वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 4-42
From जैनकोष
लौकांतिकानामष्टौ सागरोपमाणि सर्वेषाम् ।। 4-42 ।।
लौकांतिक देवों की भुज्यमान आयु स्थिति―सभी लौकांतिक देवों की उत्कृष्ट स्थिति 8 सागर प्रमाण होती है । यह स्थिति जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकार की है अर्थात् एक ही प्रमाण की स्थिति लौकांतिक देवों में होती है । प्रश्न―यहाँ स्थिति का बनावा क्यों दिखाया जा रहा है जैसे घटपट हैं तो उनकी स्थिति भी स्वयं है ऐसे ही जब ये देह है तो इनकी स्थिति भी खुद होती है । उत्तर―घटादिक उपभोग्य पदार्थों की स्थिति भी प्राय: उपभोक्ता के साताअसाता आदि कर्मविपाकानुसार होती है अन्यथा अनेक समान घट आदि होने पर भी ये क्यों फूटे, दंडा इन पर ही क्यों पड़ा? स्पष्ट है, भोक्ता को ये उपभोग्य नहीं होने थे । अथवा यहाँ तो जीव की स्थिति देह में कब तक है? यह विवक्षा है इसी को स्थिति कहते हैं । इस मोक्षशास्त्र ग्रंथ में चौथे अध्याय तक जीव पदार्थ का व्याख्यान है और यह चतुर्थ अध्याय का अंतिम सूत्र है । इस सूत्र के साथ जीव पदार्थ का व्याख्यान हो चुकता है और आगे पंचम अध्याय में अजीव पदार्थ का व्याख्यान चलेगा ।
अभाव विलक्षणत्व सूचक जन्मस्थित्यादि षट् धर्म होने से जीव की भावात्मकता की सिद्धि―इस वर्णित जीव पदार्थ के अंतिम वर्णन के समय जीव के संबंध में कुछ विशेष जानकारी करने के लिए कहते हैं कि वह जीव एक होकर भी अनेकात्मक है । जिन जीवों का अब तक वर्णन किया गया है वे प्रत्येक जीव एक-एक हैं और वे एक होकर भी अनेकात्मक हैं, क्योंकि यह जीव पदार्थ अभाव से विलक्षण है, अभाव का जो अर्थ है उसमें क्या भेद होंगे? नहीं । अभाव तो निषेधमात्र है, पर यह तो भावात्मक पदार्थ है, सद्भूत है, तो यह एक होकर भी अनेक रूप हैं, और जीव ही क्या जितने भी पदार्थ हैं वे सब एक-एक होकर भी अनेक रूप होते हैं―जो भी पदार्थ हैं । प्रकृत में जीव की बात कह रहे हैं कि इसमें जन्म, स्थान, स्थिति, विपरिणमन, वृद्धि, अपक्षय और विनाश ये 6 बातें देखी जा रही हैं । तो इन 6 बातों का होना एक भावात्मक पदार्थ को ही सिद्ध करता है । यद्यपि सामान्यतया जीव द्रव्य का जन्म नहीं होता । वह तो अनादि सिद्ध है, फिर भी भिन्न-भिन्न पर्यायों रूप में इसकी मुद्रा बनना यह ही जन्म कहलाता चला जाता है । तो बाह्य और अंतरंग निमित्त को पाकर यह जीव नवीन-नवीन पर्यायों को प्राप्त होता है याने आत्मलाभ करता है । यह ही इसका जन्म है । जैसे मनुष्य गति के उदय से जीव मनुष्य पर्याय रूप से उत्पन्न होता है, तिर्यन्च गति के उदय से जीव तिर्यन्च पर्याय रूप से उत्पन्न होता है, ऐसी नवीन-नवीन पर्यायों में आना, यह ही इसका जन्म है और यह जन्म, यह उत्पाद जीव के सत्त्व को सिद्ध करता है । स्थिति क्या है? यद्यपि द्रव्य की दृष्टि से इसके सदैव स्थिति है, पर इस बाह्य रूप से देखा जाए तो आयु कर्म के उदय के अनुसार उस पर्याय में जीव का बना रहना, यह जीव की स्थिति है, और वृद्धि क्या है कि पूर्व स्वभाव को कायम रखते हुये अधिकता हो जाना वृद्धि है । अपक्षय क्या है? क्रम से एक देश का जीर्ण होना अपक्षय है, और विनाश क्या है? उस पर्याय की निवृत्ति हो जाना याने वह हट गया, दूसरी पर्याय आयी, वहाँ जो पूर्व पर्याय का हट जाना है यही विनाश कहलाता है । तो इस तरह से जीव पदार्थ में अनंत रूपता सिद्ध है और यह एक होकर अनेक रूपता जो विदित हुई है इसमें जीव का सत्त्व जाना जाता है । जो सत् है वह एक होकर भी अनेकात्मक है । सभी पदार्थ एक होकर अनेकात्मक होते है । जैसे इन 6 बातों को देखकर अनेकात्मकता का बोध किया गया इसी तरह जीव में ज्ञेयत्व, सत्त्व, द्रव्यत्व, अमूर्तपना, अति सूक्ष्मपना, अवगाहनत्व, असंख्य बोध प्रदेशतत्त्व अनादि निधन होना आदिक की दृष्टि से जीव अनेकात्मक है ।
अनेक वाग्विज्ञान विषयत्व होने से जीव के अनेक धर्मात्मकत्व की सिद्धि―यह जीव एक होकर भी अनेकात्मक है । यह इस हेतु से भी सिद्ध होता है कि चूंकि जीव अनेक शब्द और अनेक ज्ञान का विषयभूत है । जिस पदार्थ में जितने शब्दों का प्रयोग हो सकता है समझिये उसमें उतनी ही वाच्य शक्तियां हैं, और इसकी प्रकार जो पदार्थ जितने प्रकार के ज्ञानों का विषयभूत होता है उसमें समझिये उतनी ही ज्ञेय शक्तियाँ हैं । जैसे कोई एक ही घट है, उसमें यह घट है, मिट्टी का बना है सत् है, ज्ञेय है, बड़ा है, नया है आदिक अनेक शब्दों का वहाँ प्रयोग हो रहा है तो इतनी ही बातें पायी भी जा रही हैं और इस प्रकार अनेक ज्ञान भी हो रहे हैं । तो-तो इतना ज्ञेय तत्त्व वहाँ मौजूद है । इसी तरह आत्मा भी अनेक शब्दों द्वारा वाच्य है । अनेक विशेषणों से उसका बोध किया जाता है और अनेक दृष्टियों का विषयभूत है, सो आत्मा भी अनेक धर्मात्मक है । तो यह जीव एक होकर भी अनेकात्मक है । ऐसे-ऐसे अनंत जीव हैं ।
अनेक शक्ति प्रचितपना होने से जीव के अनेकात्मकत्व की सिद्धि―अनेक धर्मात्मकता का दूसरा हेतु यह है कि वह अनेक शक्तियों का आधारभूत है, अनंत शक्तियाँ वहाँ पायी जाती हैं इस कारण जीव अनेकात्मक है । जैसे घी के संबंध में कितनी बातें समझ में आती हैं? यह तृप्ति करने वाला है, यह पुष्ट करने वाला है, ऐसी उसमें अनेक शक्तियां विदित होती हैं । इसी तरह द्रव्य क्षेत्र काल भाव के निमित्त से यह जीव भी अनेक प्रकार की वैमानिक पर्याय शक्तियों को धारण करता है । तात्पर्य यह है कि जिस जीव के बारे में इन अध्यायों में वर्णन किया गया है वह जीव वास्तविक सद्भूत पदार्थ है । और, वह एक होकर भी अनेकात्मक है ।
अनेक संबंधिरूपता व अनेकोत्कर्षापकर्ष परिणत गुण संबंधिरूपता होने से जीव के अनेकात्मकत्व की सिद्धि―अन्य आपेक्षिक द्रव्यों से भी अनेकात्मकता पदार्थ में विदित होती है । जैसे एक ही घड़ा है, तो वह अन्य संबंधित या अगल-बगल स्थित पदार्थों की अपेक्षा पूर्व, पश्चिम आदिक भेद हो जाते हैं । यह घड़ा है, पूर्व में रखा है, यह घड़ा पश्चिम में रखा हैं, तो किसी अन्य चीज की अपेक्षा से इस प्रकार विदित होता है, यह दूर है, यह पास है, यह पुष्ट है, यह नया पुराना है, यह इतना बड़ा है आदिक अनेक व्यवहार उसमें पाये जाते हैं, तो अनेक वचन व्यवहार का विषयभूत होने से वह घड़ा अनेक धर्मात्मक है, ऐसे ही यह आत्मा भी अनेक संबंधियों की अपेक्षा उन-उन अनेक तथ्यों वाला विदित होता है । जैसे इन अंगुलियों में ही कोई एक अंगुली किसी की अपेक्षा छोटी है, किसी की अपेक्षा बड़ी है तो वहाँ जैसे अनंत धर्म आपेक्षित विदित होते हैं, तो यह परिचय सत्ता को सिद्ध करता है कि जीव वास्तविक सत् है । कर्म नोकर्म के संबंध से इस जीव के विषय में जीव स्थान गुणस्थान आदिक अनेक भेद हो जाते हैं, जैसे दंडा के संबंध से दंडी मनुष्य, कुंडल के संबंध से कुंडली मनुष्य । तो यह अनेकात्मकता सत्त्व को सिद्ध करती है कि यह जीव भावात्मक पदार्थ है । किंच जैसे किसी सहयोगी गुण की अपेक्षा घड़े में अनेक बातें विदित होती हैं, यह घड़ा इतना है अथवा इसके पीलेपन में यह कम पीला, यह अधिक पीला इस तरह विदित होता है, ऐसे ही जीव में भी क्रोध, मान आदिक जो उत्पन्न होते हैं उनकी डिग्रियों के भेद से इसमें भी अनेक प्रकार की विशेषतायें व्यवहृत होती हैं । तो अपेक्षाकृत, शक्तिकृत, पर्यायकृत जो अनेकात्मकतायें हैं, वे सब जीव को भावात्मक सिद्ध करती हैं । जीव की अनेकात्मकता सिद्ध करने के प्रकरण में अनेक दृष्टियों से अनंत धर्म बताये जा रहे है ।
अतीतानागतवर्तमामकाल संबंधित होने से जीव की अनेक धर्मात्मकता की सिद्धि―और भी देखिये―जैसे कोई मिट्टी आदिक पदार्थ प्रध्वंस रूप है, अतीत है, संभावना रूप है, निरंतर क्रिया चल रही है ऐसा वर्तमान काल रूप है, ऐसे इन अनेक कालों में अनेक पर्यायोंरूप विदित होता है, ऐसे ही यह जीव अनादि काल से है, यह भी तो विदित होता है, अनंत काल तक रहेगा । यह अनंत अतीतों में गुजर चुका है, यह ऐसी पर्यायों को पायेगा । उसकी वर्तमान अर्थपर्याय, वर्तमान व्यंजनपर्याय इन सभी को निरखकर यहाँ अनेक रूपता विदित होती है । और, है भी यों नाना रूप । जैसे कि यदि यह कह दिया जाये कि जीव तो वर्तमान मात्र है, तो इसके मायने हैं कि न अतीत है न भविष्य है, पूर्व और उत्तर की रेखा रही ही नहीं । तो जहाँ पूर्व और उत्तर की रेखा नहीं है बही वर्तमान काल भी कैसे टिक सकेगा? तो यह सब काल अपेक्षा तथ्य भी जीव के विदित होता है, अत: जीव अनेकात्मक है और इसी कारण भावात्मक है ।
अनंत काल और एक काल में अनंत उत्पादव्यय ध्रौव्ययुक्तता होने से जीव पदार्थ की अनेकात्मकता व भावात्मकता की सिद्धि―जीव पदार्थ का चतुर्थ अध्याय तक वर्णन हुआ । उसमें यह जिज्ञासा हुई थी कि जीव नामक पदार्थ ही तो सिद्ध कर ले कि वह है भी कुछ । तब तो उसके बारे में आवास स्थिति परिणति भाव आदिक सब बातें बताना उपयुक्त है । तो उसी जिज्ञासा के समाधान में यह प्रकरण चल रहा है कि जीव भावस्वरूप है और इसी कारण वह अनेक धर्मात्मक है । जीव की अनेक धर्मरूपता सिद्ध की जा रही है जिसमें कुछ हेतु तो बताये गये थे, अब यहाँ एक हेतु और ध्यान में लीजिये चूंकि यह जीव अनंत काल और एक काल में अनंत प्रकार के उत्पाद व्यय ध्रौव्य से युक्त है अत: आत्मा अनेक धर्मरूप है । इसे एक दृष्टांत से समझिये । जैसे घड़ा एक काल में द्रव्यदृष्टि से देखने पर वह पार्थिव रूप में उत्पन्न होता है, जल रूप में नहीं, क्षेत्र दृष्टि से यहाँ उत्पन्न होता है बंबई आदिक जगह में नहीं । काल दृष्टि से वर्तमान काल में उत्पन्न होता है अतीत भविष्य काल में नहीं । भावदृष्टि से मानो बड़ा उत्पन्न होता है तो छोटा नहीं । इस घट का यह उत्पाद अन्य सजातीय घटों से, उन घटों के उत्पादों से भिन्न है । साथ ही अन्य विजातीय घटों से जो अन्य-अन्य शक्लों में हैं, पीतल आदिक अनेक द्रव्यों में हैं उनके उत्पादों से भी भिन्न है । यह उत्पाद पूर्ण विजातीय कपड़े आदिक पदार्थों के अनंत उत्पादों से भी भिन्न है तथा अत्यंत भिन्न प्रकार के जीव, धर्म, अधर्म आदिक के उत्पादों से भी भिन्न है । तब देखिये―यहाँ अनंत उत्पाद दृष्टि में आ गए । अब यह तो एक सामान्य रूप से देखा, अब उसी समय उस उत्पाद को देखिये, तो उत्पन्न न होने वाले द्रव्यों की ऊपर-नीची, तिरछी, लंबी-चौड़ी आदिक अवस्थाओं से भिन्न है सो वह उत्पाद भी अनेक प्रकार का सिद्ध हुआ । इस घट का उत्पाद, वह उत्पाद अनेक अवयव वाले मिट्टी के स्कंध से उत्पन्न हुआ है इस कारण अनेक प्रकार का है । अन्य प्रकार से भी देखिये तो वह उत्पाद जल धारण, जल खींचना, दूसरों का हर्ष कारण होना, किसी को भय शोक का कारण होना आदिक अनेक अर्थ क्रियाओं में निमित्त है, इस दृष्टि से भी यह उत्पाद अनेक तरह का है, और जैसे ये उत्पाद अनेक तरह के विदित हो रहे हैं तो उसी समय उतने ही उसके प्रतिपक्ष भूत व्यय हो रहे हैं । जब पूर्व पर्याय का विनाश नहीं तब नूतन पर्याय की उत्पत्ति की संभावना नहीं । तब ही तो उत्पाद और विनाश ये प्रतिपक्षभूत हैं, और इन दोनों का प्रतिपक्षभूत है ध्रौव्य याने उसकी स्थिति । सो इस ही कारण अर्थात् उत्पाद और विनाश के प्रतिपक्षभूत होने से यह स्थिति भी उतनी ही प्रकार की है, क्योंकि जो स्थिति नहीं उसका उत्पाद और व्यय नहीं हो सकता ।
उत्पद्यमानता उत्पन्नता व विनाश इन तीन अवस्थाओं से युक्तता होने से जीव पदार्थ की अनेकात्मकता व भावात्मकता की सिद्धि―अब साधारणतया देखें तो पदार्थ में ये तीन अवस्थायें माननी पड़ती हैं―उत्पद्यमानता, उत्पन्नता और विनाश, क्योंकि जब यह प्रयोग हो रहा कि घट उत्पन्न होता है तो बतलाओ इस प्रयोग को क्या आप भले प्रकार वर्तमान कह सकते कि घट उत्पन्न होता है? इस प्रयोग को वर्तमान नहीं कह सकते, क्योंकि उत्पन्न होता है, इस प्रयोग में यह ध्वनित होता है कि अभी तक घड़ा उत्पन्न नहीं हुआ । उत्पन्न हो रहे को उत्पन्न हुआ है यह नहीं कहा जाता और उत्पत्ति के बाद तुरंत विनाश मान लिया जाए तो स्थिति का प्रतिपादक कोई शब्द ही प्रयोग में न होगा । सो तीन अवस्थायें माने बिना उत्पाद में भी अभाव, विनाश में भी अभाव होगा और इस तरह पदार्थ का अभाव ही होने से व्यवहार का भी लोप हो जायेगा । तो यों पदार्थ में उत्पद्यमानता, उत्पन्नता और विनाश ये तीन अवस्थायें माननी होती हैं । तो इस तरह यह सब बात जैसे घट के उदाहरण में बतायी गई है ऐसे ही जीव पदार्थ में भी समझना । एक जीव में भी द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिकनय के विषयभूत अनंत शक्तियाँ उत्पत्ति विनाश और स्थिति रूप होने से अनेकात्मकता से पूर्ण है ऐसा समझना चाहिये । इससे सिद्ध होता है कि जीव भावस्वरूप है और अनेकात्मक है ।
अन्वय व्यतिरेकात्मकता होने से जीव पदार्थ की अनेकांतरूपता व भावस्वरूपता की सिद्धि―अब जीव की अनेकात्मकता समझने के लिये एक यह भी हेतु देखिये कि जीव चूंकि अन्वय व्यतिरेक रूप है, इस कारण अनेक धर्मात्मक है । अनुगताकार विधि से तो अन्वय समझा जाता है और व्यावृत्ताकार विधि से व्यतिरेक समझा जाता है । जैसे एक घड़े के उदाहरण से समझें, एक ही घड़ा सत् है, अचेतन है आदिक के ये सामान्य रूप से अन्वय धर्म है उसमें और वही घड़ा नया है, पुराना है आदिक सो विशेष रूप से इस व्यतिरेक धर्मों का आधारभूत है वह घट । ऐसे ही इस आत्मा के विषय में समझना कि यह आत्मा आत्मत्त्व ज्ञातृत्व, द्रष्टत्व, कर्तापन, भोक्तापन, अमूर्तपना आदिक अन्वय धर्म से सहित है क्योंकि इन धर्मो से अनुगताकार विधि बनती है । वही-वही है, ऐसी विधि को अनुगताकार कहते हैं, और यही आत्म उत्पाद, स्थिति, विपरिणमन, वृद्धि, हृास, विनाश, गति, इंद्रिय, काय, योग, ज्ञान-दर्शन, संयम-दर्शन, लेश्या, सम्यक्त्वादिक अनेक व्यतिरेक धर्म से पूरित हैं । तो यों अन्वय व्यतिरेक रूप होने से यह आत्मा अनेक धर्मात्मक है । जो अनेक धर्मात्मक है वह भाव रूप है याने वास्तव में सद्भूत है, उसी जीव के बारे में चार अध्यायों तक संक्षेप में परिचय दिया गया है ।
सकलादेश व विकलादेश से समझ व अभिधान होने से जीव पदार्थों की अनेक धर्मात्मकता व भावात्मकता की सिद्धि―अब अनेकात्मक जीव का परिचय ज्ञान के उपाय से समझिये । इस अनेकात्मक जीव का कथन दो रूप में होता है । (1) क्रमिक रूप और, (2) यौगपद्य रूप । कथन का और कोई तीसरा प्रकार नहीं है, सो जब आत्मा के अस्तित्त्व आदिक अनेक धर्म काल आदिक की अपेक्षा भिन्न-भिन्न रूप से विवक्षित होते हैं उस समय जिन शब्दों से कहा गया, उन शब्दों में चूंकि अनेक अर्थ के प्रतिपादन की शक्ति नहीं है, इस कारण क्रम से प्रतिपादन होता है और शब्द द्वारा क्रमिक प्रतिपादन को विकलादेश कहते हैं । विकलादेश नयों में हुआ करता है, परंतु जब उन्हीं अस्तित्वादिक धर्मों को अभेद रूप से कहने-समझने की विवक्षा होती है उस समय यद्यपि बोला गया तो एक ही शब्द और उस शब्द का वाच्य हुआ कोई एक धर्म, किंतु अभेद-विवक्षा होने से एक धर्म के कथन द्वारा ही सभी धर्मों का युगपत् कथन हो जाता है, क्योंकि वहां अभेद विवक्षा है । तो उस धर्म से उन अनेक धर्मों का बोध हो गया जो कि सभी तादात्म्य रूप से एकत्व को प्राप्त है सो वहाँ सर्व का कथन हो गया । इस प्रकार यह सकलादेश कहलाता है । सकलादेश होता है प्रमाण रूप । तात्पर्य यह है कि वस्तु में इन अनेक धर्मों का प्रतिपादन और परिचय नयदृष्टि से भी चलता है और प्रमाणदृष्टि से भी चलता है ।
सकलादेश में सप्तभंगी होने का निर्देश―अब सकलादेश में स्याद्वाद किस प्रकार होता है और उसमें प्रत्येक धर्म की अपेक्षा कैसे सप्तभंगी होती है यह सब बात बतायेंगे । पर उन सबको समझते समय यह ध्यान से न भूलना कि इन सब कथनों में एक गुण रूप में संपूर्ण वस्तु धर्मों का अखंड भाव से ग्रहण किया गया है, क्योंकि अन्य नहीं कहा गया धर्म, इस धर्म के साथ ही रहते हैं अन्यथा जिस धर्म का प्रयोग किया गया है वह भी न रह सकेगा । इस तरह से संपूर्ण वस्तु का परिचय होता है । इसी को अभेद वृत्ति कहते हैं जिसमें कि एक ही शब्द से अभेदोपचार पूर्ण वस्तु का प्रतिपादन होता है । मोटे रूप से यह जानें कि द्रव्यार्थिकनय से तो धर्मों में अभेद है और पर्यायाथिकनय की विवक्षा में भेद होने पर भी जहाँ समग्र वस्तु का परिचय किया जा रहा है वहाँ उन सबका अभेदोपचार कर लिया जाता है । तो इस तरह एक-एक धर्म के प्रतिपादन के समय प्रमाण दृष्टि में अन्य समस्त धर्मों का एक साथ कथन हो जाया करता हैं, इस तरह एक-एक धर्म के परिचय के कथन में 7-7 भंग हो जाया करते हैं ।
प्रमाण सप्तभंगी के भंग में विशेष्य विशेषण व अवधारण का प्रकाश―प्रमाण सप्तभंगी के भंग इस प्रकार हैं―(1) स्यात् अस्तिएव जीव:, (2) स्यात् नास्तिएव जीव:, (3) स्यात्अवक्तव्य एव जीव:, (4) स्यात् अस्ति नास्ति च जीव, (5) स्यात् अस्ति अवक्तव्य: जीव:, (3) स्यात् नास्ति अवक्तव्य: जीव:, (7) स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य: जीव: । इसका अर्थ इस प्रकार है कि―(1) एक अपेक्षा से है ही है जीव, (2) एक अपेक्षा से नहीं ही है जीव, (3) एक अपेक्षा से अवक्तव्य ही है जीव, (4) एक अपेक्षा से है और नहीं है जीव, (5) एक अपेक्षा से है और अवक्तव्य है जीव, (6) एक अपेक्षा से नहीं है और अवक्तव्य है जीव, (7) एक अपेक्षा से है और नहीं तथा अवक्तव्य है जीव । पहले भंग में जीव शब्द तो विशेष्य है और द्रव्यवाची है तथा अस्ति शब्द विशेषण है याने एक अस्तित्त्व गुण बताता है और इन दोनों का साथ करने में अर्थ हुआ कि जीव है । ये दोनों आपस में विशेषण, विशेष्य हो गये । जीव कैसा है? अस्तित्त्व गुणमय है । इस विशेषण विशेष्य भाव को प्रकट करने के लिये एव शब्द कहा है ताकि इन शब्दों द्वारा उसका निश्चय हो जाये और अन्य धर्मों की निवृत्ति हो जाये । विशेषण, विशेष्य में ऐसा ही अवधारण होता है । जैसे कोई फूल लाल है, वहाँ यह कहता कि यह फूल लाल है, इसमें निश्चय बसा है कि यह फूल लाल ही है, अन्य रंग वाला नहीं । जैसे कोई कहे कि कौवा काला है उसका अर्थ ही यह है कि कौवा काला ही है, अन्य रंग वाला नहीं । तो विशेषण, विशेष्य भाव का जहाँ प्रयोग होता है वहाँ अवधारण बनता है । चाहे कोई एव या ही शब्द कहकर जताये अथवा न जताये, अवधारण करना बहुत जरूरी था ।
प्रमाण सप्तभंगी के भंगों में स्यात् शब्द की अनेकांतद्योतकता―सप्तभंगी के भंग में अवधारण से शब्द द्वारा जो एक धर्म कहा गया वह ग्रहण में आया, अन्य धर्म ग्रहण में न आया लेकिन अन्य धर्म भी इसके साथ हैं । यदि अन्य धर्म इसके साथ न हों तो ये प्रस्फुट धर्म भी न रह सकेंगे । इस बात को सिद्ध करने के लिए इस भंग में स्यात् शब्द का प्रयोग किया गया है । तब भंग बना स्यात् अस्तिएव जीव: यह स्यात् शब्द तिङंत का शब्द है । यह क्रियावाचक शब्द नहीं है । स्यात् शब्द अस् धातु के लिङ् लकार में बनता है, परंतु वह शब्द नहीं है यहाँ यह तो अपेक्षा सूचक शब्द हे । इस स्वात शब्द के अनेक अर्थ हो सकते हैं । जैसे―अनेकांत, विधि, उपचार, आश्रय आदिक परंतु विवक्षावश यहाँ अनेकांत अर्थ लिया गया है ।
स्यात् शब्द से अनेकांत का द्योतन होने पर―अब यहाँ एक जिज्ञासा हो सकती कि स्यात् शब्द ही जब अनेकांत का द्योतक है तो स्यात् शब्द से ही पूरी वस्तु ज्ञान में आ गई फिर आगे किसी धर्म को कहने की जरूरत क्या है? तो उत्तर यह है कि यद्यपि स्यात् शब्द से सामान्यतया अनेकांत का द्योतन हो जाता है फिर भी विशेष जिज्ञासा में रहता ही है तब वहाँ विशेष शब्दों का प्रयोग करना होता है । जैसे वृक्ष शब्द कह दिया तो सभी का ग्रहण हो गया, मगर जो जिस वृक्ष का इच्छुक है या उन्हें समझना आवश्यक है वहां उसका प्रयोग तो करना ही पड़ता है । जैसे―नीम वृक्ष, आम वृक्ष ऐसे ही यहाँ स्यात् शब्द का प्रयोग करने पर अनेकांत की सूचना हो गई, फिर भी कुछ समझे बिना तो तीर्थ नहीं चलता, इसीलिये प्रथम भंग में अस्तिएव जीव: यह भी प्रयोग करना पड़ा है ।
प्रमाण सप्त भंगी में भी शब्द प्रयोग की अपेक्षा द्रव्यार्थिक पर्यायार्थिक की प्रधानता व अप्रधानता में अन्य भंगों की उपयोगिता―अब यहाँ एक जिज्ञासा होती है कि प्रमाण सप्तभंगी में प्रथम भंग बताया है स्यात् अस्तिएव जीव और यह वाक्य सकलादेशी है तो इस ही वाक्य से जीव द्रव्य के समस्त धर्मों का संग्रह हो ही गया है फिर आगे के भंग क्यों कहे जाते हैं? तो समाधान यह है कि भले ही सकलादेश का आशय होने से समग्र वस्तु का बोध हो गया फिर भी शब्दों का जहाँ प्रयोग होता है वहाँ मुख्य और गौण प्रकरण हो ही जाता है । तो इसी मुख्य और गौण को विवक्षा में सभी भंग आवश्यक हो जाते हैं । जैसे द्रव्यार्थिक की प्रधानता में और पर्यायार्थिक की गौणता होने पर प्रथम भंग का प्रयोग सही हो जाता है और जब पर्यायार्थिक की प्रधानता हो और द्रव्यार्थिक की गौणता हो वहाँ द्वितीय भंग स्पष्ट होता है । यहाँ जो प्रधानता और गौणता बतायी जा रही है सो सिर्फ शब्द प्रयोग की ही है, क्योंकि सकलादेश के अभिप्राय में अर्थात् प्रमाण सप्तभंगी के किसी भी भंग में पूर्ण वस्तु ही ग्रहण हो जाती है, परंतु जो शब्द से कहा गया वह तो है प्रधान और जो शब्द से नहीं कहा गया वह है यहाँ अप्रधान । इसी तरह तीसरे भंग में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक की एक साथ विवक्षा है और युगपद् विवक्षा होने पर दोनों ही प्रधान हो जाते है सो चूंकि इन दोनों धर्मों को प्रधान रूप से कहने वाला कोई शब्द नहीं है, इसीलिये यह तृतीय भंग अवक्तव्य कहलाता है । चतुर्थ भंग में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों ही क्रम से प्रधान किये गये हैं । इसीलिए यह चतुर्थ भंग उभय प्रधानी है, ऐसे ही आगे के तीन भंग क्रम यौगपद्य प्रधानता; अप्रधानता के आशय से बन जाते हैं ।
स्यात् शब्द के प्रयोग से एकांतवाद का परिहार―यहाँ किसी भी भंग में एकांत नहीं है क्योंकि स्यात् शब्द सर्व भंगों में पाया जाता है, यदि स्यात् शब्द हटाकर एकांतवाद का प्रयोग करे―जैसे पहले भंग को कहा कि अस्तिएव जीव: अथवा उलट दो, जीव एव अस्ति तो उससे यह निश्चय बनेगा कि जीव ही है, अजीव आदिक कुछ नहीं हैं । तो कुछ जगत में हैं वे सब जीव हैं, किंतु ऐसा तो है नहीं । जीव भी एक पदार्थ है, परमाणु भी एक पदार्थ है । तो एकांतवाद के प्रयोग से सर्व कुछ सत् एक ब्रह्ममात्र, जीवमात्र रह गया, जो कि अन्य वस्तुओं का लोप करने वाला है । सो अस्तिएव जीव यहाँ अस्ति के साथ एव शब्द लगाया है । है ही जीव, ऐसा कहने से कि कोई अगर एकांत करे और स्यात् शब्द का प्रयोग हटा दे तो पुद्गल आदिक के अस्तित्त्व से भी जीव का अस्तित्त्व एक हो जायेगा । याने जीव पुद्गल एक बन जायेगा―अस्तिएव ऐसा कहने से । इसी कारण भंग का प्रयोग बड़ी सम्हाल के साथ किया गया है ।
प्रत्येक भंग में स्यात् के साथ एव शब्द के प्रयोग का महत्त्व―अब यहाँ स्यात् शब्द किस विवक्षा को प्रकट करता हैं सो ध्यान में लीजिये । जो अस्ति है वह अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से है । किसी अपेक्षा से है ही जीव । इस भंग का अर्थ है कि अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से अस्तित्त्व है जीव में, परंतु अन्य अपेक्षा से अस्तित्त्व नहीं है, याने अन्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से अन्य पदार्थों के रूप से अस्तित्त्व नहीं है । ऐसा अर्थ जब पहले मन में विविक्षित है तो दूसरे भंग में भी यही बात आयी, पर प्रधान और अप्रधान का अंतर रहा । दूसरे भंग में बताया है कि एक अपेक्षा से नहीं है जीव अर्थात् अन्य पदार्थों के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के रूप से नहीं है जीव । यहाँ पर्यायार्थिक की प्रधानता रही, द्रव्यार्थिक की गौणता रही लेकिन ग्रहण सबका हो गया । सिर्फ प्रस्तुत और अप्रस्तुत का अंतर है । इसी में यह सिद्ध हुआ कि जीव अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से है, पर के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से नहीं है । अब इन दो बातों में से कोई किसको मना करेगा । यदि कोई यह कह बैठे कि हम दूसरा भंग नहीं मानते, याने परद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से नहीं है, यह बात नहीं तो इसका फल यह होगा कि पर रूप से भी है बन गया, फिर पदार्थ ही कहाँ रहा? कोई कहे कि हम बहुत भंग नहीं मानते तो उसका अर्थ यह रहा कि जीव अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से नहीं है । फिर रहा ही कहाँ पदार्थ । इस कारण अपेक्षा के साथ धर्म का अवधारण करना यह निश्चय भी बताता है और अनेकांत का भी प्रकाश करता है ।
घट के उदाहरण से प्रथम व द्वितीय भंग की वस्त्वधिगम में उपयोगिता व अनिवार्यता का कथन―यहाँ सकलादेश विषयक सप्तभंगी में प्रथम और द्वितीय भंग का अर्थ स्पष्ट किया जा रहा है, जिसमें यह बात दिखाई जा रही है कि जो है वह अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से है, अन्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से नहीं, क्योंकि वह अन्य द्रव्यादिक अप्रस्तुत है । इस विषय को एक और दृष्टांत से समझिये । जैसे घड़ा है तो उसे यों बताया जायेगा कि घड़ा इस पृथ्वी रूप से है, इस क्षेत्र में है, इस काल से है और इस भाव से है, अन्य से नहीं है । यदि यह नियम न माना जायेगा तो वह फिर घड़ा ही नहीं हो सकता । इसमें प्रथम पक्ष तो है सामान्य सत्त्व, द्वितीय पक्ष में और विशेषतया अवधारण है । यदि वह अपने नियत+न्द्रव्यादिक रूप से होने के कारण घड़ा नहीं रह सकता तथा अन्य द्रव्यादिक से नास्तित्त्व नहीं है तो वह महा सामान्य बन जायेगा । फिर घड़ा न रहा । उसका स्पष्टीकरण यह है कि यदि घड़ा इस मिट्टी रूपता की तरह जल आदिक रूप से भी हो जाये तो अब यह जल आदिक रूप भी हो गया, तो सामान्य द्रव्य बन जायेगा । घड़ा न रहा क्योंकि ऐसा होना सब द्रव्यों में पाया जा रहा है । इसी तरह यदि यह घड़ा इस क्षेत्र से होने की तरह अन्य समस्त क्षेत्रों से भी अस्ति हो जाये तो वह घड़ा न रह पायेगा, किंतु आकाश जैसा बन जायेगा, क्योंकि वह अन्य सब क्षेत्रों से भी हो गया । इसी प्रकार जैसे यह घड़ा इस काल की अपेक्षा है ऐसे ही अतीत अनागत काल से भी अस्ति हो जाये तो अब यह घड़ा न रहा, क्योंकि यह अस्तित्त्व त्रिकाल अनुयायी हो गया, यों मिट्टी द्रव्य ही बन गया । इस जैसा वह सर्व काल की पर्यायों में है फिर तो जैसे हम इस देश काल रूप से इस घड़े को देखते हैं और उस घड़े से काम निकालते हैं इसी तरह सब काल सब देश में भी देखा जाना चाहिए और सब देश सब काल में उससे काम होते । रहना चाहिये । इसी प्रकार जैसे यह घड़ा इस नई पर्याय रूप से है ऐसे ही वह पुरानी आदिक सभी पर्यायों रूप से हो जाये, सभी संस्थान आदिक रूप से हो जाये तो वह घड़ा न रहेगा क्योंकि वह सर्वव्यापी बन गया । महा सामान्य हो जायेगा । तो जैसे एक घड़े में अपने नियत द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से अस्तित्त्व है और अन्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से नास्तित्त्व इसी तरह प्रकृत में भी जानना ।
इस जीव को मानो जो मनुष्य पर्याय रूप से जो विवक्षित है उसको अस्तित्त्व युक्त कहा जा रहा हो कि यह जीव अपने इस द्रव्य से है । इस क्षेत्र से है, इस काल से है और इन रूपों से है, ऐसे ही ये अन्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से भी हो जायें तो फिर यह मनुष्य न रहा, क्योंकि अपने नियत, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से न रहा । तो जैसे गधे के सींग कुछ नहीं वैसे ही मनुष्य भी कुछ न रहा । साथ ही जब अन्य द्रव्यादिक रूप से मान लिया तब वह सामान्य रहा, मनुष्य न रहा । जैसे―यहाँ सामान्य सभी में पाया जाता है तो यह ही सब रूप हो गया । जैसे कि यह जीव द्रव्य रूप से है ऐसे ही पुद्गल आदिक रूप से भी हो गया, फिर यह मनुष्य कहाँ रहा, क्योंकि पुद्गल आदिक से भी अस्तित्त्व देखा गया । तो जो अस्तित्त्व सब द्रव्यों में विवक्षित है वह महा सामान्य ही कहलाया अथवा केवल द्रव्य रूप ही रहा इसी तरह जैसे यह जीव इस क्षेत्र में रहने रूप से है इसी तरह अन्य अनियत क्षेत्र रूप से भी हो जाये तो यह मनुष्य ही न रहा यह तो अनियत सर्व देशों रूप हो गया आकाश की तरह । उसी प्रकार जैसे यह वर्तमान काल रूप से है, जैसे कि इस मनष्य रूप में विवक्षित है इसी तरह यदि अतीत नारकादिक पर्याय और अनागत देव आदिक पर्याय के काल रूप से भी हो जाये तो यह मनुष्य न रहा, क्योंकि अब तो यह सर्व कालों से संबंधी हो गया जीवत्व की तरह । फिर तो जैसे हम को इस देश काल विशेष संबंधित रूप से प्रत्यक्ष हो रहा है उसी प्रकार अतीत अनागत काल देश के संबंधी रूप से भी प्रत्यक्ष हो जाना चाहिये । इससे यह सिद्ध हुआ कि यह स्यात् अस्तिएव और स्यात् नास्तिएव अतीव अनिवार्य व उपयोगी भंग हैं ।
भाव में अभावनिरपेक्षता का अभाव व अभाव में भावनिरपेक्षता का अभाव―ये प्रथम और द्वितीय भंग इस प्रकार भी सिद्ध हुये हैं कि अपनी सत्ता के भाव से तो है और परसत्ता के भाव से नहीं है, यदि परसत्ता के रूप से भी हो जाये तो यह जीव अपने स्वरूप से न रहा, फिर यह जीव ही न रहा । यह तो सत्ता मात्र हो गया । तो यहाँ यह बात समझना कि अपनी सत्ता और पर की असत्ता के अधीन इस जीव का स्वरूप हुआ है । तो यह उभय रूप रहा अब, क्योंकि इस उभयरूपता को लांघकर किसी एक ही रूप बनेगा तो वह यह जीव न रहा, किंतु सन्मात्र हो जायेगा, इसी प्रकार परसत्ता के अभाव की अपेक्षा होने पर भी स्वसत्ता का सद्भाव न हो तो वह वस्तु ही न हो सकेगी । फिर जीव या घड़ा कुछ भी सिद्ध करने की बात दूर ही रही, अत: यह मानना पड़ेगा, पर का अभाव भी स्वसत्ता के सद्भाव से ही वस्तु का स्वरूप बन पाता है, जैसे अस्तित्त्व धर्म अस्तित्त्वरूप से है, नस्तित्त्व रूप से नहीं है, तो लो यह भी उभयात्मक हो गया, अन्यथा वस्तु का अभाव हो जायेगा । तात्पर्य यह है कि भाव तो अभाव निरपेक्ष नहीं होता, और अभाव भाव निरपेक्ष नहीं होता । सर्वथा भाव रूप मान लिया जाए तो वहाँ कोई आवांतर सत् वस्तु नहीं रहती । सर्वथा अभावरूप माना जाए तो कुछ है ही नहीं ।
अस्तिशब्दवाच्य में और जीव शब्द वाच्य में भिन्नस्वभावता या अभिन्नस्वभावता की जिज्ञासा का एक विकट प्रश्न―यहां एक जिज्ञासा होती है कि जैसे कहा―अस्तिएव जीव: तो इसमें अस्ति शब्द का वाच्य अर्थ तो कुछ है ही, जिसे अस्तित्त्व कहा, है पना कहा, और जीव शब्द का वाच्य अर्थ भी कुछ है, जिसे एक ज्ञानात्मक पदार्थ कहो । तो इन दो शब्दों के जो वाच्य अर्थ हैं, अस्ति शब्द का वाच्य अर्थ और जीव शब्द का वाच्य अर्थ ये दोनों भिन्न स्वभाव वाले हैं या अभिन्न स्वभाव वाले हैं । यदि इन दोनों का वाच्य धर्म अभिन्न स्वभाव है तो उसका अर्थ यह हुआ कि जो सत् है वही जीव है, उसमें अब अन्य धर्म न रहे, तब फिर जीव है वह, यों विशेषण, विशेष्य भाव भी न बन सकेगा, अथवा दोनों शब्दों का प्रयोग भी न हो सकेगा । क्योंकि जब ये सत् और जीव अभिन्न स्वभावी ही गये अर्थात् एक ही हो गये तो जैसे सत्त्व सर्व द्रव्य और पर्यायों में व्याप्त है इसी तरह उस सत्त्व से अभिन्य जीव भी सर्व द्रव्य और सर्व पर्यायों में व्याप्त होगा । चाहे यों कहो कि सर्व सत् स्वरूप हैं, चाहे यों कहो कि सर्व जीव स्वरूप हैं । अब इस अभिन्न स्वभाव के पक्ष में जीव में सामान्य सत् स्वभाव हो जाने से जीव के विशेष स्वभाव चैतन्य ज्ञानादिक नरनारकादिक पर्याय आदिक सबका अभाव हो जायेगा । अथवा जब अस्तित्त्व जीव का स्वभाव सर्वथा अभिन्न बन गया तो पुद्गलादिक में अस्तित्त्व का ज्ञान न हो सकेगा, इस कारण अस्ति शब्द का वाच्य अर्थ और जीव शब्द का वाच्य अर्थ अभिन्न स्वभाव वाला है; यह तो सिद्ध कर नहीं सकते । यदि कहो कि दोनों वाच्य अर्थ भिन्न-भिन्न हैं तो जीव अलग रहा, सत् अलग रहा, मायने जीव असत् हो गया । इसे अनुमान प्रयोग में यों कहा जा सकेगा कि जीव असद्रूप है क्योंकि यह अस्ति शब्द के वाच्य अर्थ से भिन्न है । जैसे अस्ति शब्द के वाच्य अर्थ से भिन्न आकाश पुष्प है, खरविषाण है तो वह असत् ही तो है, तो जीव भी असत् हो जायेगा, और जब जीव ही असत् हो गया तो बंध मोक्ष के सब व्यवहार नष्ट हो गये । और, जैसे इस प्रस्तुत भंग में अस्तित्त्व जीव से भिन्न है ऐसे ही पुद्गल आदिक से भी भिन्न होगा अस्तित्त्व । तो न सत रहा न पदार्थ । तो अस्तित्त्व से जीव भिन्न है यह भी नहीं बताया जा सकता और भिन्न अभिन्न दो विकल्पों को छोड़कर और कहा ही क्या जाएगा?
अस्ति शब्द वाच्य में व जीव शब्द वाच्य में कथंचित् भिन्न स्वभावता व कथंचित् अभिन्न स्वभावता का समाधान―अब इसका समाधान करते हैं कि असित शब्द के वाच्य अर्थ से जीव शब्द का वाच्य अर्थ कथंचित् भिन्न रूप है और कथंचित् अभिन्न रूप है । जब पर्यायार्थिकनय से देखते हैं तो भवन और जीवन इन दो पर्यायों में भेद है । सो दोनों शब्द भिन्न अर्थवाची हैं । जब द्रव्यार्थिक दृष्टि से देखते हैं तो जीवन और भवन दोनों अभिन्न हैं, अलग-अलग नहीं पड़े हैं । इस कारण पदार्थ स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति रूप है । चतुर्थ अध्याय तक जीव तत्त्व का वर्णन किया गया है । उस वर्णन पर एक जिज्ञासा हुई थी कि जीव वास्तव में है भी या नहीं । यदि नहीं है तब तो उसके संबंध में अनेक बातें कहने का कुछ अर्थ नहीं और यदि है तब तो वर्णन करना युक्त है । तो इस जीव के अस्तित्त्व की सिद्धि में ही यह सब प्रकरण चल रहा है कि जीव भावात्मक है और अनेकात्मक है । उस ही सिलसिले में यहाँ सप्तभंगी के रूप से वर्णन चल रहा है।
अर्थ, अभिधान व प्रत्ययों की अस्तित्त्व, नास्तित्त्व रूप से प्रसिद्धि होने से भी जीव पदार्थ में भी स्याद स्त्येव स्यान्नास्त्येव की सिद्धि―प्रथम दो भंगों में यह प्रकरण है कि जीव अस्ति नास्ति रूप है । जीव ही क्या सभी पदार्थ अस्ति नास्ति रूप होते हैं । इसकी सिद्धि के लिये अनेक युक्तियां दी गई थीं । उसमें एक युक्ति यह भी है कि अर्थ अभिधान और प्रत्ययों की अस्ति और नास्ति यों उभय रूप से प्रसिद्धि है । उससे ही सिद्ध है कि पदार्थ अस्ति नास्ति रूप है । अर्थ मायने पदार्थ, अभिधान मायने शब्द और प्रत्यय मायने ज्ञान । जैसे जीव अर्थ, जीवशब्द और जीवविषयक ज्ञान ये तीनों बातें अत्यंत प्रसिद्ध हैं । लोक में वाच्य वाचक भाव भले प्रकार समझा जा रहा है और ज्ञेय ज्ञायकभाव भी प्रसिद्ध है । कोई जाननहार है, कोई जानने में आ रहा है तो ये प्रचलित वाच्य वाचक भाव शब्द, अर्थ और ज्ञान के साधक हैं । इसी तरह ज्ञेय ज्ञायक भाव भी जीव पदार्थ के अस्तित्त्व के साधक हैं । यदि इन तीन को कुछ न माना जाये तो शून्यवाद का प्रसंग है । केवल शब्द माना जाये तो शब्दाद्वैत का प्रसंग है । केवल ज्ञानमात्र ही माना जाये तो ज्ञानाद्वैतवाद का प्रसंग है, और केवल पदार्थ ही माना जाये तो यह सद् ब्रह्मवाद का प्रसंग है, पर इन अद्वैतों की सिद्धि किसी भी प्रकार नहीं हो सकती । आखिर कोई ज्ञाता तो मानना ही होगा । यही है जीव पदार्थ । और प्रत्येक पदार्थ अस्ति नास्ति रूप है । तो यहाँ भी प्रथम दो भंगों को अस्ति नास्ति रूप से कहा है, सो द्रव्यार्थिक की प्रधानता में पर्यायार्थिक अंतर्भूत है । पर्यायार्थिक की प्रधानता में द्रव्यार्थिक अंतर्भूत है । इस कारण दोनों ही भंग सकलादेशी हैं ।
अब तृतीय भंग की बात देखिये―जब दोनों धर्मों के द्वारा एक अखंड अर्थ की अभेद रूप से युगपद् विवक्षा होती है तो वह कहा नहीं जा सकता अत: अवक्तव्य है । जैसे द्रव्यार्थिक की प्रधानता में स्यात् अस्ति पर्यायार्थिक की प्रधानता में स्यात् नास्ति तथ्य दोनों ही हैं किंतु जब दोनों को ही प्रधान विवक्षा बनाये कोई तो कहा नहीं जा सकता । वह अवक्तव्य है क्योंकि दोनों ही धर्मों का प्रधान रूप से वर्णन करने वाला कोई शब्द नहीं है । गुणों के युगपद् भाव में तात्पर्य है काल आदिक की दृष्टि से अभेद वृत्ति बनाकर प्रतिपादन करना, सो ऐसा प्रतिपादक कोई शब्द नहीं होता है । बे काल आदिक 8 कौन से हैं जिनके अभेद परिचय से अवक्तव्य भंग बनता है । वे हैं―(1) काल, (2) आत्म रूप, (3) अर्थ, (4) संबंध, (5) उपकार, (6 । गुणिदेश, (7) संसर्ग और, (8) शब्द ।
काल आत्मरूप, अर्थ व संबंध की दृष्टि से सत्त्व असत्त्व में युगपद् अभेदवृत्ति न होने से अवक्तव्य भंग की समर्थितता―चूंकि गुण सभी परस्पर विरुद्ध हैं अर्थात् उनका वाच्य विरुद्ध है । यद्यपि अपेक्षा से तो एक वस्तु में उनका यह अवस्थान है इसलिये अविरुद्ध है, तथापि शाब्दिक दृष्टि से परस्पर विरुद्ध हैं, अत: उनकी एक काल में किसी एक वस्तु में वृत्ति नहीं हो सकती, यही कारण है कि सत्त्व और असत्त्व का वाचक कोई भी एक शब्द नहीं है । सत्त्व स्वरूप भावरूप है, असत्त्व का स्वरूप अभाव रूप है, वह सब एक शब्द के द्वारा युगपत् कैसे कहा जा सकता है? परस्पर विरोधी सत्त्व और असत्त्व की एक अर्थ में वृत्ति भी नहीं हो पाती जिससे अभिन्न आधार मानकर अभेद और युगपद् भाव कहा जा सकता । याने शब्द की मुख्यता में युगपद् भाव अवक्तव्य है । तो सत्त्व, असत्त्व के काल से भी अभेद वृत्ति नहीं, स्वरूप से भी अभेद वृत्ति नहीं और अर्थ से भी अभेद वृत्ति नहीं । यदि संबंध की दृष्टि से देखें तो भी गुणों में अभिन्नता की संभावना नहीं है, क्योंकि संबंध भिन्न होता है । जैसे दंडों देवदत्त । तो दंड का और देवदत्त का संबंध बताया तो है, पर वे दोनों भिन्न हैं । क्षत्री यज्ञदत्त । यहाँ भी क्षत्र और यज्ञदत्त का संबंध बताया तो है, पर यहाँ भी दोनों भिन्न-भिन्न हैं । और साथ ही यह समझिये कि देवदत्त व दंड के संबंध से यज्ञदत्त व क्षत्र का संबंध भी जुदा है । जब कारणभूत संबंधी भिन्न-भिन्न है तो कार्यभूत संबंध भी एक कैसे हो जायेगा । याने सत्त्व और असत्त्व का पदार्थ से अपना-अपना जुदा ही संबंध होगा । तो संबंध की दृष्टि से भी अभेद वृत्ति की संभावना नहीं है ।
उपकार गुणिदेश संसर्ग और शब्द की दृष्टि में भी सत्त्व असत्त्व की युगपद् अभेद वृत्ति न होने से अवक्तव्य भंग की समर्थितता एवं स्याद् अवक्तव्य भंग का भी कथंचित्त्व―यहाँ अवक्तव्य भंग की सिद्धि में यह बतला रहे हैं कि सत्त्व, असत्त्व की अभेद वृत्ति से प्रतिपादन करने वाला कोई शब्द नहीं है, इस कारण युगपद् भाव में यह अवक्तव्य है । उपकार दृष्टि से भी गुण अभेदवृत्ति में नहीं आता, क्योंकि द्रव्य में अपना-2 परिचय कराने रूपव्यवहार, यही हुआ उपकार । सो यह प्रत्येक गुण का जुदा-जुदा है । जैसे नील घट में नीलपने का प्रत्यय उत्पन्न होता है और पीत घट में पीत रंग का ज्ञान होगा तो प्रत्यय भी इनका जुदा-जुदा है । सत्त्व सत्ता का ज्ञान कराता और असत्त्व असत्ता का ज्ञान कराता । तो इस व्यवहार रूप उपकार की दृष्टि से भी देखा जाये तो उनमें अभेदरूपता नहीं लायी जा सकती । गुणों के संसर्ग की बात भी सोचें तो जब सत्त्व और असत्त्व परस्पर भिन्न वाच्य के द्योतक हैं तब उनका संसृष्ट रूप एक नहीं हो सकता । तो एक शब्द से कैसे कथन बनेगा? शब्द की बात तो एकदम स्पष्ट है कि कोई भी सत् दो गुणों को एक साथ नहीं कह सकता । इस प्रकार काल आदिक की दृष्टि से इसमें अभेद वृत्ति का वाचक कोई शब्द न होने से तीसरा भंग अवक्तव्य है, यह भले प्रकार सिद्ध होता है । यहाँ एक बात और जानना चाहिये कि जीव अथवा पदार्थ सर्वथा अवक्तव्य नहीं है । वह स्यात् अवक्तव्य है, यदि सर्वथा अवक्तव्य होता तो अवक्तव्य शब्द को भी नहीं कहा जा सकता था । इस प्रकार तृतीय भंग स्यात् अवक्तव्य: जीव: यह प्रसिद्ध होता है ।
प्रमाण सप्तभंगी में चतुर्थ भंग का निर्देश―प्रमाण सप्तभंगी में यहाँ तक प्रथम, द्वितीय और तृतीय भंग की चर्चा हुई । अब चतुर्थ भंग की बात कह रहे हैं । प्रथम भंग में स्यात् अस्तिएव जीव: कहकर द्रव्यार्थिक की प्रधानता से जीव का जीव रूप से अस्तित्त्व बताया है । द्वितीय भंग में स्यात् नास्तिएव जीव: कहकर पर्यायार्थिक की प्रधानता में अन्य द्रव्यादिक की अपेक्षा नास्तित्त्व घोषित किया है । अब यहाँ दोनों धर्मों की क्रमश: मुख्य रूप से विवक्षा होने पर चौथा भंग स्यात् अस्तिनास्ति च बनता है । यहाँ भी समग्र वस्तु का ग्रहण होने से यह चौथा भंग भी सकलादेशी है । इस भंग को भी कथंचित् ही समझना चाहिये । यदि सर्वथा उभयात्मक हो जाये तो दोनों धर्मरूप सर्वथा हो जायेंगे तो इसमें परस्पर विरोध दोष आता है । सो कैसे हो सकता । तो उभय दोष का प्रसंग होने से यह भंग भी सर्वथा नहीं है ।
सर्वसामान्य और तदभाव से, विशिष्टसामान्य और तदभाव से, स्यादास्ति नास्ति चतुर्थ भंग का निरूपण―अब इस चतुर्थ भंग की जितनी निरूपण दृष्टियाँ हैं उनमें से कुछ मुख्य निरूपण दृष्टियों से वर्णन करते हैं । पहली निरूपण दृष्टि सर्वसामान्य और तदभाव की अपेक्षा है । यहाँ यह जानना चाहिये कि अर्थ दो प्रकार का है (1) श्रुतिगम्य और (2) अर्थाधिगम्य । जो शब्द सुनने मात्र से बोधित हो उसे श्रुतिगम्य कहते हैं और जो अर्थ प्रकरण के अभिप्राय आदिक से जाने गये वाच्य हैं वे अर्थाधिगम्य हैं । तब यहाँ जीव: अस्ति । इसमें सभी प्रकार के आवांतर भेदों की विवक्षा न रहने पर विवक्षावश सर्वसामान्य से अर्थात वस्तुरूप से है यह व्यवहार बनता है । तब इसके प्रतिपक्षी अभाव सामान्य से याने अवस्तुरूप से नहीं है ऐसा द्वितीय भाव बनता है इन दोनों ही बातों को जब एक साथ अभेद विवक्षा में बोलना चाहिए था तो कोई वाचक शब्द ही न मिला । तब वह अवक्तव्य नाम का तृतीय भंग बना । किंतु यहाँ इन ही दोनों को क्रम के विवक्षित करके कहा जा रहा है तब वस्तु उभयरूप विदित हुई । यों स्यात् अस्ति नास्ति यह चतुर्थ भंग बना । दूसरी निरूपण दृष्टि है विशिष्ट सामान्य और तदभाव की अपेक्षा से । जैसा कि सुना अथवा आगम से ग्रहण किया । आत्मा आत्मत्वरूप विशिष्ट सामान्य की दृष्टि से अस्ति है । तब अनात्मत्व की दृष्टि से नास्ति है । यहाँ अस्ति की विवक्षा है आत्मरूप से और नास्ति की विवक्षा है अनात्मरूप से । इन दो धर्मों का एक साथ विवक्षा होने पर तो अवक्तव्य भंग बना था । किंतु इन दोनों का क्रम से विवक्षा किये जाने पर यह चतुर्थ भंग स्यात् अस्ति नास्ति च बनता है ।
विशिष्ट सामान्य और तदभावसामान्य से, विशिष्टसामान्य और तद्विशेष से स्यादस्ति नास्ति चतुर्थभंग का निरूपण―अब तृतीय निरूपण दृष्टि है विशिष्ट सामान्य और तदभाव सामान्य की अपेक्षा । इस दृष्टि में आत्मा अपने नियत आत्मस्वरूप से है और पृथ्वी जल आदिक सब प्रकार से नास्ति है । इसमें अस्तित्त्व तो आया विशिष्ट सामान्य और नास्तित्त्व कहा गया है तदभाव सामान्य की अपेक्षा याने अन्य सभी प्रकार के पदार्थों का नास्तित्त्व है और अपने नियत स्वरूप से अस्तित्त्व है, इन दोनों ही धर्मों की युगपद् विवक्षा होने पर अवक्तव्य कहा था मगर जब इन दोनों में क्रम विवक्षा होने पर इस धर्म का प्रकाश किया गया है तब वह चतुर्थ भंग बना स्यात् अस्तिनास्ति । अब चतुर्थ निरूपण दृष्टि देखिये―यह है विशिष्ट सामान्य और तद्विशेष की अपेक्षा । आत्मा आत्मात्व रूप से है और आत्मा मनुष्यादिक रूप से नहीं हे । यहाँ जिस समय आत्मा को ज्ञानस्वभाव चैतन्य रूप से अस्ति कहा है वहाँ मनुष्यत्वादिक विशेष की अपेक्षा से नहीं है अर्थात उसमें मनुष्यादिकपने का अभाव है । इसमें विशिष्ट सामान्य का जो अस्तित्त्व है वह तदविशेष से नास्तित्त्व है । इन दोनों धर्मों को क्रम विवक्षा में लेकर जब प्रकट करते हैं तब यह चौथा भंग स्यात् अस्तिनास्ति जीव: यह बनता है ।
सामान्य और विशिष्टसामान्य से, द्रव्यसामान्य और गुणसामान्य से एवं धर्मसमुदाय और तद्व्यतिरेक से स्यादस्ति नास्ति चतुर्थ भंग का निरूपण―5वीं निरूपण दृष्टि है सामान्य और विशिष्ट सामान्य की अपेक्षा । आत्मा सामान्य दृष्टि से अर्थात द्रव्यत्व रूप से अस्ति है और विशिष्ट सामान्य के अभाव रूप अनात्मतत्त्व से नास्ति है । यहाँ इस आत्मा को जब सामान्य रूप से निरखा जा रहा है तब विशिष्ट सामान्य के अभावरूप है इन दोनों धर्मों को एक साथ विवक्षा से अवक्तव्य कहा था किंतु यहाँ इन दोनों धर्मों के क्रम विवक्षा से यह चतुर्थ भंग स्यात् अस्तिनास्ति जीव: बना । छठवीं निरूपण दृष्टि है द्रव्य सामान्य व गुण सामान्य की अपेक्षा । इसी आत्मा के जब द्रव्य सामान्यरूप से निरखा जा रहा है तो वह द्रव्यत्व रूप से अस्ति है । तब द्रव्यसामान्य से निरखे हुए इस आत्मा को गुणत्व की दृष्टि से नास्तित्त्व है । इन्हीं दोनों धर्मों को युगपद् विवक्षा में तृतीय भंग बना था किंतु यहाँ इन दोनों धर्मों की क्रमश: विवक्षा होने से यह चतुर्थ भंग उभयात्मक बना जिसकी मुद्रा है स्यात् अस्तिनास्तिजीव: । अब चतुर्थ भंग प्रमाण सप्तभंगी में जो चतुर्थ भंग बताया गया है उसकी 7वीं निरूपण दृष्टि है धर्म समुदाय और तद्व्यतिरेक की अपेक्षा । इस जीव को जीव में रहने वाली अनेक शक्ति, अनेक गुण, उनके समुदायरूप से जब जीव को निरखा जा रहा तो उस धर्म समुदाय की अपेक्षा जीव अस्ति है तो उस ही समय तद्व्यतिरेक रूप से नास्तित्त्व है अर्थात उन समस्त धर्म समुदायों का अभावपना नहीं है । इन्हीं दोनों धर्मों की एक साथ विवक्षा होने पर तृतीय भंग बना था स्यात् अवक्तव्य: किंतु यहाँ इन्हीं दोनों धर्मों की क्रम से विवक्षा होने पर चतुर्थ भंग बनता है स्यात् अस्तिनास्तिजीव: ।
धर्म सामान्य संबंध और तदभाव से एवं धर्म विशेष संबंध और तद्भाव से स्यादस्ति नास्ति चतुर्थभंग का निरूपण―चतुर्थ भंग में 8वीं निरूपण दृष्टि है धर्मसामान्य संबंध और तदभाव इस आत्मा को जब ज्ञानादिक गुणों के सामान्य संबंध को दृष्टि से तका जा रहा है तो वह जैसे अस्ति विदित होता है वह कभी भी धर्म सामान्य के संबंध के अभावरूप नहीं रहता है इस कारण तदभाव की दृष्टि से नास्ति होता है । इन दोनों धर्मों को एक साथ की विवक्षा में अवक्तव्य कहा था । तो क्रमश: उभय विवक्षा में यह उभयात्मक है अर्थात स्यात् अस्तिनास्तिजीव: है । प्रमाण सप्तभंगी के इस चतुर्थ भंग की 9वीं निरूपण दृष्टि है धर्म विशेष संबंध और तदभाव की अपेक्षा । आत्मा में विशेष धर्म भी पाये जाते हैं । उन विशेष धर्मों को विशेषित करके जब जीव को अस्ति (है) परखा तो उसी समय अन्य अविवक्षित धर्म विशेषों की ओर से वह नास्तित्वरूप से परखा गया । अथवा विवक्षित धर्म के संबंध की दृष्टि से आत्मा अस्ति है तो उसी के अभाव रूप से नास्ति है । जैसे जब आत्मा को नित्यत्व दृष्टि से देखा जा रहा है तो कहा जायेगा कि स्यात् नित्य: तो अन्य पर्यायार्थिक की प्रधानता से कहा जायेगा स्यात् अनित्य: अथवा नित्यत्व की दृष्टि से उस नित्यत्व धर्म विशेष के संबंध से जो आत्मा अस्ति है वही उस रूप वाला । विपक्षी धर्म से नास्ति है । इस प्रकार दोनों धर्मों की क्रम से विवक्षा में यहाँ स्यातनास्तिजीव: यह चतुर्थ भंग बना ।
प्रमाणसप्तभंगी में पन्चमभंग स्यादास्ति अवक्तव्यएव का निर्देशन―प्रमाण सप्तभंगों में 5वाँ भंग है तीन स्वरूपों में द्विसंयोगी भंग । पहला स्वरूप तो यह है कि अनेक द्रव्यात्मक और अनेक पर्यायात्मक इस जीव के किसी भी द्रव्यार्थ विशेष या पर्यायार्थविशेष का आश्रय कर कहा जाता है स्यात्अस्ति । यह इसका प्रथम स्वरूप है जिसको कि प्रथम भंग में बताया गया था । अब उस ही आत्मा के बारे में दूसरा स्वरूप अंश है अवक्तव्य जो दो आत्मस्वरूप का युगपद् विवक्षित है । यहाँ द्रव्यसामान्य और पर्यायसामान्य अथवा द्रव्य विशेष व पर्यायविशेष को अंगीकार एक साथ अविभक्त रूप से विवक्षा में यह अवक्तव्य भंग बनता है । तो पंचम भंग का अर्थ यह हुआ कि जैसे आत्मा द्रव्य रूप से या द्रव्य विशेष रूप से या जीव स्वरूप से या मनुष्यत्व आदिक विशेष रूप से स्यात् अस्ति (है) तो साथ ही द्रव्य पर्याय सामान्य को स्वीकार करके वस्तुत्व का सत्त्व और वस्तुत्व का असत्त्व दोनों की ही एक साथ अभेदविवक्षा करने पर यह अवक्तव्य है । इस प्रकार वह पंचम भंग बना, स्यात् अस्ति अवक्तव्य: जीव: । यह भंग भी समग्र वस्तु का बोध कराने वाला है । क्योंकि अंश के साथ अभेद विवक्षा होने पर एक अंश के ही द्वारा समग्र धर्मों का संग्रह हो जाता है । इस पंचम भग में क्रम से द्रव्यार्थिक व उभय प्रधान है । द्रव्यार्थिक की प्रधानता में तो रूप बना स्यात्अस्ति और उभय की प्रधानता में युगपद् अभेद विवक्षा होने से द्रव्य बना अवक्तव्य: ।
प्रमाण सप्तभंगी में स्यान्नास्ति अवक्तव्य एव षष्ठ भंग का निर्देशन―अब प्रमाण सप्तभंगी में छठवां भंग बना तीन आत्मरूपों से दो अंश वाला । इसमें प्रथम रूप तो है वस्तुगत नास्तित्त्व अर्थात् अन्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा नास्तित्त्व और दूसरा अंश है अवक्तव्य । अर्थात् जब वस्तुगत नास्ति ही अवक्तव्य रूप से संबद्ध होकर विवक्षित होता है तब यह छठवां भंग बनता है । यह नास्तित्त्व है पर्याय दृष्टि से । पर्यायें दो तरह की होती हैं―(1) सहभाविनी और, (2) क्रम भाविनी । जो सब एक साथ रह सकें वह तो है सहभाविनी । जैसे गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान आदिक, जिस ही समय में कोई गति पर्याय है उसी समय में कोई इंद्रिय पर्याय भी है, शेष पर्यायें भी हैं । तो ऐसी पर्यायें सहभाविनी कहलाती हैं और किसी एक गुण की पर्याय में क्रमभाविनी कहलाती हैं, क्योंकि एक गुण की पर्यायें एक समय में एक ही होती है । अब यद्यपि उनमें से गति आदिक से व्यतिरिक्त और क्रोधादिक क्रमवर्ती पर्यायों से विलक्षण शाश्वत जीव द्रव्य है तथापि किसी की भी पर्याय का निरंतर होते रहना होता ही है । सो द्रव्यार्थ दृष्टि से गुण पर्यायें जिसमें अस्त है ऐसा कोई एक अवस्थित जीव नाम का द्रव्य है निरखा जाता है । द्रव्यार्थिक दृष्टि में जिस जीव को निरखा गया हैं उसमें न सहभाविनी पर्याय की दृष्टि है न क्रमभाविनी पर्याय की दृष्टि है, पर वह ही धर्म जो द्रव्यार्थ में नहीं है पर पर्यायार्थ की दृष्टि में तो है और वह जीव संज्ञा को प्राप्त है तो इस दृष्टि में नास्तित्त्व धर्म आया अर्थात् इन पर्यायों के रूप से द्रव्यार्थ जीव में नास्तित्त्व है । जो वस्तु रूप से सत् है वह तो है द्रव्यार्थ का अंश और जो उसका प्रतियोगी अवस्तु रूप से असत् है वह है पर्याय का अंश । इन दोनों की एक साथ अभेद विवक्षा होने पर अवक्तव्य बना, यह हुआ दूसरा अंश । इस छठे भंग में दो अंश बताये गये हैं । प्रथम अंश तो है पर्यायार्थ की दृष्टि की प्रधानता में स्यान्नास्ति । दूसरा अंश हैं द्रव्यार्थ और पर्यायार्थ दोनों की एक साथ प्रधानता में । तब यह भंग बना―स्यात् नास्ति अवक्तव्य: । यह भंग भी सकलादेश है, क्योंकि इस भंग में बताये हुये धर्म रूपों से अखंड वस्तु का ही ग्रहण हो रहा है ।
सकलादेश में स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्य एव सप्त भंग का निरूपण―अब 7वां भंग बतलाते हैं कि वह चार स्वरूपों से तीन अंश वाला है । तीन अंश तो यह है स्यात् अस्ति । स्यात् नास्ति, स्यात् अवक्तव्य: । इसके संबंध में बना स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य: । यहाँ स्यात् अस्ति अंश द्रव्यार्थ दृष्टि से बना, स्यात् नास्ति अंश पर्यायार्थ दृष्टि में बना, दो रूप तो ये हुये और दो स्वरूप एक साथ है, जिसे कहते हैं अवक्तव्य । इस भंग में किसी द्रव्यार्थ विशेष की अपेक्षा अस्तित्त्व है, किसी पर्याय विशेष की अपेक्षा नास्तित्त्व है और किसी द्रव्य पर्याय विशेष अथवा द्रव्य पर्याय सामान्य की युगपद् अभेद विवक्षा में अवक्तव्य है । यह सप्तम भंग भी सकलादेश है, क्योंकि इस भंग में भी जो विवक्षित धर्म रूप शब्द से कहा गया उस धर्म रूप से अभेद होने के कारण अखंड समस्त वस्तु का ग्रहण होता है । इसी प्रकार सकलादेश संबंधित प्रमाण सप्तभंगी का वर्णन हुआ ।
विकलादेश का विधान―अब बतलाते हैं कि ये ही भंग जब शब्द की मुख्यता से चलते हैं तो यह ही विकलादेश हो जाता है । निरंश वस्तु में गुण भेद से अंश कल्पना विकलादेश है । वस्तु स्वरूपत: अविभागी अखंड सत् है । उस वस्तु में नाना गुणों की अपेक्षा अंश कल्पना की जाती है तो अखंड वस्तु में अब अनेकत्व और एकत्त्व की व्यवस्था बनाना आवश्यक ही है । अनेकपने की व्यवस्था न बने तो तीर्थ प्रवृत्ति नहीं चल सकती । वस्तु की समझ ही नहीं बनायी जा सकती । पर को समझाया नहीं जा सकता और एकत्त्व की व्यवस्था न बने तो तत्त्व का ही लोप होता है । तब समुदायात्मक वस्तु स्वरूप को स्वीकार करके ही काल आदिक की दृष्टि से परस्पर विभिन्न अंशों की कल्पना करना यह है विकलादेश । एक में एकत्त्व की कल्पना करना विकलादेश नहीं । यद्यपि वह अखंड एक, मगर अंश कल्पना होने पर विकलादेश बनता है । जैसे―अनार, कपूर, इलायची आदिक से बना हुआ शर्बत है उस शर्बत को पीने पर विलक्षण रस की अनुभूति होती है और जो विलक्षण रस विज्ञान हुआ उसकी स्वीकृति हो जाती है, उसके बाद अपनी पहिचान के अनुसार कोई एक रस प्रधान आया चित्त में तो ऐसा विवेचन किया जाता है कि इस शर्बत में इलायची अच्छी पड़ी है या कपूर पड़ा हुआ है । अब यहाँ उस विलक्षण रस की अनुभूति और स्वीकृति भी है और प्रतिपादन किसी एक रस की प्रधानता से है, इसी तरह वस्तु तो है अनेकांतात्मक सो उसकी स्वीकृति के बाद किसी हेतु विशेष से विवक्षित अंश का अनुभव करना यह कहलाता है विकलादेश । वस्तु अखंड है तो भी उसमें गुण दृष्टि से भेद बनता है । जैसे कोई एक बालक के प्रति कहता है कि यह बालक गत वर्ष तो चतुर था और इस वर्ष बहुत चतुर है । बालक वही एक है, पर उसमें गुणों के भेद से दो भेद कर दिये गये, तो ऐसे ही अखंड वस्तु में गुण भेद से भेद समझाना यह तत्त्व विज्ञान मार्ग में चलने वाले के लिए प्राकृतिक बात है ।
विकलादेश में सप्तभंगी―विकलादेश में भी सप्तभंगी होती है । जैसे प्रमाण सप्तभंगी में सकलादेश था और 7 भंग थे वैसे ही 7 भंग नय सप्तभंगी में भी होते हैं । मूल अंतर यह है कि प्रमाण सप्तभंगी में अर्थाधिगम्य वाच्य प्रधान होता है । नय सप्तभंगी में श्रुतिगम्य वाच्य प्रधान होता है, जिन शब्दों से धर्म का विवेचन किया गया है उन शब्दों की प्रधानता है । यद्यपि विकलादेश में भी अनेकात्मक वस्तु को स्वीकार करके ही उसमें से एक अंश का प्रतिपादन किया गया है एकांतवाद नय सप्तभंगी में भी नहीं है किंतु यहाँ शब्दवाच्य धर्म प्रधान है तो अखंड वस्तु में गुण भेद करके जो अंश जताये गये उनमें क्रम, यौगपद्य तथा क्रम यौगपद्य की विवक्षा के वश ये भंग होते हैं । प्रथम भंग है स्यात् अस्ति । यहाँ प्रकरण चल रहा है जीव की सत्ता सिद्ध करने का । तो तद् विषयक भंग बना स्यात् अस्ति जीव:, द्वितीय भंग हुआ स्यात् नास्तिएव जीव:, तृतीय भंग है स्यात् अवक्तव्य: जीव:, चौथा स्यात् अस्ति नास्ति जीव: । 5वां स्यात् अस्ति अवक्तव्य: जीव:, छठा स्यान्नास्ति अवक्तव्य: जीव: और 7वां स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य: जीव:, यहाँ प्रथम और द्वितीय भंग में स्वतंत्र क्रम है, तीसरे भंग में यौगपद्य है, चौथे भंग में संयुक्त क्रम है, 5वें और छठे भंग में स्वतंत्र क्रम के साथ यौगपद्य है तथा 7वां संयुक्तक्रम और यौगपद्य है ।
विकलादेश के भंगों की अपेक्षायें―नय सप्तभंगी में प्रथम भंग जो स्यात् अस्ति एव जीव: हुआ वह सर्व सामान्य आदिक किसी एक द्रव्यार्थ दृष्टि से हुआ और वह पहला विकलादेश है । इस प्रथम भंग में शेष धर्म वस्तु में यद्यपि विद्यमान हैं तो भी काल आदिक की अपेक्षा भेद बुद्धि होने से शब्द के वाच्य रूप से स्वीकृत नहीं है । इसी कारण उन इतर धर्मों का न यहाँ विधान ही है और न यहाँ प्रतिषेध ही है । यही बात सर्व भंगों में समझना कि अपनेअपने विवक्षित धर्मों में वहाँ प्रधान है, अन्य धर्मों के प्रति उदासीनता है । विकलादेश में ऐसे विवक्षित धर्मों की प्रधानता होने पर भी स्वीकृति अनेकात्मक वस्तु की ही है । नय का लक्षण भी यही है कि प्रमाण से ग्रहण की हुई वस्तु में विवक्षावश किसी एक धर्म का प्रतिपादन करना नय है । यहाँ एक प्रश्न होता है कि जब प्रथम भंग में अस्तिएव शब्द कहकर एवकार के द्वारा अवधारण कर दिया कि इस अपेक्षा से जीव है ही तो इस अवधारण के करने से अन्य धर्मों की निवृत्ति हो जाती है तो उदासीनता कहां रही? उदासीनता तो उसे कहते हैं कि जहाँ न विधान हो और न प्रतिषेध हो, मगर अवधारण में अन्य धर्मों का प्रतिषेध हो ही जाता है । फिर उदासीनता कहाँ रही? इसका उत्तर यह है कि अन्य धर्म नियत शब्द द्वारा वाच्य नहीं है, यही उदासीनता का अर्थ है । वैसे तो शेष धर्मों के सद्भाव को प्रकट करने के लिये स्यात् शब्द का प्रयोग किया ही गया है । इतर धर्मों का प्रतिबंध नहीं है, क्योंकि यदि इतर धर्मों का प्रतिषेध कर दिया जायेगा तो यह विवक्षित धर्म भी नहीं रह सकता । फिर तो सबका लोप ही हो जायेगा । स्यात् शब्द के साथ प्रत्येक भंग में अवधारण किया गया है जिससे यह सिद्ध होत । है कि विवक्षित धर्म के साथ ही साथ अन्य धर्म विशेष भी पदार्थ में हैं ।
सप्त भंगों की प्राकृतिकता―किसी भी एक धर्म को प्रस्तुत करने के प्रसंग में 7 भंग प्रकृत्या हो जाते हैं । जैसे कोई एक धर्म रखा नित्यपना, तो इसके साथ इसका प्रतिपक्षी धर्म भी है । वह भी कहना आवश्यक हुआ । जब दो हुये तो दोनों को एक साथ कहा नहीं जा सकता इस कारण अवक्तव्य भंग बना । दो धर्मों को क्रम विवक्षा से द्विसंयोगी प्रथम भंग बना, फिर एक धर्म और अवक्तव्य को क्रम से विवक्षा करने पर 5वां, छठवां भंग बना और उनके अतिरिक्त प्रस्तुत धर्म, प्रतिपक्ष धर्म और अवक्तव्य क्रम से विवक्षित होने पर 7वाँ भंग बना । प्रश्न भी 7 ही प्रकार के किसी धर्म की सिद्धि में हो सकते हैं । वस्तु सामान्य विशेष और उभय धर्म से युक्त है इस कारण कोई भी धर्म प्रस्तुत करने पर उसके निरूपण में 7 प्रकार के भंग बनते हैं । ये 7 प्रकार के भंग अपुनरुक्त हैं । यद्यपि इनमें अंश तो पुनरुक्त है पर किन आत्म रूपों से अंश बनाया गया है वह भंग अपुनरुक्त है । ऐसे अपुनरुक्त वचन अधिक से अधिक 7 प्रकार के हो सकते हैं । और यह सब फैलाव द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयों की विवक्षा से होता है इन नयों के स्पष्टीकरण के लिये और भंगों में इसका सहयोग समझने के लिये कुछ नय प्रसंग जानना आवश्यक है ।
सप्त भंगों का आधारभूत नयविभाग―सप्तभंगी में आधारभूत नय संग्रह और व्यवहाररूप है । संग्रहनय तो सत्त्व को विषय करता है या यों कहो कि सप्तभंग के प्रकरण में जो धर्म प्रथम प्रस्तुत किया है उसको विषय करने वाला संग्रह है, क्योंकि यह संग्रह समग्र वस्तु तत्त्व का सत्ता में अंतर्भाव करके अभेद रूप से संग्रह करता है । तो संग्रहनय तो सत्त्व को विषय करने वाला, हुआ और व्यवहारनय असत्त्व को विषय करने वाला हुआ, क्योंकि यह व्यवहारनय उन परस्पर भिन्न सत्त्वों को ग्रहण करता है जिसमें एक दूसरे का असत्त्व अंतर्भूत है । जैसे जीव है ऐसा बोलने पर वह पररूप से नहीं है यह कथन है तो वहाँ सर्वथा असत्त्व तो नहीं कहा गया, किंतु प्रस्तुत धर्म में प्रतिपक्ष रूप से असत्त्व है, यह प्रकट किया गया है । तो संग्रहनय और व्यवहारनय यह सत्त्व और असत्य का विषय करने वाला है । व्यवहारनय भी भेद करके किसी एक का ग्रहण करता है तो सत्त्व से ही विषय किया मगर भेद ग्रहण किया इसका अर्थ ही यह है कि उन अन्य इतरों का असत्त्व उसमें अंतर्भूत है ।
शब्दनयों की दृष्टियां―शब्दनय और अर्थनय रूप से भी नयों के विभाग हैं । शब्दनय के तो शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत―ये तीन नय विभाग होते हैं और अर्थनय के संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र―ये तीन होते हैं । ऋजुसूत्रनय वर्तमान क्षणवर्ती पर्याय को जानता है । यहाँ पर्यायात्मक वस्तु में मात्र पर्याय को ग्रहण करना ऋजुसूत्रनय का काम है । पर्यायें भी दो प्रकार की हैं―(1) स्थूल पर्याय (2) सूक्ष्म पर्याय । सूक्ष्म पर्याय तो गुण पर्याय होती है । स्थूल पर्याय व्यन्जन पर्याय होती है । सभी को ऋजुसूत्रनय जानता है । पर वर्तमान को ही जानता है । ऋजुसूत्रनय की दृष्टि में व्यवहार नहीं चलता । तीर्थप्रवृति का इसमें कुछ सहयोग नहीं है । हाँ विषय है । पर्याय चूँकि क्षणवर्ती है, वह ओझल तो नहीं की जा सकती । उस विषय की जानकारी ऋजुसूत्रनय से हुई है । ऋजुसूत्रनय से व्यवहार क्यों नहीं चलता, इसका कारण यह है कि ऋजुसूत्रनय की दृष्टि में अतीत तो अतीत होने से ग्रहण में नहीं है भविष्यत् भी ग्रहण में नहीं, क्योंकि वह अनुत्पन्न है । तो वह केवल क्षणवर्ती पर्याय को ग्रहण करता है । उससे व्यवहार नहीं बनता । व्यवहार बना करता है अतीत और अनागत पर्याय पर भी दृष्टि हो अथवा प्रत्यभिज्ञान की मुद्रा चलती रहे । तो अर्थनय यहाँ 3 हैं―(1) संग्रहनय (2) व्यवहारनय (3) ऋजुसूत्रनय । ये तीनों अर्थनय मिलकर तथा अलग-अलग भी रहकर इन 7 प्रकार के भंगों को उत्पन्न करते हैं ।
भंगों की नयापेक्षतावों का दिग्दर्शन―पहला भंग संग्रह से उत्पन्न हुआ है । जैसे बताया―स्यात् अस्तिएव जीव: तो इसने जीव का अस्तित्त्व ही तो ग्रहण किया और वह अस्तित्त्व जीव में रहने वाले अन्य धर्मों का संग्रह रखते हुए किया है । अर्थात स्यात् शब्द के प्रयोग से प्रस्तुत धर्म के अतिरिक्त अन्य धर्मों का भी ग्रहण हुआ है । दूसरा भंग व्यवहार से बना है । व्यवहार असत्त्व को विषय करने वाला बताया है । सर्वथा असत्त्व को विषय नहीं करता, किंतु सत्त्व में असच्व अंतर्भूत है और उस नास्तित्वसमन्वित अस्तित्त्व को जानता है तो यहाँ नास्तित्त्व की मुख्यता हैं उससे दूसरा भंग बना । तीसरा भंग युगपद् विवक्षा में बनता है तो वहाँ संग्रह और व्यवहार दोनों ही अभेद रूप हैं । चौथा भंग क्रम विवक्षा में संग्रह और व्यवहार के समुदायरूप है । जैसे स्यात् अस्तिनास्ति जीव:, इसमें अस्ति संग्रह है, नास्ति व्यवहार है और दोनों का यहाँ समुच्चय है । 5वां भंग बना संग्रह और संग्रह व्यवहार का अभेद में । जैसे स्यात्, अस्ति अवक्तव्य, इनमें अस्ति अंश है संग्रह विषयक और अवक्तव्य अंश है अविभक्त संग्रहव्यवहार विषयक । छठवाँ भंग बनता है व्यवहार और अविभक्त संग्रह व्यवहार से । इस भंग की मुद्रा है स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य: । यहाँ नास्ति अंश है व्यवहार विषयक और अवक्तव्य अंश है संग्रह व्यवहार का अभेद विषयक । 7वाँ भंग बना संग्रह व्यवहार और अविभक्त संग्रहव्यवहार के सामुच्चय में । 7वें भंग की मुद्रा है। स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य: । इसमें अस्ति अंश है संग्रहविषयक, नास्ति अंश है व्यवहारविषयक और अवक्तव्य अंश है संग्रहव्यवहार का अभेद विषयक । इस प्रकार संग्रह व्यवहार के समुदाय में और विवक्षा में ये 7 भंग प्रयुक्त हुए हैं ।
प्रतिपादन में शब्दनयों का सहयोग―शब्दनयों में प्रथम शब्दनय व्यंजन पर्यायों को विषय करते हैं । सो इस नय में भी अभेद और भेद दो प्रकार से वचन प्रयोग होता है । इसका कारण यह है कि शब्दनय अनेक शब्दों से एक पर्याय को ग्रहण करता है । उस पर्याय के वाचक अनेक शब्द हैं । उनमें से किसी का भी प्रयोग होने पर उसी अर्थ का कथन होता है । तो अनेक शब्दों में अभेद होने से शब्दनय में अभेद विधि है । शब्दनयों में दूसरा नय है समभिरूढनय । समभिरूढनय में भी अभेद विधि का प्रयोग होता है । समभिरूढनय किसी एक पदार्थ को ग्रहण करता है जिसमें कि रूढ़ि हो, प्रसिद्धि हो । इतना तो अंतर आया शब्दनय की अपेक्षा कि शब्दनय अनेक अर्थों को प्रकट कर सकता था, पर समभिरूढ़नय एक ही अर्थ का वाचक शब्द को बताता है । जैसे―गो शब्द के अर्थ अनेक हैं―गाय, गणी आदिक, किंतु गो शब्द गाय अर्थ में समभिरूढ़ है । सो इतना अंतर तो शब्दनय व समभिरूढनय में सूक्ष्म विषय का अंतर आया, किंतु समभिरूढ़ में यह नियंत्रण नहीं है कि उस अर्थ का वाचक शब्द का जो भाव है उस ही भावरूप में परिणत अर्थ को कहे । जैसे घट शब्द से घट का बोध हुआ तो वहाँ चाहे घटन क्रिया परिणत हो था घटन क्रिया अपरिणत हो, किसी भी घट का निरूपण हो जाता है । तो यह दोनों में अभेद रहा, अथवा जैसे गो शब्द ने गाय को तो कहा, पर गो का अर्थ है जाने वाला । गच्छति इति गौ: । तो अब चाहे वह जा रही हो गाय, चाहे वह बैठी हो गाय, सभी गायों का समभिरूढनय में ग्रहण है इस कारण एवंभूत की अपेक्षा वह अभेद रूप है । शब्दनय का तृतीय भेद है एवंभूत । एवंभूतनय में प्रवृत्ति के निमित्त से भिन्न ही अर्थ का निरूपण होता है । जैसे एवंभूतनय की दृष्टि में पुजारी उसे ही कहा जायेगा जो पूजा कार्य में वर्त रहा हो । अन्य समय वह पुजारी न कहलायेगा । शब्दनय के इन 3 नयों में यह भी तथ्य जानना कि शब्दनय में तो अनेक पर्यायवाची शब्दों का वाच्य एक ही होता है । समभिरूढ़नय में चूंकि शब्द नैमित्तिक है, समभिरूढ़ है अत: एक शब्द का वाच्य एक ही होता है तथा एवंभूत नय वर्तमान निमित्त को ही पकड़ता है । वर्तमान क्रिया परिणत पदार्थ को ही उस नियत शब्द से बोलता है इस कारण एवंभूत- नय के मत में भी एक शब्द का वाच्य एक ही है और वह भी उस क्रिया से परिणत है । इन नयों में सप्तभंग कैसे प्रयुक्त होता है यह बात नयों के आधार से बताया है । जहाँ पर्यायों को मुख्य करके धर्म कहा जाये वहाँ ऋजुसूत्रनय का भी उनमें सहयोग होता है । इस प्रकार किसी भी वस्तु को सिद्ध करने के लिये सप्तभंगी का प्रयोग होता है ।
सत्त्व असत्त्व धर्मों में विरोध की शंका व उसके समाधान की भूमिका―अब यहाँ एक जिज्ञासा होती है कि सप्तभंगों में जिन धर्मों को कहा गया है वे धर्म परस्पर विरोधी सरीखे दिख रहे हैं । जैसे अस्तित्त्व और नास्तित्त्व । नास्तित्त्व शब्द अस्तित्त्व से अत्यंत विपरीत है । तो ऐसे विपरीत धर्मों में तो विरोध होता है । तब फिर एक वस्तु में ऐसे विरुद्ध धर्म कैसे रह सकते हैं? इस जिज्ञासा के समाधान में कहते हैं कि विरोध का स्वरूप विचारने पर यह बात सुगमतया विदित हो जायेगी कि अस्तित्त्व नास्तित्व जैसे विरुद्ध दिखने वाले धर्म भी एक वस्तु में अविरोध रूप से रह जाते हैं । विरोध का क्या स्वरूप है यह विरोध के भेदों के परिचय से विदित हो जायेगा । विरोध होता है तीन तरह का । (1) बध्यघातकभाव (2) सहानवस्थान और (3) प्रतिबंध्य+प्रतिबंधक भाव ।
सत्त्व असत्त्व धर्मो में बध्यघातकभावरूप विरोध का अनवकाश―बध्यघातक के मायने कोई एक मारा जाने योग्य है कोई एक मार डालने वाला । जैसे सर्प और नेवला, इनमें मानों सर्प बध्य है और नेवला घातक है अथवा अग्नि और जल लीजिये । इनमें अग्नि बध्य है और जल घातक है । अग्नि और जल का संघर्ष हो तो अग्नि बुझ जायेगी । तो बध्यघातकभाव का यह भाव है । अब इस संबंध में यह विचार करना कि बध्यघातकभाव दो विद्यमान पदार्थों में होता है और वह भी उन दो पदार्थों का संयोग होने पर होता है । जैसे साँप और नेवला दूर-दूर विचर रहे हैं तो उनमें बध्यघातकभाव कुछ नहीं है । जब उनका संघर्ष होता है तो वहाँ जो बलवान हो वह घातक बनता है । जो निर्बल हो वह बध्य होता है । अथवा अग्नि जल के दृष्टांत में देखिये―अग्नि और जल अलग अलग पड़े हैं तो उनमें बध्यघातकभाव कुछ नहीं है । तालाब में पानी है, रसोईघर में आग है, सब अपनी-अपनी जगह ठीक हैं । संयोग हुये बिना अग्नि बध्य नहीं होता, जल घातक नहीं होता । यदि तालाब से एक लोटा जल लेकर उसे आग पर डाल दिया जाये तो अग्नि बध्य हो गई और जल घातक हो गया । तो बध्यघातकभाव में मूल बात यह है कि संयोग होने पर ही बध्यघातकभाव बनता है । यदि संयोग के बिना बध्यघातकभाव बन जाये तो दुनिया में अग्नि कहीं मिलेगी ही नहीं, क्योंकि संयोग न होने पर भी जल को अग्नि का घातक मान लिया, फिर तो अग्नि का अभाव ही हो जायेगा । तो बिना संयोग के जल अग्नि को बुझा नहीं सकता यह बध्यघातकभाव का तथ्य है । अब आप यह बतलाओ कि आप शंकाकार अस्तित्त्व और नास्तित्त्व को बध्यघातकभाव से देखते हैं तो अस्तित्त्व और नास्तित्त्व ये दोनों एक वस्तु में रह रहे हैं या नहीं रह रहे । अगर अस्तित्त्व और नास्तित्त्व एक वस्तु में नहीं हैं तो फिर विरोध कैसा? बध्यघातकभाव तो संयोग बिना विरोधी नहीं बनता । तो जब अस्तित्त्व और नास्तित्त्व का एक वस्तु में संयोग ही नहीं मान रहे तो बध्यघातकभावरूप विरोध सिद्ध नहीं होता और यदि अस्तित्त्व नास्तित्त्व दोनों का रहना एक एक वस्तु में एक साथ स्वीकार करते हो तो अब दोनों ही धर्म समान बलशाली हैं । जब समान बलशाली हैं तो एक दूसरे को कैसे बाधा दे सकते हैं? समान बलशाली दोनों धर्म इस प्रकार हैं कि जैसे स्व स्वरूप से अस्तित्त्व के बिना वस्तु नहीं है ऐसे ही पररूप से नास्तित्त्व के बिना भी वस्तु नहीं है । जब ये दोनों धर्म समान बलशाली हैं तो इनमें बध्यघातकभाव का विरोध नहीं हो सकता ।
सत्त्व असत्त्व धर्मों में सहानवस्थान लक्षण विरोध का अनवकाश―प्रश्न―यदि अस्ति नास्ति धर्म में बध्यघातकभाव नाम का विरोध नहीं होता है तो सहानवस्थान नाम का विरोध मान लीजिये । उत्तर― सहानवस्थान विरोध एक वस्तु के क्रम से होने वाली दो पर्यायों मे होता है । नवीन पर्याय उत्पन्न हुई तो वहाँ पूर्व पर्याय नष्ट हो जाती है । पूर्वोत्तर पर्याय एक साथ नहीं रहती । जैसे आम का पीला रूप उत्पन्न होता है तो वहाँ पूर्व रूप हरा रंग नष्ट हो जाता है । सो पूर्वोत्तर पर्याय एक साथ न हुई वही सहानवस्थान विरोध है । परंतु प्रकृत में यह तो बताओ कि अस्तित्त्व और नास्तित्त्व क्या क्रमिक धर्म हैं? जैसे कि पूर्व और उत्तर पर्याय क्रमिक हैं । नहीं अस्तित्त्व और नास्तित्त्व क्रमिक नहीं हैं । अर्थात जब अस्तित्त्व हो तब नास्तित्त्व न हो, जब नास्तित्त्व हो तब अस्तित्त्व न हो एक वस्तु में ऐसा बिल्कुल नहीं । यदि ऐसा मान बैठें कोई कि अस्तित्त्व के काल में नास्तित्त्व नहीं है तो इसका यह ही अर्थ तो हुआ कि जब वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से अस्ति है तब वह पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से नास्ति नहीं है । सो यदि पररूप से नास्तित्त्व यहाँ नहीं मान रहे तो अर्थ यह होगा कि वह पदार्थ समस्त पररूप हो गया । जब समस्त पररूप हो गया तो उसका भी अस्तित्त्व कहां रहा । क्योंकि अब तो पदार्थ सर्वरूप है । तो जिस धर्म को सिद्ध करना चाहते हैं, जिस वस्तु को सिद्ध करना चाहते हैं वह अस्तित्त्व ही न रख सका । इसी प्रकार दूसरा पक्ष विचारिये कि नास्तित्त्व के काल में अस्तित्त्व का अभाव है । तो अस्तित्त्व के अभाव का अर्थ यह हुआ कि पदार्थ अपने स्वरूप से अस्ति है ऐसा नहीं, तो लो, जब स्वरूपास्तित्त्व ही नहीं है तो शून्य हो गया, कुछ रहा ही नहीं । तो जब जीव ही न रहा, कुछ ही न रहा तब बंध मोक्ष की व्यवस्था ही क्यों करते? बंध किसको है? असत् को नहीं, शून्य को नहीं । यहाँ तो जीव हो कुछ न रहा जब बंध नहीं बनता है तो मोक्ष किसके का और मोक्ष लिए पुरुषार्थ भी क्या? तो मोक्ष का भी व्यवहार न रहा, धर्म भी न रहा, पर एक बात तो सोचें, अगर ऐसा सर्वथा असत् है तो उसके बारे में व्यवहार नहीं बनता, और कोई माने कि उसकी उत्पत्ति हो लेगी । जीव यद्यपि असत् है, पर वह बन जाता है, तो यह कपोलकल्पित बात है । सर्वथा असत् की उत्पत्ति हो ही नहीं सकती । उपादानभूत कुछ नहीं हो, और कोई मुद्रा बन जाये, परिणति बन जाये यह संभव ही नहीं है, और यदि सत् है तो उसका सर्व प्रकार विनाश हो ही नहीं सकता । अस्तित्त्व और नास्तित्त्व तो एक साथ रहने वाले धर्म हैं । इनमें सहानवस्थान विरोध नहीं है । जैसे जीव सर्व समय में अपने द्रव्य, क्षेत्र काल, भाव से है और वही जीव सर्व समयों में पर के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से नहीं है, तो पर रूप से नास्तित्त्व और स्वरूप से अस्तित्त्व दोनों ही पदार्थों में एक साथ रहा करते हैं, यह तो वस्तु का स्वरूप ही है, और इसी कारण अस्तित्व और नास्तित्त्व धर्म का सहानवस्थान विरोध नहीं है और ये दोनों धर्म जब एक वस्तु में एक साथ रहते हैं तो इसकी प्रधानता और अप्रधानता में क्रम विवक्षा और यौगपद्म विवक्षा में 7 भंग हो ही जाते हैं ।
सत्त्व असत्त्व धर्मों में प्रतिबंध्य प्रतिबंधकभावरूप विरोध का अनवकाश―अब शंकाकार कहता है कि अस्तित्त्व नास्तित्त्व धर्म में सहानवस्थान विरोध भी न रहे किंतु प्रतिबंध्य प्रतिबंधक भावरूप तो विरोध है और इस विरोध के कारण अस्तित्त्व नास्तित्त्व का एक साथ एक वस्तु में ठहरना नहीं हो सकता । उत्तर―अस्तित्त्व और नास्तित्त्व में प्रतिबंध्य प्रतिबंधक भाव रूप भी विरोध नहीं है । प्रतिबंध्य प्रतिबंधक भाव का अर्थ है कि एक तो है प्रतिबंध करने वाला और एक ही प्रतिबंध में आने वाला, एक रोधक है, प्रेरक है और एक रुध जाता है जैसे आम का फल वजनदार है और उसमें नीचे गिरने का स्वभाव है । जो-जो भी वजनदार वस्तुवें हैं उनमें नीचे गिरने का स्वभाव पड़ा है । किंतु आम जब तक डाल के डंठल में लगा है तब तक वह संयोग प्रतिबंधक है कि वह आम को नीचे नहीं गिरने देता । तो यहाँ आम्रफल और डंठल का संयोग तो प्रतिबंधक है, और वजनदार होने पर भी आम का अधःपतन नहीं हो पाता । यह उस समय प्रतिबंध्य है । कुछ वैज्ञानिक ऐसा कहते हैं कि पृथ्वी में आकर्षण स्वभाव है सो चीजों को पृथ्वी अपनी ओर खींचे रहती है । पर यह तो एक कल्पना की ही बात है । प्रत्यक्ष सिद्ध यह ही बात है कि जो वजनदार पदार्थ है उसके नीचे गिरने का स्वभाव है इसलिये नीचे गिरकर पृथ्वी पर पड़ जाता है व पड़ा रहता है । यदि पृथ्वी का आकर्षण करने का स्वभाव हो और वस्तु में अध: पतन स्वभाव न हो तो यह बतलाये कोई कि पत्ते जो जरा सी हवा में उड़ते रहते हैं उन पत्तों जैसे कम वजनदार पदार्थों को तो पृथ्वी और भी जल्दी आकर्षित कर ले, वजनदार चीजों को खींचने में देर भी लग सकती है मगर हल्के पदार्थ को खींचने में क्यों देर लगती, या क्यों नहीं खींचती । सो भाई आकर्षण शक्ति पृथ्वी में नहीं किंतु गुरु पदार्थ में नीचे गिरने का स्वभाव होता है । तो आम का फल गुरु (वजनदार) है, उसका नीचे गिरने का स्वभाव है, पर जब तक डंठल से संबंध है । डाल से संयोग है तब तक अधःपतन नहीं होता । तो यह कहलाया प्रतिबंध्यप्रतिबंधकभाव । और जब डंठल से फल का संयोग टूट जाता है तब वह फल नीचे गिर जाता है । तो वह गुरुपना नीचे गिरा देने का कारण है । संयोग के अभाव में गुरुत्व पतन का कारण होता है, ऐसा वैशेषिक आदिक ने भी अपने सूत्र में कहा है । किंतु प्रकृत में देखिये―अस्तित्त्व और नास्तित्त्व इन दो धर्मों में कहाँ प्रतिबंध्य और प्रतिबंधक भाव है? इसमें यह विरोध तब कहलाता जब अस्तित्त्व तो नास्तित्त्व के प्रयोजन का प्रतिबंध करता हो, और नास्तित्त्व अस्तित्त्व के प्रयोजन का प्रतिबंध करता हो, सो ऐसा प्रतिबंध रंच भी नहीं है । क्योंकि अस्तित्त्व के काल में ही पर स्वरूप से नास्तित्व बना हुआ है । प्रतिबंध कहां हो सका? प्रतिबंध का अर्थ यह है कि अस्तित्त्व नास्तित्त्व के काम को रोक दे और नास्तित्त्व अस्तित्त्व के काम को रोक दे, पर यहाँ किसी का प्रयोजन रुका हुआ नहीं है । वस्तु निरंतर स्वरूप से सत् है, पररूप से असत् है । तो इस तरह इन धर्मों में प्रतिबंध्य प्रतिबंधक भावरूप विरोध नहीं है । और यों भले प्रकार से सिद्ध होता है कि पदार्थ अनेकांतात्मक है । यह जीव भी अनेकात्मक है ।
जीवतत्त्व के विज्ञान से आत्मकल्याण में लगन की प्रेरणा―चतुर्थ अध्याय के समापन के समय यह जिज्ञासा की गई थी कि जीव वास्तव में है भी या नहीं, तो जीव पदार्थ को भावात्मक और एकानेकात्मक सिद्ध करने के लिए यह सप्तभंगी का प्रकरण चला । यहाँ जीव पदार्थ अस्तित्त्व को जान कर और साथ ही जब यह है तो निरंतर परिणमन करता रहता है ऐसा जानकर अपनी आत्मभावना करें कि मेरा परिणमन दुःख रूप न हो, किंतु निरंतर शांतिरूप हो । ऐसी भावना रखना चाहिये । पवित्र परिणमन यह है कि मैं ज्ञानस्वरूप आत्मा मात्र ज्ञान की ही वृत्ति को करता रहूं । उसमें विकार का प्रसंग न आने दें । आत्मा में विकार क्या है, सो उपादानतया देखो तो वह विकार यह है कि ज्ञान का अनेक विध अज्ञान रूप से परिणमन चल रहा है । और यह हुआ क्यों? कर्म के अनुभाग का संबंध पाकर । आत्मा में स्वयं कभी विकार नहीं होता । यदि जीव में स्वयं विकार होने लगे तो वह स्वभाव हो जायेगा, पर स्वभाव तो ज्ञान का है, विकार का नहीं । सो जब तक कर्म उपाधि के संबंधवश यह जीव अपने ज्ञान को अज्ञानरूप परिणमाता है तब तक संसार है, जन्म मरण है । चतुर्गतिभ्रमण है और जब यह जीव अपने ज्ञानस्वरूप को अपने में ही समझकर समय पर के उपयोग से निवृत्त होता है और आत्मा में एकाग्र होता है तब इसके ज्ञान की प्रगति होती है । तो गत द्वितीय, तृतीय चतुर्थ अध्यायों में जीव की सर्व तरह की दशायें बताई गई हैं । उन सब विभाव दशाओं से हटने के लिए अपने ज्ञानस्वभाव का आलंबन लेना चाहिए ।