वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षपाहुड - गाथा 95
From जैनकोष
मिच्छादिट्ठी जो सो संसारे संसरेइ सुहरहिओ ।
जम्मजरमरणपउरे दुक्खसहस्साउले जीवो ꠰꠰95꠰।
जन्मजरामरणप्रचुर दुःखसहस्राकुल संसार में मिथ्यादृष्टि का संसरण―आत्मस्वरूप का परिचय न होने से जिनकी दृष्टि मिथ्या हो रही है वे प्राणी सुखरहित संसार में भ्रमण करते रहते हैं । इस संसार में सुख नाममात्र को नहीं है । केवल मोहीजीव मोहवश इष्टविषयों के भोग में सुख की कल्पना कर लेते हैं । इस संसार में मुख्य क्लेश है जन्म, मृत्यु और बुढ़ापा, सो जन्ममरण के संकटों से तो भरा हुआ ही है संसार और फिर जन्ममरण के बीच जितना उस भव का जीवन है उन क्षणों में हजारों दुःखों की व्याकुलता भरी पड़ी है । दुःख सारे परवस्तु के लगाव में ही हैं । किसी वस्तु को इष्ट मानकर राग करने लगना यह कुटेव व्याकुलताओं को बढ़ाती रहती है, इष्ट के न संयोग में शांति और न वियोग में शांति । जिस किसी भी चेतन-अचेतन वस्तु को अनिष्ट मान लिया तो उसके प्रसंग में नाना अशांतियां चलती रहती हैं । शारीरिक वेदनावों के दुःसह दुःख भोगना पड़ते हैं । तृष्णा आशा निदान के दुःखों से यह संसार पूरित है । ऐसे कठिन दुःखों को अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि सहता हुआ संसार में भटकता रहता है । यह सब संकट सहजात्मस्वरूप का बोध न होने से होता है । अत: हे आत्महितार्थी भव्यो ! सहजसिद्ध अनादि अनंत निज चैतन्यस्वरूप का परिचय करो और उसमें ही आत्मत्व का अनुभव करो ।