वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 66
From जैनकोष
ताम ण णज्जइ अप्पा विसएसु णरो पवट्टए जाम ।
विसए विरत्तचित्तो जोई जाणेह अप्पाणं ꠰꠰66꠰।
विषयों में प्रवर्तन तक आत्मा के ज्ञान की अशक्यता―जब तक मनुष्य विषयों में प्रवृत्ति करता है तब तक समझिये कि आत्मा का ज्ञान नहीं होता । जो विषयों से विरक्त चित्त है वही योगी वास्तव में आत्मा को जान रहा है । आत्मा का जानना, आत्मस्वभाव की भावना बनाना, इस स्वभाव-विकास का होना और विषयों में प्रवृत्ति होना―इन दोनों का विरोध है । जो विषयों में प्रवर्तन करता है उसकी सुध में आत्मा कहां है स्पष्ट? तो विषयों से विरक्त होना यह परिचय है ज्ञानी का । कोई कितना भी ज्ञान कर ले और विषयों से बुद्धि विरक्त नहीं है तो लोग भी कहते हैं कि काहे का ज्ञान? और वस्तुस्वरूप भी कहता है कि काहे का ज्ञान? ज्ञान का फल तो यह है कि अहित दुःखदायी, संसार क्लेश को बढ़ाने वाले इन पंचेंद्रिय के विषयों से उपेक्षा हो जाये और आत्मस्वभाव की दृष्टि बने, और यदि यह ज्ञान का फल न पाया तो काहे का ज्ञान? जैसे कोई आदमी पेड़ पर चढ़ता तो है, कुछ ऊपर चढ़ जाता है, जहाँ पर मधुर फल लगे हुए हैं उसके निकट तक भी पहुंच जाता है पर फलों को हाथ से तोड़ नहीं पाता है याने उसके हाथ उन फलों तक नहीं पहुंच पाते हैं तो उसका वृक्ष पर चढ़ना, न चढ़ना बराबर, क्योंकि फल तो वह पा ही न सका ꠰ तो ऐसे ही विषयों से जब तक विरक्ति नहीं होती तब तक सही मायने में तो बात यह है कि उसने आत्मा को जाना ही नहीं । जो कुछ जाना सो वह ढीली विधि से ऊपरी ही जाना, पर अंतस्तत्व में प्रवेश करके, अपने सहज आनंद का अनुभव करके उसने नहीं जाना । सो हे योगी ! अपने आपमें परीक्षा कर कि तेरे विषयों के प्रति रागभाव है या वैराग्यभाव है?
स्पर्शन व रसना के विषयराग में जीव की हानि―विषयों के राग में इस जीव को मिलता कुछ नहीं, केवल वह अपना सब कुछ खो देता है । सभी इंद्रिय के विषयों की बात देख लो और मन के विषयों की भी बात देख लो । स्पर्शन इंद्रिय के विषयों में मुख्य कहते हैं रति काम, उसमें यह जीव अपने शरीर का बल खोता है, मन का बल खोता है, यह अपना सब कुछ खोता ही है, पर इसे मिलता कुछ नहीं ꠰ रसना इंद्रिय के वश होकर बहुत-बहुत रसीली चीजें खाना, पौष्टिक चीजें खाना, स्वाद वाली चीजें खाना, यह सब चलता है पर लाभ उससे क्या होता सो तो बताओ? हां, खाना पड़ता है जिंदगी रखने के लिए और जिंदगी रखी जाती है आत्मतत्त्व की साधना के लिए । अब रसनाइंद्रिय के विषय के लोभ में आत्मतत्त्व की साधना तो असंभव ही है, पर अपने को पूरी बड़ी उमर तक जिंदा रखना भी असंभव है, क्योंकि जो खाने का लोभी है उसके अनेक प्रकार की व्याधियां, बाधायें ऐसी घर कर जायेंगी कि यह अपनी बांधी हुई पूरी आयु से भी जी न सकेगा ꠰ और फिर रसना इंद्रिय के विषय के लोभ में आकर खूब खाया-पिया तो उसका परिणाम क्या होगा? प्रमाद आयेगा, और व्याधियां होंगी, धन अधिक खर्च होगा, उसके कमाने की चिंता करेगा । रात-दिन खाने-पीने के ही स्वप्न में रहेगा, वह आत्मा की सुध कहां कर सकता? तो रसना इंद्रिय के विषय के लोभ में यह अपना खोता ही है सब कुछ, किंतु पाता कुछ नहीं है, यहाँ तक कि जीव रसना विषय मोह में अपने प्राण भी गंवा देते हैं । मछली का दृष्टांत प्रसिद्ध है कि वह रसनाइंद्रिय के लोभ में आकर कांटे में अपना कंठ फंसा लेती है और ढीमर उसे जल से बाहर निकालकर मार डालता है । मनुष्यों की बात देख लो तो रसना इंद्रिय के विषय के लोभ में उसी-उसी ओर ही दिमाग बनाये रहते हैं, वे अपना कुछ विकास नहीं कर पाते ।
घ्राणेंद्रिय व चक्षुरिंद्रिय के विषय के राग में जीव की हानि―घ्राणेंद्रिय के विषय की बात देख लो, उससे भी इस जीव को क्या लाभ मिलता है? थोड़ी सुविधायें मिल गईं, थोड़ा मन बहलावा अच्छा रहा, यह कोई नियम नहीं है कि सुगंधित पदार्थ सूंघता रहे तो उसका स्वास्थ्य अच्छा रहेगा । सुगंधित पदार्थों में भी कई सुगंध ऐसी भी होती हैं कि वे स्वास्थ्य को बिगाड़ने वाली होती हैं जिनका कि लोगों को यों मोटे रूप से पता नहीं पड़ता । और फिर उस गंध के लोभ में, उसी मनोविनोद में यह अपने आत्मा की सुध नहीं कर पाता ꠰ और फिर गंध की तृष्णा की पूर्ति में इसे कितना ही धन खर्च करना पड़े, शरीर का श्रम भी करे, मन को भी उसी ओर लगाये, समय भी अपना बेकार करे, जीव उससे लाभ कुछ नहीं पाता । हां, शुद्ध वायु में रहे, बस साधना करे अपने आत्मतत्त्व की, पर विकल्प न करना सुगंध का । चक्षुइंद्रिय के विषय के लोभ में तो बड़ी-बड़ी दुर्दशायें होती हैं । मनुष्य जितना विपत्ति में पड़ रहा है और व्यसनों में बढ़ रहा है तो हरएक व्यसनों के बढ़ने में ये आंखें मदद देती हैं । आंखें पहले देखेंगी, देखने के बाद फिर वह सुहायेगा, फिर उसका पुरुषार्थ करेगा, मिलायेगा, प्रवृत्ति करेगा । सभी विषयों की प्रवृत्ति में ये आंखें बड़ी मददगार बनती हैं, ये हमारे इस जीवन को एक उन्मार्ग में ले जाने का कारण बनती हैं, देखने से इस जीव ने क्या लाभ पाया? देखना तो दो बातों के लिए जरूरी है, एक तो किसी जीव की हिंसा न हो जाये; दूसरे साधुवों के, देवों के, जिनवाणी के, साधर्मियों के, त्यागियों के दर्शन हों, सत्संग-सा बने और आत्मकल्याण हो, इसके अतिरिक्त और कुछ देखने का क्या मतलब? जैसे मानो घर-घर टेलीविजन हो गए और उसमें कितने ही कथानक, ड्रामा और संगीत आदि की मनोरंजक चीजें देखते हैं । आजतक मान लो कई वर्षों से देखते आ रहे, पर आजतक कुछ सुख जोड़ पाया हो तो बताओ? सिनेमा तो इससे भी गए बीते हैं, कितने ही लोग तो रोज-रोज या बीच में दो-एक दिन छोड़-छोड़कर सिनेमा देखते हैं, उन सिनेमा देखने वालों की सिनेमा देखने के बाद मुद्रा देखो, उनसे पूछो कि तुम्हें क्या लाभ हुआ है? तो लाभ कुछ नहीं बता सकते, होता ही नहीं लाभ, बल्कि मन खराब किया, उपयोग गंदा किया, पापकर्म बांधा और उसका फल बुरा होगा । तो चक्षुइंद्रिय का विषय इस जीव को बड़ा अहितकारी बन रहा है ।
कर्णेंद्रिय के विषय के राग में जीव की हानि―अब कर्णेंद्रिय की बात सुनो ꠰ अच्छा राग सुना, प्रेम की बात सुनी, पाप की बात सुनी, उसी में दिल लग रहा, यहाँ-वहाँ की निंदा की बात सुन रहे, चित बड़ा खुश हो रहा, गप्पों में सारा समय जा रहा, आनंद मान रहे पर इसके फल में आत्मा को मिला क्या? कहां तो इन कानों का उपयोग करना चाहिए था जिनवाणी का श्रवण करने के लिए, जिससे कि आत्मा को लाभ मिलता, भेदविज्ञान की बात आती ꠰ संसार में अनेक घटनायें होती रहती हैं अनुकूल-प्रतिकूल, इष्ट-अनिष्ट की, यह उनमें धैर्य रखता, भेद-विज्ञान करता, पर बाहरी बातों में इन कानों का उपयोग लगाने से इसने अपना समय व्यर्थ खोया । अरे ! इस जगत् में न मालूम कब क्या हो जाये । जिस लड़के पर बड़ा विश्वास है वही लड़का कहो अपना कट्टर दुश्मन बन जाये, ऐसी स्थिति में भी ज्ञानी पुरुष घबरायेगा नहीं, वह जानता है कि इस लड़के का जीव मेरे से बिल्कुल भिन्न है, स्वतंत्र है, यह अपनी कषाय के अनुकूल अपनी चेष्टा कर रहा है । यह तो वस्तु का ऐसा ही परिणमन है, मेरे आत्मा का उससे क्या बिगाड़? मेरा आत्मा परिपूर्ण अपने आप बना हुआ है । मेरा जो कुछ होने का है वह मेरे से ही होने का है । तो भेदविज्ञान की बात जिनवाणी के श्रवण से मिलती और उससे आगे मार्ग में बढ़कर ध्यान बनाते तो उससे भला था, मगर व्यर्थ की बात, गप्पों की बात सुनने में राजी हो रहा है यह मनुष्य तो यह अपना सब कुछ खो रहा है ।
मनोविषय के राग में जीव की हानि―अब देखिये मन का विषय । यह मन का विषय तो बड़ा ही भयंकर
है । मन के विषय में मुख्य विषय है नामवरी चाहना, कीर्ति चाहना ꠰ अब बतलावों इस असार जगत् में जहाँ कुछ भी सार नहीं है, जन्मते हैं मरते हैं यह भी एक माया है, इस मायामयी जगत् में नाम के दो अक्षर कहीं लिखे गए या पा लिया, या किसी के मुख से कुछ प्रशंसा के शब्द सुन लिया तो बताओ उससे इस आत्म को लाभ क्या मिलता है? आखिर मरण होगा, काम कुछ न आयेगा, पर अपनी ख्याति के पीछे ये मनुष्य अपना दुर्लभ मानव जीवन खो देते हैं । तो मन के विषय में भी इसने लाभ कुछ न पाया, बल्कि खोया ही है । लौकिक दृष्टि से भी देखें तो मन के विषय से यह जीव कष्ट-ही-कष्ट पायेगा, शांति न पायेगा । मुझे ऐसी इज्जत न मिली, मुझे राज्य का अमुक पद न मिला, यह सोच-सोचकर कुढ़ेंगे । अगर मान लो कोई बड़ा राज्यपद मिल गया तो वहाँ यह लालसा बनी रहती कि मैं सदा ऐसा ही बड़ा बना रहूं, पर होता क्या है कि उसमें हार खा जाते हैं जिससे भारी दुःख मानते हैं । तो मन के विषय में तत्काल भी अशांति रहती और भविष्य भी नहीं सुधर पाता । तो यह विषयों का राग इस जीव को बड़ा कष्ट देता है, और जब तक यह जीव विषयों में प्रवृत्ति करता है तब तक समझिये कि इसने अपने आत्मा का कुछ ज्ञान नहीं किया ।
आत्मभावना की शरण्यता―आत्मज्ञान बिना आत्मभावना नहीं बनती अर्थात् अपने चैतन्यस्वभाव को निरंतर दृष्टि में लिए रहे, यह भावना नहीं बनती । और आत्मभावना हुए बिना विषयों से विरक्ति नहीं होती । विषयों से विरक्ति हुए बिना इसको चारित्र नहीं मिलता, मोक्षमार्ग नहीं मिलता । इससे हे योगीजन ꠰ विषयों से विरक्त हो तो समझिये कि हम मोक्षमार्ग के सही रास्ते पर चल रहे हैं, और यदि विषयों से विरक्ति नहीं है, केवल राग बढ़ा है तो अपने पर अफसोस करना चाहिए कि व्यर्थ का कलंक मेरे उपयोग में क्यों आ रहा है? विषयों में थोड़ा भी राग जगे तो वह भी जीव के अनर्थ के लिए है, पर जिसका व्यसनों से भरा हुआ जीवन हो उसका भविष्य तो ठीक नहीं है ꠰ आत्मा की सुध अनेक बार आती रहे कि मैं यह प्रतिभास मात्र हूँ, अपने में पूरा हूँ, मेरा मेरे से बाहर कुछ नहीं, मेरे को शांति मेरे ही ज्ञान से जगती है, किसी बाह्यपदार्थ से मेरे को सुख शांति नहीं मिलती, ऐसा जिसके भीतर भाव बस गया हो उसे जगत् के वैभव जीर्ण तृण की तरह असार दिखते हैं । दोनों बातें सामने हैं या तो आत्मसार देखें या परभाव-सार देखें, दो में से किसी न किसी पक्ष में मनुष्य रहा करते हैं । जिनको आत्मा ही सार दिखता, आत्मस्वभाव की भावना ही जिनको मंगल, लोकोत्तम, शरणभूत विदित होती है वे जीव ज्ञानी हैं, संसार-संकट से छूटने वाले हैं ।
आत्मा की जानकारी व भावना के बल से प्राप्त पूर्ण विषयविरक्ति से आत्मकल्याण―संसार में वोटिंग से फैसला न होगा कि ये सारे लोग हम को अच्छा कह दें वह अच्छा । यहाँ वास्तविक अच्छे की बात कही जा रही है । सांसारिक कार्यों में तो वोट का फैसला ठीक है, पर यह ज्ञानी है, मोक्षमार्ग में लगा है, यहाँ इतना ऊंचा आदर्श है कि इसके कहने वाले जगत् में बिरले ही लोग हैं । मोही जीव जो विषयों में बढ़ रहे हों, जो अधिकार में बढ़ रहे हों उनको ही भला बतायेंगे, ऊ̐चा बतायेंगे, ज्ञानी पुरुषों को मोही जीव ऊ̐चा नहीं कह सकते । उन्हें पता ही नहीं ज्ञान का, बल्कि वहाँ अनेक प्रकार के दोष ही नजर आयेंगे । जैसे ये देश के लिए बेकार हैं, ये कुछ करते ही नहीं हैं, यों कितने ही दोष नजर आयेंगे । तो ज्ञानी का फैसला संसार के जीव नहीं कर सकते, उसे तो भगवान, जिनवाणी या ज्ञानी लोग ही बता सकते हैं । सारभूत बात है तो आत्मा के सहज स्वरूप की भावना होना सारभूत बात है । मैं तो यह सहज चैतन्यस्वरूप हूँ, बाकी तो ये सब उसके नाटक चल रहे, यह बात सदैव ध्यान में रहनी चाहिए । जो मेरी प्रवृत्तियां चल रही हैं, जो मेरा बोलचाल चल रहा है, जो कार्य भी किए जा रहे हैं और जैसे कुछ विचार किए जा रहे हैं ये सब नाटक हैं, मेरे वास्तविक कार्य नहीं, ऐसी भावना चित्त में हो तो ऐसा पुरुष 5 इंद्रिय और मन इन छहों के विषयों से विरक्ति पायगा । विषयों से विरक्त हुए बिना कभी शांति नहीं प्राप्त हो सकती । इससे अपना मार्ग धर्म की ओर ही बढ़ाना है, संसार का आदर नहीं करना है किंतु आत्मस्वरूप का आदर करना है, प्रभु के स्वरूप की भक्ति करना है । तो आत्मज्ञान बने, आत्मस्वभाव की भावना बने और विषयों से विरक्ति बने तो इस जीव का नियम से कल्याण होगा ।