का मुख्य काम है । दूसरी बात है किसी से झूठ न बोलना, हमेशा हितमित प्रिय वचन-व्यवहार होना । इससे आत्मा को बहुत बड़ा बल मिलेगा, परवस्तुओं को तृण समान जानकर उन्हें न अपनाना, उन पर अपना मन न बहलाना, किसी का धन छीनने का या न्याय-अन्याय कुछ न गिनकर दूसरों का धन हड़पने का भाव न आना, न्याय-नीति से चलकर उदय के अनुसार जो कुछ प्राप्त हो उसी में गुजारा करना, इसके लिए जीवन है, धनसंचय के लिए जीवन नहीं है । जो परिग्रह की असारता समझ लेता है उसके धर्म में गति चलती है । परस्त्री का सेवन याने कुशील पाप की बात मन में न आये, अपने आपमें तृप्त रहें, गृहस्थ हैं तो स्वस्त्री किसलिए है कि परस्त्रियों पर बुरी दृष्टि न जाये, एक अपनी स्त्री में ही संतुष्ट रहें, और भी ऊ̐चा भाव बढ़े तो अधिकाधिक ब्रह्मचर्य से रहें, और भी ऊ̐चे भाव बढ़े तो पूर्ण ब्रह्मचर्य से रहें । परिग्रह की तृष्णा का त्याग करें । सदाचार से पवित्रता बढ़ायें और आत्मा में मग्न होने का पौरुष करें ।
सुलभ परिग्रह में गुजारा करके धर्मपालन के प्रोग्राम की मुख्यता से जीवन की सफलता―परिग्रह के संबंध में बताया कि न्यायनीति से एक साधारण प्रयास से जो आये उसमें ही अपना गुजारा करना, मगर परिग्रह में तृष्णा करके, उस परिग्रह के जोड़ने के लिए रात-दिन श्रम करना, कल्पनायें बढ़ाना यह तत्काल भी इस जीव का अहितकर रहा है और उसके फल में बाद में भी कुछ लाभ नहीं मिलता । पुण्य की सीमा से बाहर किसी को न प्राप्त होता नहीं इसलिए बाह्य परिग्रहों में यह ही बुद्धि रखना कि गृहस्थी में रहकर कर्तव्य तो है धनार्जन का, मगर उसके छल पर हमारा अधिकार नहीं है । जो पुण्य-विपाकवश आये उसी में ही हम गुजारा कर लेंगे, यह कला अपने में आनी चाहिए ꠰ जैसे मुसलमान भाई कहते हैं कि खुदा को जो मंजूर है उसी में गुजारा करने में हम खुश हैं, तो यहाँ क्यों नहीं यह भाव रखते कि पुण्यविपाक में जो कुछ मिलता है उसी में गुजारा करके प्रसन्न रहें और धर्मपालन में बढ़े । जो मिले उसमें हमें कोई हिसाब नहीं लगाना कि हमें इतना ही धन क्यों मिला, इनको तो इतना धन मिला, हमें क्यों न इतना अधिक धन मिला? अरे ! ऐसा हिसाब लगाना योग्य नहीं । अपने में तो एक ऐसी कला आनी चाहिए कि उदय के अनुसार जो कुछ प्राप्त हों उसी में अपना गुजारा चलायें और संतुष्ट रहें । अपने आत्मा का जो कर्तव्य है सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र उसके लिए अपने अधिकाधिक जीवन के क्षण बितायें, बाहरी पदार्थों के संचय करने की बात मन में न लायें । प्रभु ने ये दो तंत्र बतायें हैं जीवों के कल्याण के लिए―(1) सम्यग्दर्शन और (2) सम्यक्चारित्र । और इन दोनों में जिसका परिणमन हुआ, विकास हुआ उसके आश्रय से ही ये गुणस्थान बनते हैं । तो एक बात चित्त में लावें कि मुझे ज्ञान संपादन करना है । यह ज्ञान ही मेरे साथ जायेगा, चाहे इस रूप में साथ न जाये, पर क्षयोपशम और संस्कार के रूप में यह ज्ञानधन तो साथ जायेगा, बाकी कोई भौतिक पदार्थ मेरे साथ नहीं जा सकता । तब मेरा मैं ही हूँ, मेरे साथ मेरे कुटुंब के लोग भी नहीं जाते, मेरे कल्पनाओं के दुःख में कुटुंब के लोग भी शामिल नहीं हो सकते तो अन्य विकल्प अधिक क्यों करूं । जो होता होगा वह पुण्योदय से हो जायेगा ।
सांसारिक कार्यों में तकदीर की तदवीर से अधिक मुख्यता का दृष्टांतपूर्वक समर्थन―कहते हैं ना तकदीर और तदबीर, इन दो का जोड़ा है । बताओ, तकदीर बड़ी है कि तदबीर? इस प्रश्न पर दो पुरुषों में विवाद बढ़ गया, एक कह रहा था कि तकदीर बड़ी है और एक कह रहा था कि तदबीर बड़ी है । आखिर उन दोनों में इतना विवाद बढ़ गया कि उसका फैसला करने के लिए न्यायालय जाना पड़ा । तो न्याय करने के लिए राजा ने क्या उपाय किया कि उन दोनों पुरुषों को एक बड़े कमरे में बंद कर दिया और क्या किया था कि उस कमरे में किसी ऊपर के किसी अलमारी के खाने में दो बड़े-बड़े लड्डू छिपाकर रख दिया था । और दो दिन तक उनको उस कमरे के अंदर बंद रखा । अब उन दोनों पुरुषों में जो तकदीरवादी (भाग्यवादी) था वह तो आराम से बैठा रहा, कोई प्रकार का प्रयत्न न किया और तदवीरवादी (पुरुषार्थवादी) ने इधर-उधर टटोलना शुरु किया । ढूंढते-ढूंढते उसके हाथ दो बड़े लड्डू लगे, वह बड़ा खुश हुआ । आखिर दो दिन के भूखे थे, लड्डू पाकर वह फूला न समाया, खूब छककर खाया और दूसरे को भी खिलाया । आखिर अपने पास कोई भूखा बैठा हो तो कैसे अकेले खाया जा सके? सो खुद भी खाया और दूसरे को भी खिलाया, साथ ही यह भी कहा कि देख लिया ना तकदीर बड़ी है कि तदबीर । तुम तकदीर के भरोसे बैठे रहते तो भूखों मर जाते, हमने तदबीर किया याने पुरुषार्थ किया तो दो लड्डू पाया जिससे हम तुम दोनों ने अपनी-अपनी भूख मिटायी, तो तदबीर बड़ी हुई ना? तो वह दूसरा पुरुष बोला―भाई ! ऐसी बात नहीं है । तुम को तो भूख मिटाने के लिए तदबीर करनी पड़ी, मेहनत करनी पड़ी पर हमारी तकदीर अच्छी है कि बिना किस प्रयास के ही हमको लड्डू खाने को मिले तो इसे में तो हमारी तकदीर ही बड़ी कहलायी ना, क्योंकि हमें कोई तदवीर ही नहीं करनी पड़ी । तो भाई ! यह समझो कि ये सांसारिक समागम सब भाग्य प्रधान हैं? हाँं मोक्षमार्ग में प्रधानता पुरुषार्थ की है । अगर संसार के परिग्रह के लिए हम परिश्रम को ही पूरा साधन समझ लें तो फिर तृष्णा कर करके जिंदगी गुजर जायेगी, कभी शांति नहीं मिल सकती । तो सर्व प्रकार का उपदेश हमको प्रभु ने दिया । कर्मसिद्धांत, आत्मसिद्धांत, संसार में जन्म-मरण करते रहने की विधि, मोक्षमार्ग की विधि, इन सबका वर्णन किया है ।
हितकारी जैनशासन को प्राप्त कर संसारचक्र से हटने का निर्णय कर शांतिस्वधाम अंतस्तत्त्व के अभिमुख रहने का संदेश―हम आप जैनशासन में आये हैं तो कुछ तो अपने पर दया करें और एक निर्णय बनायें कि मुझे तो ज्ञानसंपादन करके रहना है । मरण हो तो यह ज्ञानसंस्कार साथ जायेगा । इससे बच्चे लोग पढ़ें, बड़े लोग स्वाध्याय करें, सुबह साम तत्त्वचर्चा, ज्ञानध्यान, शास्त्रोपदेश-श्रवण आदि करके अपने को विशेष-विशेष ज्ञानार्जन का लाभ लेना चाहिए । खूब अध्ययन करके, स्वाध्याय करके, मंदिर में पूजा पाठ विधान आदि करके यदि अपने लिए कुछ लाभ न उठाया तो उससे फायदा क्या? जैसे कोई अपने बाप की बड़ी सेवा करे, नमस्कार करे, भक्ति करे, उसके गुण खूब बखाने, पर उसका कहना बिल्कुल न माने तो उसकी वह वास्तविक भक्ति न कहलायेगी, भक्ति तो वास्तव में तब है जबकि वह अपने पिता की आज्ञा माने ꠰ ऐसे ही समझिये कि हमारे अलौकिक पिता है अरहंतदेव । अब उनके हम बड़े-बड़े गुण गायें, रोज-रोज उनकी पूजा करें पर उनका कहना न मानें, उनकी आज्ञा का पालन न करें या उनके उपदेशों के अनुसार न चलें तो यह उनकी वास्तविक भक्ति न कहलायेगी । तो अरहंतदेव ने हम आपके कल्याण के लिए जो उपदेश किया है उसको सुनें, समझें, उसका ज्ञान करें, उस पर अमल करें और अपना यह दुर्लभ मानव-जीवन सफल करें ।