वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 51
From जैनकोष
जह फलिहमणि विसुद्धो परदव्वजुदो हवेह अण्णं सो ।
तह रागादिविजुत्तो जीवो हवदि हु अणण्णविहो ꠰꠰51।।
आत्मस्वरूप का अविकारस्वभाव ज्ञायकत्व―जैसे स्फटिक मणि निर्मल है, आर-पार दिखने वाली है, विशुद्ध है किंतु पर द्रव्य के संपर्क से युक्त होकर वही अन्य रूप परिणम जाती है । जैसे स्फटिक मणि के पीछे हरा, लाल जैसा भी कागज लगा हो वैसे प्रतिबिंबरूप हो जाती है, इस विषय में कुछ लोगों की कल्पना होती है कि मात्र दिखता ही है रंग उसमें, पर उस रूप परिणमा नहीं । जैसे दर्पण का दृष्टांत ले लो, ऐना के सामने कोई वस्तु रखी हो तो उस वस्तु का प्रतिबिंब होता है, तो वहाँ कोई यह कहे कि केवल वैसा दिख रहा है, परिणमन नहीं हो रहा सो यह बात नहीं है, परिणम रहा है, अशुद्धनिश्चयनय से परिणमन झलकरूप, प्रतिबिंबरूप, फोटोरूप उस दर्पण का है, निमित्तभूत उस वस्तु का नहीं है, किंतु वह परिणमन चूंकि नैमित्तिक है, निमित्त हटाया, परिणमन नहीं रहा, सामने हाथ आया, हाथ की झलक आ गई, हाथ अलग हुआ, झलक मिट गई, चूंकि ऐसा अन्वय-व्यतिरेक संबंध है कि हाथ के सामने होने पर ही वह हाथरूप झलक रहा, हाथ के अभाव में वह हाथरूप झलक नहीं है, सो जल्दी यह मालूम पड़ जाता है कि स्वभाव में विकार नहीं, झलका नहीं, किंतु परद्रव्य के संपर्क से युक्त होकर झलका है, निमित्त-नैमित्तिकभाव कभी खंडित नहीं है, वैसा होता ही है और उस समय भी वस्तुस्वरूप खंडित नहीं है । प्रत्येक वस्तु अपनी परिणति से ही परिणम रही है । तो वस्तुस्वरूप और निमित्त-नैमित्तिक भाव, दोनों ही बातें, अविरुद्ध रूप से एक घटना में मौजूद हैं ।
आत्मा में विकार की परसंपर्कजता―यहाँं इस ओर दृष्टि दिला रहे हैं कि जैसे स्फटिकमणि स्वयं अपनी ओर से स्वभावत: निर्मल है, उसमें रंग लपेट नहीं है, पर परद्रव्य के संपर्क से युक्त होकर वह अन्यरूप परिणम गया अर्थात् स्वच्छता को छोड़कर उस विकार, फोटो, अक्स रूप परिणम गया । इस समय स्वच्छता शक्ति में है, पर उसका तिरस्कार है, इसे कहते हैं तिरोभाव । आविर्भाव फोटो का है, ऐसे ही यह जीव अपनी सत्ता की ओर से, अपने आपके स्वरूप की ओर से तो अविकार है, स्वयं स्वभावत: इसमें विकार नहीं है, न विकार करने का इसका माद्दा है, स्वभाव है किंतु परद्रव्य कर्म से युक्त होता हुआ जैसा कर्म में विपाक चलता है, उदय चलता है उसके अनुरूप यहाँ आत्मा में फोटो आया, अक्स आया, प्रतिफलन हुआ और उस काल में इसकी स्वच्छता का, इसके ज्ञायकस्वरूप का तिरोभाव हुआ और उस रागादि विकार मलिनता का आविर्भाव हुआ, वहाँ यह विवेक करना है कि जो विकार आया है सो वह मैं नहीं, वह मेरा स्वरूप नहीं, वह मेरे स्वभाव से नहीं आया, मैं तो अविकार ज्ञानस्वरूप हूँ । वस्तु के स्वभाव की ओर दृष्टि कराने के लिए निमित्त-नैमित्तिक भाव का वर्णन किया है, सो यहाँ यह बात निरखिये कि मेरे में जो गड़बड़ी है, विकल्प है वह सब पुद्गलकर्म का निमित्त पाकर हुई है, अतएव मेरा स्वरूप नहीं है, मेरा स्वभाव नहीं है । मेरा वैभव तो वह है जो मेरे में मेरे अपने आपमें होवे । जो परापेक्ष है वह मेरा वैभव नहीं, मेरा स्वरूप नहीं, परापेक्ष होने पर भी यद्यपि परिणमन जीव का जीव में है, वह कहीं कर्म से नहीं आया मगर कर्म के अभाव में यदि विकार होने लगे तो विकार सदा रहेंगे, स्वभाव बन जायेंगे, सो वहाँ यह निरखना कि मैं रागादिक से रहित हूँ, स्वरूप को देखकर चिंतन करना है, पर परद्रव्य के संपर्क में यह मैं अन्य प्रकार हो गया हूँ । जैसे―किसी कुलीन घर का लड़का, ऊंचे घराने का, उत्तम आदत का, बढ़िया बोलने वाला, आज्ञाकारी सबका आदर करने वाला, और लड़के को कोई कुसंग मिल जाये और वह व्यसनी बन जाये, पापाचरण करने लगे, उद्दंड हो जाये तो उसके माता-पिता यही कहते कि मेरा लड़का ऐसा नहीं है, यह आदत तो इस दूसरे खोटे लड़के से आयी है, तो ऐसे ही ज्ञानी पुरुष निरखता है कि मेरे में जो रागादिक विकार जगे हैं सो वह कर्म-कलंक का स्वभाव है, मेरे में विकार करने का स्वभाव नहीं है । सो भेद-विज्ञान के बल से कल्याण चाहने वाले पुरुषों को अपने स्वरूप के निकट उपयोग ले जाना चाहिए ।