वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 91
From जैनकोष
जहजायरुवरुवं सुसंजयं सव्वसंगपरिचत्तं ।
लिंगं ण परावेक्खं जो मण्णइ तस्ससम्मत्तं ।꠰91꠰꠰
गुरु की यथाजातरूपता―जो ऐसे गुरुचिह्न को मानता हो याने गुरु को मानता हो उसके सम्यक्त्व है । यह बात इस गाथा में कहते हैं, कैसे हैं वे गुरु? कैसा है वह गुरु का लिंग? यथाजातरूप । जैसे कि बालक उत्पन्न हुआ उस बालक का बाह्यस्वरूप, कुछ भी साथ नहीं है, एक धागा भी नहीं है । मां के पेट से निकला, वहाँ उसके पास क्या है? कुछ नहीं । तो जैसे बालक का बाह्यपरिग्रह से रहित रूप है, ऐसा रूप होता है गुरु महाराज का; जो मोक्षमार्ग में चल रहे हैं, रत्नत्रय की आराधना कर रहे हैं । गुरु का स्वरूप ऐसे बाह्य पदार्थो के संपर्क से रहित होता है । भीतर की बात स्थूल रूप से परखना । जैसे बालक में मायाचार नहीं, ममता नहीं, जैसे वह भीतर में निष्कपट है ऐसे ही भीतर गुरु भी निष्कपट है । यद्यपि बालक में भीतर में दोष बहुत हैं मगर यह एक मोटे रूप में प्रसिद्धि है, पहिचान है, उस अनुसार जानना, यहाँ परमार्थत: जानना गुरुवों में । देखा जाता है कि छोटे बालक कपटरहित होते हैं । जैसे ही वे बड़े होते हैं और अपने बाप, चाचा, बाबा आदिक की संगति में रहकर कुछ चतुर बनते हैं तो उनमें कपट आने लगता है, ममता आने लगती है, परिग्रह जोड़ने की बुद्धि बन जाती है, झूठ बोलने की भी आदत पड़ जाती है, ये सब बातें उनमें आ जाती हैं । तो जैसे यहाँ देखा जाता है कि छोटी उम्र में सरलता रहती है और जैसे उम्र बढ़ती है वैसे-वैसे उसमें कठोरता आने लगती है । तो बालक का दृष्टांत दिया और वह भी यथाजात बालक, उसकी तरह जिसका रूप है, गुरु का यह चिन्ह है । गुरु तो तैयारी के साथ मुनि बने हैं कि मेरा कुछ नहीं है अब दुनियां में । वे दुनियां में कहीं भी अपना कुछ नहीं चाहते । केवल आत्मा को निरख-निरखकर आत्मा की दृष्टि कर-करके अपने आपका विकास-भर करते रहते हैं । उनका कोई दूसरा लक्ष्य नहीं है, ऐसा भाव कि मेरी प्रसिद्धि हो, नाम हो, फोटो हो या रास्ते का बड़ा आराम हो, किसी तरह की तकलीफ न हो, ये बातें मुनि को छू भी नहीं सकतीं । उसके तो केवल एक ही धुन रहती है । किसलिए मुनि बने? इसलिए कि ज्ञानी मुनि ने अपने आपमें निर्णय कर रखा था कि आत्मा में लीन हुए बिना संसार के संकट दूर नहीं हो सकते, और उसे गृहस्थी में लगी बड़ी बाधायें, झंझट मालूम हुईं और आत्मस्वरूप में लीन होने के पौरुष में विघ्न बहुत आ रहे हैं तो वह आत्मतत्त्व का ऐसा धुनिया है कि सारे इन बाह्य परिग्रहों का वह त्याग कर देता है । तो जिसका यथाजातरूप है वह है गुरुलिंग ।
गुरु की सुसंयतता, समता व सर्वसंगपरिमुक्तता―सुसंयत भले प्रकार से अपने आपमें नियंत्रित है, स्वच्छंद नहीं है । इसका दूसरा नाम है द्विज । द्विज कहने लगे हैं ब्राह्मणों को, पर द्विज नाम है मुनि का । कैसे द्विज नाम पड़ा कि जिसका दूसरा जन्म हो उसे कहते हैं द्विज । मुनि का जन्म दूसरा है । जैसे हम आपका जो इस भव से पहले जन्म था उसकी अपेक्षा यह दूसरा जन्म हुआ है । आप बतला सकते हो क्या पहले जन्म की कोई बात? पहले जन्म के किसी परिग्रह में, समागम में, परिचय में आपका कुछ ख्याल जाता है क्या? नहीं जा रहा । इसे कहते हैं दूसरा जन्म । तो यहाँ तो मरने के बाद पहले जन्म का संबंध टूटता है, लेकिन मुनि का तो उस ही जिंदगी में मुनि होनेपर दूसरा जन्म कहलाने लगता है । अब उसे मुनि से पहले जीवन की बातों से लगाव नहीं रहता । जिसके लिए―‘‘अरि-मित्र महल-मकान कंचन-कांच निंदन-थुति करन । अर्घावतारन असिप्रहारन में सदा समता धरन ।’’ ऐसे परिणाम रहते हैं । तो आप सोचिये कि उसको तो ये सब देखते हुए भी उस रूप में नहीं दिखता जिस रूप में लौकिक जनों को यह सब कुछ दिख रहा है । कैसा दिखता? चलते फिरते सिनेमा के जैसे चित्र । इस तरह का संसार दिखता है, अथवा अपने-अपने स्वरूप में अचल, बाकी यह सब नाटक । इस तरह दिखता है तो आप समझिये इतनी बड़ी तैयारी है जिसके उसका यह मुनि रूप मिलता है । भले ही वह शब्दों का विद्वान् न हो, लेकिन भावों में, भावना में यह बात सबके रहा करती है । ऐसा हुए बिना मुनिपना नहीं कहलाता । कैसा है गुरुलिंग? सर्व परिग्रहों से वियुक्त है ।
गुरुवृत्ति में परापेक्षता का अभाव―गुरु का लिंग परापेक्ष नहीं, उनका सारा काम स्वाधीन है, मुनि का कोई काम पराधीन नहीं । जैसे कि आजकल महसूस किया जाता है कि मुनि का विहार पराधीन है, उनके साथ मोटर चाहिए, चौका चाहिए, कमंडल लेकर साथ चलने वाला होना चाहिए, ये सब बातें हों तब विहार होता है, ऐसी पराधीनता का स्वरूप गुरु का नहीं है, अथवा आहार में इतनी-इतनी बातें हों, ऐसी-ऐसी हों, ये सब बड़ी कठिनाई की चीजें हैं, तो आहार पराधीन है, ऐसा मानते हैं, पर आहार भी उनका पराधीन नहीं, विहार भी पराधीन नहीं, रहना भी पराधीन नहीं, मुनि कुछ चिंता नहीं रखते, विहार करते हैं तो उठाया कमंडल पिछी और बिहार हो गया । बहुत पहले से बताना कि मैं इस दिन पहुंचुंगा । यह तो इसकी तैयारी है कि लोगों में प्रसिद्धि हो, समारोह से ले जायें, इस प्रकार से ले जायें, यह पराधीनता है । पर चित्त में आया, चल दिया, आखिर अतिथि नाम उसका है कि जिसकी कोई तिथि नियत नहीं है । अब भक्त लोगों को मालूम पड़े, वे अपनी भक्तिवश सब कुछ विधि करें, समागम करें, साथ जायें वह सब बात अलग है । आहार भी पराधीन नहीं । मुनि को जब क्षुधा विशेष हुई, जिससे जीवन कुछ रहना चाहिए ताकि मैं संयम अच्छी तरह पालूं, तो वह भिक्षावृत्ति को निकलता है । जिसने भक्तिपूर्वक बुलाया, खिलाया, खा लिया, जहाँ शुद्धि का अतिरेक हो वह बनावटी चीज है, जंगल में आहार होता हें, आहार कर रहे हैं, वहीं पास में जंगली जानवर भी बैठ रहे हैं, वहाँ बाहरी शुद्धि का अतिरेक तो नहीं बन पाता । यहाँ तो इतना तक हो जाता कि यदि धोती किवाड़ से छू गई तो अब वह धोती बदलनी पड़ती है । जहाँ शुद्धि का इतना अतिरेक कर दिया गया वहाँ आहार पराधीन हो तो जितना आवश्यक है, जिसमें अधःकर्म दोष न रहे उतनी शुद्धि आवश्यक है, पर शुद्धि का जो अतिरेक बना है वह एक पराधीनता का रूप बन गया है । मुनि का आहार भी पराधीन नहीं, विहार भी पराधीन नहीं, रहना भी पराधीन नहीं । मुनि को यह कोई आवश्यक नहीं है कि बहुत साफ कमरा हो, बहुत अच्छी तरह से तखत के ऊपर सिंहासन, और मुझे इस तरह से ही रहना चाहिए ऐसा भाव नहीं होता मुनि का । मुनियों को तो अधिकतर भूमि में सोना, उठना-बैठना बताया गया है । उसके यह भावना नहीं होती कि मेरे रहन-सहन का इस प्रकार का शान-शौकत का ढंग होना चाहिए । यदि इस प्रकार की भावना उसके चित्त में हो तो वह पराधीन हो गया ।
विपरीताचार विमुखता व परीषहविजय का मूल कारण सहजात्मस्वरूप की धुन―मुनि तो केवल आत्मध्यान की विशेषता के लिए हुआ है, उसका दूसरा कुछ प्रयोजन नहीं । जैसे कोई व्यापारी अपने व्यापार के उद्देश्य से, धन कमाने के उद्देश्य से कहीं बाहर जाता है तो वह भूख, प्यास, गर्मी, सर्दी, मान, अपमान आदि के बड़े कष्ट उठाता है फिर भी उनको बड़ी शांतिपूर्वक सहता जाता है क्योंकि वह जानता है कि ये सब कष्ट सह लेने के बाद हमको इतने धन का लाभ होने वाला है, ऐसे ही ज्ञानीजन आत्मकल्याण के मार्ग में जब बढ़ते हैं तो वे भी बाहर में निंदा, अपमान, उपसर्ग आदि की अनेक बातें आने पर भी उनसे घबराते नहीं, क्योंकि वे जानते हैं कि हम को तो ये सब कष्ट सहने के बाद अपने सहज आत्मस्वरूप के अनुभव का लाभ होने वाला है । किसी मुनि का अगर यह भाव हो कि मेरे लिए बड़ा साफ स्वच्छ स्थान ठहरने का होना चाहिए; पेन, पेंसिल, पिछी, कमंडल आदि चीजें बड़ी साफ स्वच्छ तथा सुंदर रहने चाहिए, तो वह भी उसकी भूल है क्योंकि यह सब बाहरी दिखावट, चमक-धमक तो आत्मध्यान में बाधक है । आत्मध्यान तो उसके बनता है जिसको बाहरी पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट की कल्पना नहीं होती । तो यह गुरुलिंग बतला रहा कि वह परापेक्ष नहीं है । कोई भस्म रमाकर, माला पहिनकर साथ में कुछ डंडा या चीमटा आदि रखकर साधुता का बाना बनाते और उन्हें लोग गुरु मानते हैं उनको इन सबकी अपेक्षा है और उनकी चिंता है । वे अनेक जोगों को जोड़ते हैं, यह कहलाता परापेक्ष पर यथाजात मुद्रा में परापेक्षता है ही नहीं ।
ज्ञानी की एकत्वरुचि―जो यथाजातरूप लिंग को मानता है उसके सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दृष्टि जीव मोक्षमार्ग में ऐसी मुद्रा को ही स्वीकार करता है कि जो मोक्षस्वरूप के अनुरूप हो कुछ-कुछ । मोक्ष मायने क्या? अकेला आत्मा रह जाना, इसका नाम है मोक्ष । मोक्ष कोई नई चीज नहीं है । जो आत्मा का स्वरूप है, आत्मा के अपने सत्त्व के कारण जो कुछ इसका एकाकी स्वरूप है, अब भी है, कहीं दूसरे का उसमें प्रवेश नहीं है । दो सत्ता मिलकर मैं आत्मा अब भी नहीं है, मैं अपनी ही सत्ता में हूँ । भले ही औपाधिक विकार चल रहे हैं मगर सत्त्व दो का मिलकर नहीं है । एक ही सत्ता है,वही एक सत्ता औपाधिकता-रहित होकर ठीक स्वरूप के रूप में प्रकट हो गया, उसी का नाम मोक्ष है, तो मोक्ष मायने अकेला रह जाना । परपदार्थों के संपर्क से अलग, अकेला रह जाने का नाम मोक्ष है । अब यही चीज यहाँ चल रही है, पर से अलग हों । शरीर पर कोई पर न रहे, शरीर भी पर है, परंतु वह अभी छोड़ा नहीं जा सकता है, वह लगा है । भाव से तो शरीर भी छूटा है । और, चारित्र में ध्यान किसका? पर से रहित का । कारण कि पर से रहित होना है ना? तो पर से रहित जो इस वक्त भी है, ऐसा स्वाधीन सहज स्वरूप का जो ध्यान रखते हैं उनका लिंग बाहर में कैसा होता है वह इस गाथा में बताया । उसे जो स्वीकार करता है वह है सम्यग्दृष्टि ।