वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 89
From जैनकोष
ते धण्णा सुकयत्था ते सूरा ते विं पंडिया मणुया ।
सम्मत्तं सिद्धियरं सिविणे वि ण मइलियं जेहिं ।।89।।
स्वप्न में भी मलिन न होने वाले सम्यक्त्व के धारकों की धन्यता, कृतार्थता व शूरता―
वे पुरुष धन्य हैं, कृतार्थ हैं, शुरवीर हैं, पंडित हैं जिन्होंने इस सिद्धिदायी सम्यक्त्व को स्वप्न में भी मलिन नहीं किया । सम्यक्त्व की मलिनता का अर्थ है अपनी श्रद्धा में कमी आना या कुछ अतिचार लगना, यह सम्यक्त्व की मलिनता कहलाती है मगर जो ज्ञानीपुरुष हैं, दृढ़ निश्चयी हैं वे सम्यग्दर्शन को मलिन नहीं करते । कितने ही कारण आयें, संसार उनकी दृष्टि में सारभूत नहीं जंचता । दुनियां का कोई पदार्थ इसे शरण नहीं लगता । एक बार एक सेठ ने अपनी सेठानी से कहा कि मैं तो नंदीश्वर द्वीप जाऊंगा वंदना करने के लिए तो सेठानी बोली―आप वहाँ कैसे जा सकते हैं, वहाँ मनुष्य नहीं जा सकते । तो सेठ बोला―मैं तो जाऊ̐गा, चलता ही जाऊ̐गा, मुझे वहाँ जाने से कौन रोक सकेगा? तो स्त्री बोली―मानुषोत्तर पर्वत से आगे मनुष्य की गति नहीं है । आखिर वह सेठ न माना, और चल दिया । चलते-चलते जब मानुषोत्तर पर्वत आया और आगे बढ़ने की कोशिश की तो पर्वत का धक्का लगा और वहीं वह मर गया । मरकर देव हुआ । देव होकर नंदीश्वर द्वीप की वंदना करने गया । वहाँ उसे एक कौतूहल मूल सूझा, क्या कि मुझे अपनी पूर्वभव की सेठानी के पास पहुंचकर उसके श्रद्धान की परीक्षा लेना चाहिए । सो वही सेठ का रूप रखकर पहुंचा उस सेठानी के पास और बोला―देखो, मैं नंदीश्वर द्वीप की वंदना करके आ गया, तुम तो कहती थी कि वहाँ जा ही नहीं सकते पर मैं तो वंदना कर आया । तो सेठानी बोली तुम गलत कहते हो ।....नहीं नहीं, तुम जो चाहे वहाँ की बात पूछ लो, हम सब देखकर आये । तो सेठानी बोली―यदि तुम सही बोलते हो तो तुम इस समय वह सेठ नहीं हो, तुम कोई देव हो, पर सेठ का बाना रखकर आये हो । आखिर सेठानी के दृढ़ श्रद्धान की सराहना की और अपना सही रूप प्रकट कर अंतर्धान हो गया । तो जिसे सही श्रद्धान हो गया उसे कोई श्रद्धान से विचलित नहीं कर सकता । ज्ञानी पुरुष स्वप्न में भी सम्यक्त्व को मलिन नहीं करता । उसे अपने आपके बारे में एक निर्णय रहता है कि मैं अमूर्त ज्ञानमात्र आत्मतत्त्व हूँ और उसका प्रति समय बस ज्ञान की तरंग चलना यही काम है । पुरुष नहीं, स्त्री नहीं, व्यापारी नहीं, अमुकचंद नहीं, कुटुंब वाला नहीं, श्रावक नहीं, मुनि नहीं किसी भी परिस्थिति में हो, ज्ञानीपुरुष पर्याय में आत्मपना स्वीकार नहीं करता । श्रद्धा उसकी प्रबल है कि मैं तो अमूर्त ज्ञानमात्र आत्मपदार्थ हूँ, ज्ञानस्वरूप जिसका कार्य है जानना, जिसका फल है निराकुल रहना, इससे आगे कुछ नहीं, लोग दुःखी होते हैं तो बनावट करके दुःखी होते हैं, कल्पनायें करेंगे, वस्तुस्वरुप के विरुद्ध विचार बनायेंगे और दुःखी होते रहेंगे । अब जो समागम मिले उन्हें समझ डाला नित्य, और हो जाता है वियोग तब दुःखी होते हैं । तो झूठा श्रद्धान रखा तब दुःखी होना पड़ा । सही श्रद्धान रहे तो वहाँ दुःख का नाम नहीं ।