वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 71
From जैनकोष
जेण रागो परे दव्वे संसारस्स हि कारणं ।
तेणावि जोइणोणिच्चं कुज्जा अप्पे सभावण ।।71।।
नित्य आत्मभावना की आवश्यकता―जिस किसी भी पदार्थ से योगी पुरुष को राग उत्पन्न होता है तो चूंकि वह राग संसार का कारण है अतएव योगी पुरुष उसी पर्याय से निरंतर आत्मा में आत्मभावना करता है । जिस स्त्री-पर्याय से राग हुआ तो वहाँ योगी विचारता है कि यह भी एक आत्मा है और मेरे स्वरूप के समान है, तो चैतन्यस्वभाव का चिंतन करने लगता है और उस स्वभाव-दृष्टि में जो मैं हूँ सो यह है । अन्य कुछ दूसरा नहीं है, ऐसी भीतरी भावना हो जाने से उसके राग नहीं रहता । खुद-खुद से क्या राग करे, ऐसी आशंका अद्वैतवादियों ने स्पष्ट की है कि आत्मा एक है सारे संसार में और प्रत्येक देह में जो आत्मा का ज्ञान हो रहा है सो वह जैसे घड़े में घड़े का आकाश, लोटे में लोटे का आकाश, तो आकाश अलग-अलग तो नहीं हो गया । आकाश एक है,ऐसे ही देह-देह में आत्मा का भान होकर भी आत्मा एक है, न्यारे-न्यारे नहीं हो गए, ऐसा उनके सिद्धांत में कहा है । तो उसका क्या अर्थ लेना चाहिए कि जब आत्मा एक है, जो मैं हूँ सो आप हैं, तो खुदने खुद से प्रेम किया और खुद ने खुद से द्वेष किया । रागद्वेष हटाने की विधि में वे आत्मा को एक मान रहे । यहाँ यह तो नहीं बताया, पर रागद्वेष हटाने की विधि में आत्मा के स्वरूप को देखकर एक-सा मान लिया, एक-सा है ही और उस दृष्टि के बल से यह उसके राग को छोड़ देता है । जिसको सम्यक्त्व हुआ और मोक्षमार्ग में बढ़ने के लिए निर्ग्रंथ दिगंबर भी हुआ तो वहाँ अब उसे क्या करना चाहिए? बस आत्मस्वरूप की भावना ही करते रहना चाहिए । मुनियों का और दूसरा काम ही क्या है? वह अपने आत्मा को देखे तो आत्मस्वरूप की भावना जगे, दूसरे जीवों को देखे तो उनमें भी आत्मस्वरूप की भावना बने, यह भी उसी प्रकार का आत्मा है । केवल एक ही काम रह गया योगी का, आत्मस्वरूप की भावना करते रहना ꠰ अगर किसी योगी को, मुनि को भावना तो दूर रहे, आत्मा के बारे में ज्ञान भी न हो, कुछ जानता भी न हो तो वह मुनि थोड़े ही है । मुनि तो वह है जिसको आत्मा का ज्ञान हुआ और आत्मा की भावना में ही सदा रहता है । तो ऐसा योगी जिस-जिस जीव से राग पैदा होता उस-उस जीव के आत्मा की स्वभाव की भावना करने लगता है और उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जो मैं हूँ सो यह है, अब इससे क्या राग करना और क्या द्वेष करना?