वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 54
From जैनकोष
सुभजोगेण सुभावं परदव्वे कुणइ रागदो साहू ।
सो तेण दु अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीओ ꠰꠰54।।
इष्टविषयराग से अज्ञानता की व्यक्ति―जो साधु शुभ पदार्थ के समागम से रागवश परद्रव्य में प्रीतिभाव करता है वह अज्ञानी है और जो परद्रव्य में राग नहीं करता, अपने आत्मा के स्वभाव को ही हितरूप मानता वह ज्ञानी है । जो ज्ञान के स्वरूप को ज्ञान में ले सो ज्ञानी, अपने ज्ञानस्वरूप के सिवाय दुनियां भर के पदार्थों को ज्ञान में ले, उनकी ओर आकर्षण करें सो अज्ञानी । जीव केवल भावमात्र है, बस ज्ञान करे, न किसी को भी जाने, जानना ही इसका एकमात्र काम है, पर कुछ द्रव्यों को जानने का यह जीव प्रयास करता है, परद्रव्यों में ही बहुत-सी बातें समझने की कल्पनायें करता रहता है । तो इसके दुःख का मूल कारण यह है कि इस ज्ञान ने अपने स्थान को छोड़कर अन्य स्थान में लगाव लगाया है, जैसे कि मछली अपने जल का स्थान छोड़कर बाहर फिंक जाये तो वह तड़फेगी, ऐसे ही यह ज्ञान आत्मा अपनी जगह को उपयोग से छोड़कर बाहरी पदार्थों में उपयोग लगाये तो उसका फल नियम से कष्ट ही है । तो इस कष्ट से बचने के लिए जितने भी ज्ञानी है, चाहे गृहस्थ हों, चाहे मुनि हों, यह निर्णय रखते हैं, यह प्रयास करते हैं कि मेरा उपयोग किन्हीं बाह्य बातों के ख्याल में न जाये और उस ज्ञानमय अपने आत्मद्रव्य को निगाह में रखता रहूं तो यह उपयोग अपनी जगह फिट हो जाने से शांत सुखी आनंदमग्न रहता है और बाहरी पदार्थों में उपयोग डालता है तो वहाँ फिट तो बैठ नहीं सकता, क्योंकि यह उपयोग है उसका और बैठाल रहा है परपदार्थ में तो वहाँ यह फिट नहीं बैठता इसलिए यह झकोर लेता है, व्यग्र होता है और कष्ट मानता है, इससे जो भी पुरुष परद्रव्य में प्रीति करता है वह अज्ञानी है और जो अपने आपके स्वरूप को जानता है कि यह मैं ज्ञानमात्र आनंदमय हूँ, स्वयं वह अपने में संतोष पाता है, उसे ज्ञानी कहते हैं ।