वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 5-6
From जैनकोष
आ आकाशादेकद्रव्याणि ।। 5-6 ।।
अभिविधि अर्थ में आङ् का प्रयोग―आकाश पर्यंत एक द्रव्य होते हैं । यहाँ आ शब्द का जो अलग प्रयोग है उसको अर्थ है अभिविधि, मायने व्यापना जिसका अर्थ है उसे भी शामिल करना । तो इस अर्थ से धर्म, अधर्म और आकाश ये 3 द्रव्य आ गए । प्रथम सूत्र में इनका नाम दिया गया है । उस क्रम से आकाश पर्यंत लेना, मायने आकाश को भी लेना । कहीं आ शब्द का प्रयोग मर्यादा अर्थ में होता, उस मूड में यह भाव बनता कि उससे पहले-पहले तक लेना । किंतु यहाँ मर्यादा अर्थ में आ का प्रयोग नहीं है । किंतु अभिविधि अर्थ में है । जिससे प्रथम सूत्र के क्रम के अनुसार बना कि धर्म, अधर्म और आकाश ये 3 एक-एक द्रव्य हैं । एक शब्द अर्थ यहाँ समान आदिक नहीं है किंतु गणनावाचक है । संख्या बताई जा रही है कि वह द्रव्य केवल एक-एक ही है ।
सूत्र में एक द्रव्याणि बहुवचनांत कहने का प्रयोजन―अब यहाँ शंकाकार कहता है कि जब यह सब केवल एक द्रव्य है तो द्रव्य शब्द का बहुवचन प्रयोग न करना चाहिए । एक द्रव्याणि की जगह एक द्रव्य यह प्रयोग करना चाहिये । उतर देते हैं कि एक द्रव्याणि कहने से धर्म की अपेक्षा बहुत्व की सिद्धि हुई है । समानाधिकरण की दृष्टि से 3 पृथक-पृथक एक-एक द्रव्य हैं । शंकाकार कह रहा था कि द्रव्य शब्द का एकवचन में प्रयोग होना चाहिये । पर वह शंका ठीक नहीं है, क्योंकि धर्मादिक की अपेक्षा यहाँ बहुत्व की सिद्धि की गई है । धर्मादिक बहुत द्रव्य हैं, उस अपेक्षा से बहुवचन का उपयोग किया है । एक में अनेक अर्थ के रहने का सामर्थ्य है । अब शंकाकार कहता है कि अगर एक द्रव्य कहने से धर्म की अपेक्षा बहुत्व सिद्ध नहीं होता तब एकैकं ऐसा कह लीजिये कि ये तीन द्रव्य एक-एक हैं और उसमें सूत्र का लाघव भी हो जाता है, और रहा बहुत बताने का सवाल सो यह प्रसिद्ध ही है कि द्रव्य 6 प्रकार के होते हैं, सो उन द्रव्यों का सही ज्ञान होता ही रहता है । पर एक-एक है, इस कारण से एकैकं ऐसा सूत्र कह दिया जाना चाहिये । इसके उत्तर में कहते हैं कि एक द्रव्याणि, ऐसा शब्द देना अनर्थक नहीं है क्योंकि इन पदार्थों में द्रव्य की अपेक्षा, एकत्व की प्रसिद्धि की है सो ही एकैकं ऐसा कहने पर नहीं जाना जा सकता कि द्रव्य से एक है, क्षेत्र से एक है कि भाव से एक है? यह समझ में नहीं आ सकता था तो उसका संदेह मिटाने के लिये एक द्रव्य का बहुवचन में ग्रहण किया गया है ।
एक द्रव्याणि बहुवचनांता शब्द से ध्वनित तथ्य―सूत्र में एक द्रव्याणि कहने से अर्थ ग्रहण करना चाहिये कि गति स्थिति परिणाम वाले अनेक प्रकार के जीव पुद्गल द्रव्यों के अनेक परिणामों का निमित्तपना होने से भावों से बहुत्व होने पर भी प्रदेश भेद से अनेक क्षेत्रपना होने पर भी धर्म द्रव्य व अधर्मद्रव्य, द्रव्य से एक-एक ही हैं । यहाँ अवगाही अनेक द्रव्यों को अवगाहने में निमित्तपना होने से अनंत भावपना होने पर भी, प्रदेश भेद होने से अनंत क्षेत्रपना होने पर भी द्रव्य से एक ही आकाश है, इसलिये इस संबंध में उथल-पुथल न करना । और इसी प्रकार जीव पुद्गलों में एक द्रव्यपना नहीं है―जैसे कि धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य, आकाश द्रव्य, ये एक-एक हैं । तब सूत्रों पर द्रव्यों में एक-एक ही का ग्रहण बना । अब यहाँ तक धर्म, अधर्म आकाश, पुद्गल, जीव इन 5 पदार्थों का वर्णन चला है, तो इस संबंध में यह जिज्ञासा होना प्राकृतिक है कि काल द्रव्य फिर कैसे है? यहाँ तो बताया नहीं गया? सो उसका उत्तर यह है कि वह एक-एक है और असंख्यात संख्या में है, इसका निर्णय आगे किया जायेगा । तो यहाँ तक 5 अस्तिकायों की बात कही गई है, जो कि आत्महित में कैसे उनका ज्ञान साधक होता है, यह सब बात विचार लेना चाहिये । तो इस सूत्र में जीव और पुद्गल छोड़ दिये गये । और आकाश तक लिया गया है, क्योंकि जीव और पुद्गल में अनेकपना है । यदि उनमें अनेकपना न हो तो देखे गये क्रिया कारक के भेद का विरोध होगा, वृक्ष से पत्ता गिरा इसमें कारक भिन्न-भिन्न है । तथा जीव पुद्गल अनेक न हों तो अनुभावन संसार और मोक्ष की क्रियाओं का विस्तार यहाँ सिद्ध ही न हो सकेगा । अब अधिकार प्राप्त इन एक-एक द्रव्यों की विशेषता प्रतिपादित करने के लिये सूत्र कहते हैं ।