वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 82
From जैनकोष
देवगुरुणं भत्ता णिव्वेयपरंपरा विचिंतिंता ।
झाणरया सुचरित्ता ते गहिया मोक्खमग्गम्मि ꠰꠰82।।
देवगुरुभक्त ध्यानरत सुचरित्र पुरुषों की मोक्षमार्गस्थता―जो देव और गुरु के भक्त हैं, वैराग्य की परंपरा का चिंतन रखते हैं, ध्यान में रत हैं, उत्तम चारित्र वाले हैं वे पुरुष मोक्षमार्ग में तिष्ठे हुए माने गए हैं । मोक्ष नाम है अकेले आत्मा के रह जाने का है । मोक्षमार्ग नाम है निज सहजस्वरूप जो पर से विविक्त है, अपने आपके स्वरूप में तन्मय है ऐसे इस अकेले आत्मस्वरूप को निरखते रहना, ऐसी जिनकी धुन बनी हो वे नियम से देव और गुरु के भक्त होंगे । जो मुक्त हो गए हैं, केवलज्ञानी हो गए हैं वे तो हैं देव और जो मोक्षमार्ग में बढ़ रहे, चारित्रवत् हैं वे तो हैं गुरु । तो जिनको मोक्ष और मोक्षमार्ग की धुन हुई हो वे नियम से देव और गुरु के भक्त होते हैं । जो देव गुरु के भक्त हैं वे मोक्षमार्ग में बढ़ते हैं, वैराग्य की परंपरा का चिंतन करते हैं; संसार, शरीर, भोगों से सहज उनके विरक्ति रहती है, किस पदार्थ में राग करना, किसी पदार्थ का मेरे से संबंध क्या? क्यों राग करना? कोई हेतु ही नहीं है ठीक । जीव अज्ञानवश राग करते हैं बाह्य पदार्थों से और राग जैसी कल्पना में पाया हुआ दुर्लभ मानवजीवन गंवा देते हैं । आत्मतत्त्व की सुध नहीं कर पाते । पर जो ज्ञानी जीव हैं वे सदा संसार, शरीर, भोगों से विरक्त रहते हैं । ध्यान में रत, बाहर में कहां जाना, कहां रमना, किसको प्रसन्न करना, किसको अपनी कला दिखाना । कुछ भी सार नहीं है बाहर, इसलिए अपने आपका जो सहजज्ञानस्वरूप है उसके ध्यान में ही रत रहते हैं, जिनका चारित्र सम्यक्चारित्र है, अपने आपके स्वरूप की ओर जिनका उपयोग रहता है ऐसे पुरुष मोक्षमार्ग में रहते हैं । जिन जीवों की इसकी प्रवृत्ति नहीं, धर्म के नाम पर यज्ञ करें, धर्म के नाम पर पेड़ पृथ्वी नदी एकेंद्रिय आदिक जीवों तक की पूजा करें, रागी-द्वेषी जीवों को जो देव मानें, अपना आदर्श समझें उनको वह मोक्षमार्ग कैसे प्राप्त हो सकता है? मूल बात यह हैं कि जिसने अपने आपको सबसे निराला केवलज्ञानमय अकेला निरखा है उसको धर्मपालन है, मोक्षमार्ग है, वह निर्वाण पायेगा ।