वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - गाथा 10-1
From जैनकोष
मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावरणांतरायक्षयाच्च केवलम् ।। 10-1 ।।
मोक्ष के वर्णन के प्रसंग में प्रथम ही केवल ज्ञान के वर्णन का कारण―9वें अध्याय में संवर और निर्जरा का वर्णन किया गया । अब मोक्ष का वर्णन किया जाना चाहिये । सो मोक्ष चूँकि केवलज्ञान न पाये तब तक नहीं हो सकता । इस कारण पहले केवलज्ञान की ही बात कह रहे हैं । मोह का क्षय होने से और ज्ञानावरण दर्शनावरण अंतराय का क्षय होने से केवल अवस्था प्राप्त होती है । इस तत्त्वार्थ सूत्र में सर्वप्रथम सूत्र था―सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणिमोक्षमार्ग: । याने सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्मक्चारित्र यह मोक्ष का मार्ग है । इस विषय में अनेक वर्णन हो चुके । अब जिसका यह मार्ग है उस मोक्ष के विषय में वर्णन चल रहा है । यहाँ कोई ऐसा सोच सकता है कि मोक्ष का वर्णन तो पहले ही कहना चाहिए था जिससे यह जाहिर होता कि इसका मार्ग बताया जा रहा । सो पहले यों वर्णन नहीं किया कि मोक्ष तो सभी मानते हैं पर कोई किसी ढंग से कोई किसी ढंग से । मगर सब मतवालों को मोक्ष स्वीकार है कि मोक्ष होना चाहिए, सो मोक्ष के संबंध में विवाद किसी को न था, पर मोक्ष के उपायों में, संबंध में विवाद चल रहा था, इसलिए मार्ग का वर्णन किया । अब उस मोक्ष मार्ग में सम्यग्दर्शन आया और सम्यग्दर्शन के प्रसंग में 7 तत्वों का वर्णन चला, उस वर्णन से संबंधित होने से निर्जरा के बाद अब यहाँ मोक्ष का वर्णन कर रहे हैं ।
सूत्र में मोहक्षयात् पृथक् पद देने व पश्चात् तीन घातिया कर्मों का सूत्र बताने का प्रयोजन―यहाँ एक शंका होती है कि सूत्र में चार कर्मों के क्षय की बात कही गई है सो तो ठीक है मगर मोह का क्षय होने से यह अलग क्यों कहा? चारों का नाम लेकर क्षय कह देते और ऐसा कहने से सूत्र भी छोटा बन जाता, क्योंकि क्षय को दो बार नहीं कहना पड़ता । इसके समाधान में कहते हैं कि बात तो ठीक है, चारों के क्षय से केवलज्ञान होता है, पर यहाँ क्षय का क्रम बतलाते थे कि सबसे पहले मोह का क्षय होता है, पश्चात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण अंतराय का क्षय होता है । मोह दो प्रकार के है―(1) दर्शनमोह और (2) चारित्रमोह । तो दर्शनमोह का क्षय तो चौथे गुणस्थान से लेकर 7वें गुणस्थान तक किसी भी जगह हो सकता है और चारित्रमोह का क्षय 7वें गुणस्थान से ऊपर प्रारंभ होता है, कुछ 9वें में क्षय होता, कुछ 12वें में क्षय हो जाता । 10वें गुणस्थान के अंत तक समस्त मोह का क्षय हो जाता है, उसके पश्चात् 12वां गुणस्थान मिला सो 12वें गुणस्थान के अंत में बचे हुये ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय का क्षय हो जाता है । यह क्रम बताने के लिये मोहक्षयाज् यह पद अलग दिया है और ज्ञानादिक का पद अलग दिया है । यहाँ पंचमी विभक्ति का प्रयोग किया गया जिससे यह जाहिर होता कि केवल ज्ञान की उत्पत्ति का हेतु चार घातिया कर्म का क्षय है । एक बार केवलज्ञान हुए बाद फिर केवल ज्ञान चलता ही रहेगा । फिर निमित्त नहीं है अर्थात प्रथम-प्रथम जब केवलज्ञान उत्पन्न हुआ तो वहाँ चार घातिया कर्मों के विनाश का निमित्त जाकर हुआ । मोहादिक प्रकृतियों का क्षय कैसे होता है? तो उनके क्षय का कारण है परिणाम क विशुद्धि ।
आत्मविकास का प्रारंभ और आत्मविकास की पूर्णता―कुछ थोड़ा भी आत्मा को अवसर मिले, कुछ ज्ञान बढ़े, कुछ उपदेश मिलें, कुछ चिंतन चला कि तत्त्व मनन किया तो इस पुरुषार्थ से तो उन 7 प्रकृतियों में ढिलाई आ जाती है । और ऐसी विशुद्धि होते-होते जब करणलब्धि मिलती है तो उस विशुद्धि से इन 7 का क्षय हुआ और क्षय होते ही सम्यग्दर्शन हुआ । सो सबसे पहले जीव को जिसको कभी भी सम्यक्त्व नहीं हुआ, प्रथमोपशम सम्यक्त्व हुआ । अब इस विधि से सुनें कि वह जल्दी से जल्दी निर्वाण मिले तो किस तरह प्रगति होती है? प्रथमोपशम सम्यक्त्व के बाद क्षायोपशमिक सम्यक्त्व हुआ । प्रथमोपशम सम्यक्त्व से पहले 5 प्रकृतियां थीं दर्शनमोह की एक मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कषाय की चार, पर जैसे ही प्रथमोपशम सम्यक्त्व हुआ तो मिथ्यात्व के तीन टुकड़े हो जाते तब 7 प्रकृतियों की सत्ता हो जाती । दबी हैं वे सब, मगर सत्ता है उनकी । तो उनमें से अनंतानुबंधी 4, मिथ्यात्व सम्यग्मिथ्यात्व उनका तो हो जाये उदयाभावी क्षय याने उदय से एक समय पहले अन्य प्रकृति रूप बदलकर खिरते जाना और इन 6 का जो कभी आगे उदय में आ सकेंगे उनका हो जाये उपशम अर्थात वे कहीं उदीरणा में न आ जायें ऐसे क्षय और उपशम होने पर और सम्यक् प्रकृति का उदय होने पर क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है । फिर यह क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टि 7 प्रकृतियों का क्षय कर दे तो इसके क्षायिक सम्यक्त्व हो जाता है । यह यदि उपशम श्रेणी से चढ़ेगा तब तो एक बार वीतराग होकर भी गिर जायेगा ओर क्षपक श्रेणी से चढ़ेगा तो वह गिरेगा नहीं । चारित्रमोह का क्षय करता हुआ वह 10वें में समस्त चारित्रमोह से रहित हो जाता है अंत में । और उसके बाद 12वां गुणस्थान पाकर अंत में तीन कर्मों का नाश करके केवलज्ञानी हो जाता है । इस चारित्रमोह के नष्ट होने की विधि यह है कि जब यह 9वें गुणस्थान में पहुँचा तो वहाँ नपुंसक वेद, स्त्रीवेद याने नोकषाय और अप्रत्याख्यानावरण प्रत्याख्यानावरण दोनों के क्रोध को, मान को और माया को नष्ट करता है । सो यह नोकषाय को तो पुरुषवेद रूप बना डालता पुरुष वेद को संज्वलन क्रोध रूप बना डालता, संज्वलन क्रोध को मान रूप बनाता और संज्वलन मान को माया रूप से बनाता और फिर उन सबको नष्ट कर देता है, तब यह 10वें गुणस्थान में पहुँचता है और वहाँ लोभ कषाय को भी नष्ट कर देता है । तो यों 12वें गुणस्थान में जाकर शेष घातिया कर्मों का विनाश कर केवलज्ञान प्राप्त कर लेता है । उस केवल ज्ञान में त्रिकालवर्ती सर्व द्रव्य पर्यायें झलकती रहती हैं । अब ये शरीर सहित परमात्मा कहलाते हैं इस सशरीर परमात्मा के जब शेष बचे अघातिया कर्म नष्ट हो जाते हैं तब उनका मोक्ष कहलाता है । इस समस्त मोक्ष की प्रक्रिया में करने का उपाय एक ही है कि अपना जो सहज चैतन्य स्वरूप है उसमें यह मैं हूँ ऐसा अनुभव करना, अन्य रूप अनुभव न करना ।
संकटों की मूल करतूत―भैया ! रागद्वेष मोह जो सताते हैं और जो बाह्य पदार्थों से लगाव बनता है उस सबका कारण यह है कि यह अपने चैतन्य स्वरूप को मैं नहीं मान पा रहा है और पर्याय को, शरीर को इनमें ही मैं मानता है देखिये―जिसको अपनी नामवरी का बड़ा ख्याल है, मेरा नाम चले, फैले तो समझिये कि उसके मिथ्यात्व का उदय है । जब देह को माना कि यह मैं हूँ तब देह के नाते से अब यह नाम चाहिये फोटो क्या आत्मा की उतारी जायेगी? अरे फोटो तो इस शरीर की उतरती है । नाम क्या आत्मा का कोई लिखवाता है? अब कमरा बनवाकर क्या कोई यह कहता है कि इसमें लिख दो कि यह कमरा चैतन्यस्वरूप ने बनवाया? हाँ किसी का नाम ही अगर चैतन्य स्वरूप हो तो भले ही लिखवायेगा मगर वह देह के नाम के कारण लिखवायेगा, और फिर चैतन्य स्वरूप कमरा बनवाता ही नहीं । वह तो सहज अविकार शुद्ध चैतन्य स्वभाव मात्र है । जिसने जाना कि यह मैं हूँ, ऐसा श्रद्धान बन जाए तो उसकी चेष्टा नामवरी की नहीं हो सकती । तो जिसको अपने आपके स्वरूप की सुध है वही धर्म मार्ग में लगेगा, पर्याय बुद्धिवाला धर्म मार्ग में नहीं है । धर्म मार्ग में लगे हुये मुनि के कर्म स्वत: नष्ट हो जाते हैं । कर्म को देखकर, सोचकर नाश नहीं किया जा सकता । तो अपने स्वरूप की सुध रहे और उसी में दृष्टि बनाये रहें तो स्वयं ही कर्म अपना बल समाप्त कर देते हैं और कर्म दूर हो जाते हैं । तब चारों तरफ कुछ नहीं निरखना । यहाँ तक कि अपने शरीर की चेष्टा भी नहीं निरखना है, किंतु अंदर में अपने चैतन्य स्वरूप में यह मैं हूँ इस प्रकार का अनुभव करना है । तो जिस प्रकार भी प्रगति होगी वह हो जायेगी । जो जीव ऐसा पौरुष करते हैं उनकी बंधी हुई कर्म प्रकृतियों में स्थिति क्षीण होगी, अनुभाग क्षीण होता है याने फल देने की शक्ति कमजोर हो जाती है । तो इस प्रकार निर्जरा होकर उन कर्मों का पूर्ण अभाव हो जाता है ।
ज्ञानानुराग की महिमा―यह जीव इस समय बड़े बंधन में है, पर बंधन को निरखने से कार्य न बनेगा । जो स्वयं है आत्मा का सहज स्वरूप उसमें आपा अनुभव करने से इस जीव की प्रगति बन सकेगी । सो सबसे पहले इस जीव के मोह का क्षय हो जाता है । पश्चात् 3 घातिया कर्मों का क्षय होता है और इसके केवलज्ञान हो जाता । इस केवलज्ञान की प्राप्ति के लिए ज्ञानस्वरूप में उमंग होनी चाहिए और सम्यग्ज्ञान के साधनों में भक्ति होनी चाहिए । जो ज्ञान में अनुराग रखता है, बढ़ाता है, शास्त्रों का प्रचार करता है ये सब केवलज्ञान के बीज होते हैं । अन्य-अन्य प्रकार के दान थोड़ा-थोड़ा भी सुगति देंगे, धन लाभ होगा, लोक में इज्जत बनेगी, पर ज्ञानदान, ज्ञान के प्रति भक्ति यह केवल ज्ञान का बीज होना है और इसी कारण 4 दानों में ज्ञान दान को प्रधान कहा है और आचार्यों ने युक्ति पूर्वक बताया कि आहार दान से तो 24 घंटे में पात्र को सुख शांति पहुंचेगी, औषधि दान देने से कुछ महीने आराम से रहेगा, अभयदान देने से उसी दिन उन समयों में उसको निर्भयता हो जाएगी, पर ज्ञानदान से अगर वह ज्ञान प्रकाश पा लेता है तो अनंत काल तक संसार के संकटों से छुट जाए, ऐसी स्थिति पास है तो वह केवल ज्ञान की प्राप्ति करता है । केवलज्ञान ही उपादेय है । वही आत्मा का स्वाभाविक रूप है । ऐसा निरखकर एक ज्ञान के प्रति भक्ति उमड़ना, यही एक कल्याण का उपाय है । अब केवलज्ञान हुए बाद इस जीव की कैसी स्थिति होती है, किस प्रकार मोक्ष होता है, अथवा सामान्यतया मोक्ष का क्या उपाय और स्वरूप है, यह बताने के लिए सूत्र कहते हैं ।