वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 52
From जैनकोष
देवगुरुम्मि य भत्तो साहम्मियसंजदेसु अणुरत्तो ।
सम्मत्तमुव्वहतो झाणरओ होइ जोई सो ꠰꠰52꠰।
योगीजनों की देव, गुरु, भक्ति व साधु संयमी में अनुराग―योगी पुरुष कैसा होता है इसका दिग्दर्शन इस गाथा में किया है । जो देव के भक्त है, रागादिक दोषरहित अनंतज्ञानादिक से संपन्न ऐसा जो परमात्मस्वरूप है उसमें भक्ति करने वाला जीव का आदर्श है देव । जैसे किसी को संगीत सीखना है तो संगीत सीखने वाला किसी लोक प्रसिद्ध संगीतज्ञ के प्रति ध्यान रखता है कि मुझको तो ऐसा बनना है । जैसा हम को बनना है उस ओर दृष्टि होना यह कहलाती है देव की भक्ति । हमको क्या होना है? तो कर्म से मुक्त, केवलं स्वयं ही स्वयं आत्मस्वरूप रहे, ऐसी स्थिति पाना है । वह स्थिति है भगवान की । सो वह भगवान आदर्श है और योगी गुरु में भक्त होता है । प्रत्येक मनुष्य का कोई न कोई गुरु होता है । किसी को भी अपना हितकारी मार्गदर्शक समझकर उस पर विश्वास रखता है । तो कैसा गुरु हो? जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक᳭चारित्र से युक्त हो । ऐसे गुरु में वह अनुरागी है और साधर्मीजनों में, संयमीजनों में वात्सल्यभाव रखने वाला है । जिसको साधर्मियों से द्वेष करने की आदत पड़ी हो, दोष निरखने की आदत हो वह योगी का लक्षण नहीं है । ऐसा वात्सल्यभाव जगता है योगी को कि जिससे यह प्रकट होता कि जिस तत्त्व को हम चाहते हैं वह तत्त्व जहाँ-जहां है वहाँ-वहाँं उसको विश्वास होता है और प्रेम उमड़ता है । तो योगी पुरुष देवभक्ति, गुरुभक्ति और साधर्मी संयमीजनों में अनुरागी होता है, तो वह सम्यक् को निर्मल करता हुआ ध्यान में रत होता है ।
सम्यग्दृष्टि का सम्यक् अष्टांग प्रवर्तन―सम्यग्दर्शन के जो 8 अंग कहे उनका व्यावहारिक ढंग भी जहाँ नहीं है वहाँ अन्य आशा कैसे की जा सकती है? जिनेंद्र देव के वचनों में शंका न होना, धर्म धारण करके सांसारिक सुखों की आशा न रखते हुए किन्हीं साधु संतों को निरखकर उनसे ग्लानि न करते हुए उनकी सेवा में उमंग रखना, ये सब सम्यग्दृष्टि के लक्षण हैं जिन्हें देखकर हम को अनुमान बनता है कि यहाँ सम्यक्त्व है । जो किन्हीं कुगुरुवों के द्वारा कोई चमत्कार दिखाया जाने पर भी मोहित नहीं होता है और रत्नत्रयरूप धर्म को ही मोक्षमार्ग मानता है । यह सम्यग्दृष्टि दूसरे में कोई दोष हो साधर्मीजनों में तो उनको तो वह छुपाता है, याने लोगों में, समाज में उनको प्रकट नहीं करता । उसका कारण क्या कि प्रकट करने से लोगों की श्रद्धा धर्म से उठ जायेगी । जब ऐसे बड़े ज्ञानी धर्मात्मा पुरुष भी ऐसे रहा करते हैं तो धर्म-वर्म कुछ चीज नहीं, वह तो केवल कहने भर की बात है, इस प्रकार की श्रद्धा लोगों में न जगे इसके लिए सम्यग्दृष्टि का उपगूहन अंग होता है, पर साथ ही जिसमें दोष हो उसे संबोधन करने का, उसे सन्मार्ग में लगाने का प्रयास करते हैं । तथा वह अपने गुणों में बढ़ता है, सम्यग्दृष्टि के लक्षण बता रहे हैं । बाहर से हम कैसे समझें कि इनके भीतर ज्ञानप्रकाश जगा है? कोई पुरुष धर्म से चिग रहा हो तो उसे तन से सेवा करके, मन से उसके सभी उपचार करके, शरीर से सेवा करके और भी जो कुछ साधन जुट सकते हों उनको जुटा करके धर्म में स्थिर कराते हैं । ये सब बाह्य लक्षण बता रहे हैं, जिस सम्यग्दृष्टि में ये बाह्य लक्षण भी प्रकट न हो रहे हों तो उससे अंतरंग लक्षण की बात कैसे जानी जा सकती है? ज्ञानी सम्यग्द्दष्टि पुरुष को साधर्मीजनों में निष्कपट वात्सल्य होता है और उस निष्कपट वात्सल्य की उपमा दी है गाय बछड़े की । जैसे गाय को बछड़े से प्रीति है मगर उस बछड़े से गाय कोई आशा रखती है क्या अपने सुख की? कहीं गाय को यह आशा है क्या कि मेरा बछड़ा मुझे घास लाकर खिलायेगा, मेरी सेवा करेगा? अरे ! सेवा करने की बात तो दूर जाने दो, वह तो बड़ा होने पर सींगों से मार-मारकर भगायेगा, मगर गाय को कैसी उस बछड़े पर प्रीति है कि यदि बछड़ा नदी में गिर जाये तो वह गाय भी नदी में गिर जाये, तो जैसे गाय को अपने बछड़े से निष्कपट प्रीति है इसी प्रकार साधर्मीजनों का सम्यग्दृष्टि साधर्मीजनों में निष्कपट वात्सल्य होता है । ज्ञानी पुरुष दूसरे के दोषों को नहीं निरखते, दोषमय तो संसार है ही, उन दोषों से अलग होकर गुणों की आराधना में लग रहा है सो उसको साधर्मीजनों में गुण ही दिखेंगे, और वात्सल्य बढ़ेगा, दोषदृष्टि न करेगा और अपने आचरण से, अपने ज्ञानप्रकाश से ज्ञान की प्रभावना करना, ये सम्यग्दृष्टि के बाह्य लक्षण है ।
सम्यग्दृष्टि के अंतरंग का परिचय―सम्यग्दृष्टि पुरुष अंतर में क्या कर रहा है? अपने स्वरूप को निरखकर निःशंक रह रहा है अब उसे कोई भय नहीं सताता । अपने आपको कष्टरहित ज्ञानमात्र परिपूर्ण निरखकर एक संतोष होता है कि मेरे को कुछ करने को है ही नहीं बाहर । और मैं परिपूर्ण हूँ, अधूरा होता ही नहीं, फिर करने का विकल्प क्यों करना, ज्ञानी पुरुष अपने स्वरूप को देखकर निशंक रहता है । उसे अपने ज्ञानस्वभाव के अतिरिक्त कुछ भी चाह नहीं है । समस्त बाह्य तत्त्वों को वह अपने लिए बेकार देख रहा । कोई भी बाह्य पदार्थ मेरा क्या लाभ पहुंचा सकता है? पर का संसर्ग अशांति का कारण तो बन जाता, पर शांति का कारण नहीं होता । उसको धर्मात्माजनों की सेवा करते हुए में ग्लानि नहीं आती, क्योंकि प्रेम ही गुण है । जैसे मां को बच्चे पर प्रेम है तो बच्चे के नाक भी बहती है, कपड़ों में टट्टी-पेशाब भी कर देता है पर वह मां उस बच्चे को नाली में तो नहीं फेंक देती । बल्कि वह तो अपनी साड़ी से बड़े प्यारपूर्वक नाक पोंछती, उसकी टट्टी साफ करती । वह घृणा क्यों नहीं करती? इसलिए कि उसको उस बच्चे के प्रति अनुराग है । ये अनुराग के लक्षण होते हैं, तो सम्यग्दृष्टि को भी अपने साधर्मी संतजनों पर अनुराग है तो उनकी सेवा करने में कभी कोई ऐसी व्याधि हो जाये, दस्त आने लगे, लार बहने लगे, खून आने लगे, कोई फोड़ा सड़ जाये तो भी जैसे मां को बच्चे से इस स्थिति में भी ग्लानि नहीं होती, ऐसे ही ज्ञानी पुरुष ज्ञानी पुरुष से ग्लानि नहीं करते, और अंतरंग में क्या कर रहे कि कर्मोदय जो कुछ भी आ रहे हैं, जो भी कषाय के अक्स पड़ रहे हैं, क्षुधा तृषा आदिक के जो भी इस पर दुःख आ पड़ते हैं उन दुःखों में यह आकुलित नहीं होता, क्योंकि वह जान रहा है कि यह दुःख कर्म की माया छाया है, मैं तो सहज आनंदस्वरूप हूँ । इस ज्ञानी पुरुष ने अपने स्वरूप का दृढ़ अनुभव किया और सहज आनंद का अनुभव किया जिसके कारण अब यह किसी भी जगह धर्मप्रसंग में बहकता नहीं है और सत्य वह जानता कि धर्म तो यह है, धर्म तो यह मैं स्वयं हूँ, अपने दोषों को देख-देखकर ज्ञानभाव के बल से दोषों को दूर करने का इस ज्ञानी का प्रवर्तन होता है । अपने को जब कभी भी धर्म से विचलित पाता है तो स्वरूपचिंतन करके अपने को धर्ममार्ग में स्थिर करता है । गुणों में इसको प्रीति है, अपने आपके गुणविकास की इसके भावना है, ऐसे सम्यक्त्व को प्रकट करता हुआ यह योगी ध्यानरत होता है । काम है केवल एक आत्मध्यान का । ऐसी जिसकी धुन केवल एक आत्मस्वरूप की है वह कहलाता है योगी ।