वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 6-5
From जैनकोष
[इंद्रियकषायांवव्रतक्रिया: पंचचतु:पंचपंचविंशतिसंख्या: पूर्वस्य भेदा: । 6-5 ।
(17) सांपरायिक आस्रव के भेद―इंद्रियाँ 5, कषाय 4, अव्रत 5 और क्रिया 25, ये सब मिलाकर 39 सांपरायिक आस्रव के भेद हैं । इंद्रिय का लक्षण पहले कहा गया था वे दो प्रकार की हैं (1) द्रव्येंद्रिय और (2) भावेंद्रिय। इनके विषय 5 होते हैं―रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द । इन 5 विषयों में इंद्रिय की वृत्ति होने से कर्मास्रव होता है और वह सांपरायिक आस्रव होता है । कषायें चार होती हैं―क्रोध, मान, माया, लोभ । क्रोध गुस्सा को कहते हैं, मान गर्व करने को कहते हैं, माया छल कपट को कहते हैं और लोभ तृष्णा करने को कहते हैं । ये चारों कषायें सांपरायिक आस्रव के मुख्य कारण हैं । 5 अव्रत हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह, किसी प्राणी का ख्याल करके उसके मारने, वध करने, पीटने, नुक्सान पहुंचाने आदिक का विचार रखते हुए जो खुद को दुःखी और पर को दुःखी करता है वह हिंसा कहलाती है । असत्य संभाषण करना, दूसरों को अहितकर वचन बोलना यह झूठ है । बिना दूसरे के दिए हुए, स्वामी के भीतरी अभिप्राय के बिना चीज लेने को चोरी कहते
हैं । परस्त्री या परपुरुष के प्रति कामवासना का भाव रखना कुशील कहलाता है । बाह्यपदार्थों में तृष्णा करना परिग्रह है । क्रियायें 25 होती हैं जो कि सांपरायिक आस्रव के कारण हैं । इन क्रियावों में कोई क्रिया शुभ है कोई क्रिया अशुभ है, सभी क्रियायें कर्म के आस्रव का कारण हैं ।
(18) सम्यक्त्वक्रियादि सांपरायिक आस्रवसंबंधित दश क्रियावों का निर्देश―[1] सम्यक्त्वक्रिया―चैत्यगुरु शास्त्र की पूजा आदिक करनेरूप सम्यक्त्व को बढ़ाने वाली क्रिया सम्यक्त्वक्रिया कहलाती है । यद्यपि सुनने में यह भली लग रही है और शुभ भी है, परंतु आस्रव के प्रकरण में जिन घटनावों में परिणामों में राग का अंश भी हो, चाहे वह शुभ है तो भी वहाँ आस्रव बताया गया है, इस क्रिया में शुभ आस्रव होता है । [2] मिथ्यात्वक्रिया―रागी द्वेषी देवताओं का स्तवन करना, कुगुरु आदिक की भक्ति करना, जो मिथ्यात्वहेतुक है वे सब प्रवृत्तियां मिथ्यात्वक्रिया कहलाती है । [3] प्रयोगक्रिया―शरीरादिक के द्वारा जाना आना आदिक प्रवृत्ति करना प्रयोगक्रिया है । इस क्रिया में वीर्यांतराय का, ज्ञानावरण का क्षयोपशम होने पर अंगोपांग नामकर्म के उदय से प्राप्त मन, वचन, काय की चेष्टायें चलती हैं अथवा इन योगों के रचने में समर्थ पुद्गल का ग्रहण करना भी प्रयोगक्रिया है । [4] समादानक्रिया―संयम धारण करने पर भी कुछ अविरत भाव की ओर झुकना सो समादानक्रिया है । [5] ईर्यापथक्रिया―ईर्यापथास्रव के कारणभूत जो भी परिस्पदात्मक क्रिया है वह ईर्यापथ के कर्म में निमित्तभूत है । परिस्पंदरूप चेष्टा को ईर्यापथक्रिया कहते हैं । [6] प्रादोष की क्रिया―क्रोध के आवेश में जो भी चेष्टायें होती हैं वे प्रादोष की क्रिया कहलाती हैं । इससें कर्मों का आस्रव होता है । यहां एक अंतर समझना कि क्रोध प्रदोष में कारण होता है अत: क्रिया कारण के भेद से क्रोधकषाय और प्रादोष की क्रिया में भेद है । क्रोध तो बिना बाह्य निमित्त के भी होता है अथवा क्रोध प्रदोष के निमित्त से नहीं है, किंतु प्रादोष क्रोधरूप निमित्त से होता है । जैसे माया चुगली के स्वभाव वाला कोई व्यक्ति इष्ट स्त्रीहरण, धन का विनाश
आदिक निमित्तों के बिना भी क्रोध करता है, जिसको ईर्ष्या लगी है ऐसा पुरुष प्रकृत्या क्रोध करता है तो क्रोध निमित्त है और प्रादोष उसका कार्य है । [7] काय की क्रिया―प्रादोष के बाद जो चेष्टायें होती हैं उस प्रादोषयुक्त पुरुष का उद्यम काय की क्रिया कहलाती है । [8] आधिकरण की क्रिया―हिंसाके उपकरणों को ग्रहण करने से जो विकार जगता है वह आधिकरण की क्रिया कहलाती है । [9] पारितायिकी क्रिया―दूसरों को दुःख उत्पन्न करने वाली चेष्टा पारितायिकी क्रिया कहलाती हे । [10] प्राणातिपाति की क्रिया―आयु इंद्रिय बल आदिक का वियोग करने वाली चेष्टायें प्राणातिपाति की क्रिया कहलाती हैं याने ऐसी क्रिया जिससे प्राणघात हो, ऐसी क्रिया से अशुभ आस्रव होता है ।
(19) दर्शनक्रियादिक सांपरायिकास्रव संबंधित पांच क्रियावों का निर्देश―[11] दर्शनक्रिया―राग से कषायसहित होकर किसी सुंदर रूपके देखने का अभिप्राय करना दर्शनक्रिया है । जो रूप इष्ट लगता हो उस रूप को देखने का भाव होना वह दर्शनक्रिया है । देख सके या न देख सके, देखनेका भाव ही किया तो वही आत्मा के लिए क्रिया हो गई, क्योंकि कर्मों का आस्रव जड़ की क्रिया से नहीं होता, किंतु आत्मभाव में विकार आने से कर्म का आस्रव होता है । [12] स्पर्शनक्रिया―प्रमाद के वश होकर जिस चीज को छूना चाहिए, जो
इष्ट लग रहा हो उसको छूने का अनुभव करना, छूने का अभिप्राय करना वह सब स्पर्शन क्रिया है । ये सब सांपराय आस्रव के कारण बताये जा रहे हैं जिससे संसार में रुलना होता है । यहां एक शंका होती है कि जब इंद्रिय को भी आस्रवका कारण कहा है तो देखना, छूना यह तो इंद्रिय में ही गर्भित हो जाता और यह क्रिया अलग से क्यों कही जा रही? तो उत्तर इसका यह है कि पहले जो 5 इंद्रियों को सांपरायिक आस्रव का कारण कहा है वहां तो इंद्रियविज्ञान अर्थ लेना है और इस क्रिया के प्रकरण में इंद्रिय से ज्ञान करने के पूर्वक आत्मा के प्रदेशों में परिस्पंद हुआ, कुछ चेष्टा हुई यह भाव लेना है । [13] प्रात्ययिकी क्रिया―कोई नया अधिकरण बना, नई चीज बनी, नया साधन बना विषय का या कषाय का उस साधन के बनने को प्रत्यायिकी क्रिया कहते हैं । [14] समंतानुपात क्रिया―स्त्री, पुरुष, पशु आदि जिस जगह बैठा करते हों, रहा करते हों उस जगह मलमूत्र का क्षेपण करना समंतानुपात क्रिया है । इन सब क्रियावों से सांपरायिक आस्रव होता है । [15] अनामुक क्रिया―बिना शोधे हुए, बिना देखे हुए जमीन पर बैठ जाना सो जाना अपने शरीरके अंगों का निक्षेपण करना
यह अनामुक क्रिया है । इन सब क्रियावों मे प्रमाद कितना बसा हुआ है इस कारण इन क्रियावों से सांपरायिक आस्रव होता है । (16) स्वहस्तक्रिया―जो क्रिया दूसरे के द्वारा की जानी चाहिए उस क्रिया को स्वयं करना यह स्वहस्तक्रिया कहलाता है । जैसे बाल नाई बनाया करते हैं और कोई खुद ही रेजर उस्तरा आदि से बाल बना ले तो यह स्वहस्तक्रिया है । ये आस्रव के ही कारण बताये जा रहे । इसमें कोई यह सोचे कि ऐसी स्वहस्त क्रिया नहीं होनी चाहिये, सो ऐसी ऐसी अनेक क्रियायें चल रही हैं, जिनसे आस्रव होता है तो यह भी आस्रव है अथवा दूसरे में काम कराये वहां भी आस्रव है वह भी आस्रव में गिना है । तो कर्मों का आस्रव जिनसे होता है वे सब क्रियायें बतायी जा रही हैं । अपने हाथ से करे वहाँ भी आस्रव दूसरे से कराये वहां भी आस्रव । आस्रव के भेद बताना यह प्रयोजन है । (17) निसर्ग क्रिया―पाप ग्रहण करना आदिक की प्रवृत्ति विशेष का ज्ञान करना या सुगमतया होना यह निसर्गक्रिया कहलाती है । (18) विदारण क्रिया―आलस्य से शुभ क्रिया को न करना और दूसरे के द्वारा किए गए पापादिक कार्यों का परिग्रहण करना विदारण क्रियायें कहलाती हें । [19] आज्ञाव्यापारिकी क्रिया―जैसी शासन में आज्ञा है आवश्यक कार्य करना चाहिए, उन क्रियावों को कर्मोंदयवश नहीं कर सकते हैं तो उसका अन्य प्रकार से अर्थ लेना, विरूपण करना आज्ञाव्यापारिकी क्रिया है । कोई व्रत नियम ले रखा है और वह विशिष्ट चरणानुयोग के अनुसार पालन नहीं कर सकता है तो उसका अन्य प्रकार से निरूपण करना वह आज्ञाव्यापारिकी क्रिया है । [20] अनाकांक्षक्रिया―मूर्खता से या आलस्य में आगम में बताई हुई विधि के अनुसार कर्तव्य न कर सके, उन कर्तव्यों में अनादर भाव रखे तो वह अनाकांक्षक्रिया कहलाती है ।
(20) आरंभक्रियादिक सांपरायिकास्रवसंबंधित पांच क्रियावों का निर्देश―[21] आरंभक्रिया―छेदना भेदना आदिक क्रियावों में तत्परता होना या दूसरे लोग कोई छेदन भेदन आदिक आरंभ कर रहे हों तो उसमें हर्ष परिणाम होना आरंभ क्रिया कहलाती है । [22] पारिग्राह्य की क्रिया―परिग्रह नष्ट न हो, सुरक्षित रहे, कहां धरना, कहाँ जमा करना, उसके अविनाश के लिए जो संकल्प विकल्प हैं या चेष्टायें हैं । वे सब पारिग्राह्य की क्रियायें कहलाती हैं । [23] मायाक्रिया―ज्ञान दर्शन आदिक के विषय में प्रवंचना करना, छल कपट करना मायाक्रिया है । जैसे कोई जानता है और कोई पूछे तो न बताना चाहे तत्त्वोपदेश की या चर्चा की बात किसी प्रयोजन से हो तो भी उसे टाल देना, अन्य उत्तर देना यह मायाक्रिया हुई । या जैसे कोई जानता नहीं है और कोई पूछ रहा है तो उस संबंध में मूर्खता जाहिर न हो तो कपट करके अन्य प्रकार उत्तर देना या समय टालना सब मायाक्रिया है । [24] मिथ्यादर्शन क्रिया―मिथ्यादर्शन के कार्यों के करने में या कराने में जो लगे हों उनकी उनको प्रशंसा आदिक करके ऐसे ही कुकार्यों में दृढ़ कर देना मिथ्यादर्शनक्रिया कहलाता है । इस क्रिया में इस तरह की स्तुति सी होती है कि आप बहुत अच्छा कर रहे हैं, कितना ऊँचा आपका तपश्चरण है आदिक बातें कह कर मिथ्यादर्शन वाली क्रियावों में उन्हें दृढ़ कर देने को मिथ्यादर्शन क्रिया कहते हैं । [25] अप्रत्याख्यानक्रिया―संयम को घातने वाले कर्मों के उदयसे विरक्त निवृत्ति त्याग का परिणाम न होना, त्याग न कर सकना अप्रत्याख्यान क्रिया कहलाती है ।
(21) संख्यावों का इंद्रियादि का साथ अनुक्रम योजन व इंद्रियादि का आत्मा से भेद अभेद की मीमांसा―इस सूत्र में जो संख्या के नाम दिये गये है वे नाम पूर्वपद में दिए गए नामों में क्रम से लगते हैं । जैसे 5 इंद्रिय 4 कषाय, 5 अव्रत और 25 क्रियायें, ये सब किसके भेद हैं? यह बताने के लिए सूत्र में पूर्वस्य शब्द आया है । इससे पहले सूत्र में दो प्रकार के आस्रव बताये गए थे । सांपरायिक और ईर्यापथ उनमें से पूर्व के ये भेद हैं अर्थात् सांपरायिक आस्रव के ये भेद हैं । भेद तो असंख्यात प्रकारके हो सकते, पर उन सब असंख्यात प्रकार के आस्रवों का संक्षेप किया जाये तो वे मूल में चार भेद रूप और उनके सूत्रोक्त उत्तर भेदों को गिनने से 39 भेद होते हैं । यहां एक शंकाकार कहता है कि इंद्रिय कषाय अव्रत क्रियायें जो भी यहां बतायी जा रही हैं वे क्या आत्मा से भिन्न हैं या अभिन्न है? यदि ये भिन्न हैं तो आत्मा के आस्रव कैसे कहलाये जा सकते हैं? यदि ये अभिन्न हैं तो वे सब आत्मा ही रहे, फिर आस्रव क्या कहलाये? इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि इंद्रिय आदिक आत्मा से कथंचित भिन्न हैं और कथंचित अभिन्न हैं । यह बात अनेकांत विधि से समझना चाहिए । अब अनादि पारिणामिक चैतन्यरूप द्रव्यार्थिक की दृष्टि करते हैं अथवा केवल एक रूप में निरखते हैं तो इंद्रिय आदिक का भेद वहां नहीं जचता इसलिए उस दृष्टि में अमिन्न है, और जब कर्म के उदय क्षयोपशम के निमित्त से होने वाली पर्यायकी दृष्टिसे निरखते हैं तो उनमें परस्पर भेद है और आत्मस्वरूप से भी भेद है । इस कारण वे भिन्न हैं । दूसरी बात यह भी है कि इंद्रिय आदिक के वियोग हो जाने पर भी द्रव्य का अवस्थान रहता है इस कारण आत्मा में और इस इंद्रिय आदिक में भिन्नता है । और इस भिन्नता के आधार पर ही पर्याय की दृष्टि से 5 आदिक जो संख्यायें बतायी है, उनका निर्देश ठीक बैठता है ।
(21) क्रिया में इंद्रिय कषाय अव्रत गर्भित हो जाने से इंद्रियादिक के ग्रहण करने की अनर्थकता की आशंका और उसका समाधान―अब यहां एक शंका होती है कि इंद्रियकषाय और अव्रत ये भी तो क्रिया रूप ही हैं, क्रिया के स्वभाव से ये अलग नहीं हैं, इस कारण एक क्रिया के कहने से ही इन सबका बोध हो जाता, फिर इंद्रिय, कषाय और अव्रत इनका ग्रहण करना निरर्थक है या केवल एक विस्तार बनाना मात्र है । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि इंद्रिय कषाय और अव्रत से जो पृथक् ग्रहण किया गया है उसका कारण है और वह कारण अनेकांत से स्पष्ट होता है । यहां यह एकांत नहीं चल सकता कि इंद्रिय, कषाय और अव्रत ये क्रिया स्वभाव ही हैं । कैसे यह एकांत न चलेगा? देखिये इंद्रिय, कषाय और अव्रत चार-चार रूप समझिये―नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव । उनमें से नाम, स्थापना और द्रव्य इन तीन निक्षेपों से परखे गये ये शब्द क्रिया स्वभाव नहीं बैठते । जैसे कि नाम इंद्रिय में क्रिया नहीं है, नाम मात्र है वह तो और स्थापना रूप इंद्रिय में भी मुख्य क्रिया नहीं है, उनका तो एक वचन और बुद्धि में स्थापना की प्रवृत्ति मात्र हुई है । कहीं परिस्पंद नहीं हुआ । पर इस
द्रव्यनिक्षेप की दृष्टि से जो इंद्रिय कहलाती है, अतीत काल की इंद्रिय या भविष्यकाल में हो सकने वाली इंद्रिय उनमें अभी परिस्पंद कहाँ है? क्योंकि द्रव्यनिक्षेपका विषय वर्तमानकाल नहीं होता । जैसे जो पहले कोतवाल था और अब न रहा तो उसे लोग कोतवाल साहब कहते हैं । यहां द्रव्यनिक्षेप का विषय है अथवा जो अभी राजा नहीं है, राजपुरुष है और वह राजा बनेगा तो उसे अभी से राजा कहना यह द्रव्यनिक्षेप का विषय है । ऐसे ही इंद्रिय में भी द्रव्यनिक्षेप की इंद्रिय अतीत और भविष्य है । वहां तो वर्तमानपना है ही नहीं इसलिए परिस्पंद की क्रिया भी नहीं है । इसी प्रकार नाम स्थापना और द्रव्यनिक्षेप से कषाय और अव्रतों में भी घटित कर लेना । अत: यह एकांत न रहा कि इंद्रिय, कषाय और अव्रत, यह क्रियास्वभाव ही है, क्यों कि यहाँ द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिकनय से यह परखा जाता है कि जब द्रव्यार्थिकनय गौण हो और पर्यायार्थिकनय प्रधान हो तब इंद्रिय, कषाय और अव्रतको कथंचित् क्रियारूप कह सकते हैं और जब पर्यायार्थिकनय को गौण किया जाये और द्रव्यार्थिकनय की मुख्यता की जाये तब इंद्रिय, कषाय, अव्रत का लक्षण और है और 25 क्रियावों का लक्षण और है, अत: इन सबका आस्रव के भेदों में निर्देश किया गया है ।
(23) इंद्रिय कषाय अव्रत शब्दों की निरर्थकता के प्रतिषेध के विषय की अन्य मीमांसा―एक शंकाकार कहता है कि यहां ऐसा अर्थ लगाना चाहिए कि इंद्रिय कषाय और अव्रत ये शुभ और अशुभ आस्रव परिणाम के अभिमुख हैं, इसलिए द्रव्यास्रवरूप हैं और भावास्रव कर्मों का ग्रहण करना है और वह कर्म 25 क्रियावों के द्वारा आता है । इस कारणा से इंद्रिय, कषाय और अव्रत को ग्रहण किया है, यह समाधान भी बन जायेगा । इसके उत्तर में कहते हैं कि इस तरह का अर्थ और समाधान करना उचित नहीं है, क्योंकि इसमें प्रतिज्ञात कथन से विरोध होता है । अभी पूर्व सूत्रों में यह बताया गया कि शरीर वचन और मन की क्रिया योग है और वह आस्रव है । तो इन सूत्रों से द्रव्यास्रव का निरूपण किया गया है । अथवा वहां निमित्तनैमित्तिक विशेष का ज्ञान कराने के लिए इंद्रिय आदिक का पृथक् ग्रहण किया गया है । छूना, चखना, सूंघना आदिक क्रोध, मान आदिक, हिंसा आदिक ये ही तो इंद्रिय, कषाय और अव्रत हैं । तो ये क्रियायें आस्रव हैं और ये 25 क्रियायें इन क्रियावों से उत्पन्न होती हैं । तो यदि इंद्रिय, कषाय, अव्रत को क्रियारूप से देखा जाये तो यह क्रिया तो कारण बनती है और जो 25 क्रियायें कही गई हैं वे क्रियारूप बनती हैं, जैसे मूर्छा, ममत्व परिणाम करना कारण है तो परिग्रह संचय होना कार्य है । और इन दोनों के होने पर जो पारिग्राहिकी क्रिया बनी है, परिग्रह की तृष्णा और उसके रक्षण का ध्यान बनाने में जो परिग्रह की क्रिया बनी है वह भिन्न ही रही, तो इससे यह सिद्ध है कि इंद्रिय कषाय आदिक का ग्रहण करना आस्रव का विवरण स्पष्ट करने के लिए युक्त ही है । और भी देखिये जैसे क्रोध करना कारण है और दूसरे से मनमुटाव होना यह कार्य है और इससे प्रादोष की क्रिया होती है, और भी। देखिये―मान कषाय कारण है और नम्र न रहे, इठलाये यह कार्य है और इससे प्रात्यायिकी क्रिया बनती है सो वह भिन्न सिद्ध होती ही है । प्रात्यायिकी क्रिया में कुछ अधिकरण को ग्रहण करना या रचना आदिक विचार चलते हैं । और भी उदाहरण लीजिए, जैसे माया कारण है और कुटिलता करना कार्य है और इससे फिर मायाप्रवृत्तिरूप क्रिया होती है । और भी उदाहरण हैं, जैसे प्राणों का घात करना कारण है और प्राणातिपातिकी यह क्रिया है, और भी जैसे झूठ, चोरी, कुशील ये पाप कारण है और इन अव्रत कारणों का आज्ञाव्यापादिकी क्रिया कार्य है मायने आज्ञा न मानना और जो शास्त्रों में लिखा है उसका अर्थ विपरीत करने लगना कार्य है । तो इस प्रकार इंद्रिय, कषाय और अव्रत ये कारण रूप होते हैं और 25 क्रियायें कार्यरूप हैं । अत: इन सबका सूत्र में जुदा-जुदा निर्देश करना युक्त ही है ।
(24) सूत्र में कषाय, अव्रत, क्रिया का ग्रहण करने की निरर्थकता की शंका का समाधान―अब यहां एक शंका और होती है कि सिर्फ इंद्रिय का ही ग्रहण करना चाहिए था, उस ही से समस्त आस्रव होते हैं । उत्तर―यह शंका सही नहीं है, क्योंकि इंद्रिय का अभाव होने पर भी कहीं आस्रव पाया जाता है तो यहां उस आस्रव की बात नहीं कही जा रही जो इंद्रिय की अपेक्षा से ही कहा जाये, किंतु सांपरायिक आस्रव का यहाँ कथन है । शंकाकार का कहना यद्यपि स्मृल दृष्टि से ठीक है कि केवल इंद्रिय को ही सांपरायिक आस्रव का कारण मान लिया जाये तो सूत्र बहुत ही छोटा बन जायेगा और जितनी भी क्रियावों में मनुष्य लोग प्रवृत्ति करते हैं वे इंद्रिय के द्वारा कुछ प्राप्त करके विचार करके क्रियावों में प्रवृत्ति करते हैं । सो इंद्रिय कहने से ही सब अर्थ निकल आता । कषाय, अव्रत और क्रियावों का ग्रहण न करना चाहिए, यह बात मूल दृष्टि से ठीक लगती है, और सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाये तो यह युक्त नहीं है, क्योंकि इंद्रियविषय का अभाव होने पर भी कहीं आस्रव पाया जाता है । यदि इंद्रियविषय को ही आस्रव कहा जाये तब तो छठे गुणस्थान तक ही आस्रव बनता है । अप्रमत्त अर्थात् 7वें और 7वें गुणस्थान से ऊपर के गुणस्थानों में फिर आस्रव नहीं बनता, क्योंकि प्रमत्त पुरुष ही चक्षु आदिक इंद्रिय के द्वारा रूपादिक विषयों के सेवन के लिए अनुरक्त होता है अथवा प्रमत्त पुरुष याने कषायसहित पुरुष जिसको प्रमादयुक्त कषाय है वह विषयों का सेवन न भी करे तो भी हिंसा आदिक के कारणभूत अनंतानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण वाली 8 कषायों से युक्त है ना, इस कारण वह हिंसा आदिक करता ही है । भाव की अपेक्षा देखिये तो चाहे वह विषयसेवन करे या न करे, प्रमादी होने से निरंतर कर्मों का आस्रव करता है । इस अप्रमत्त व्यक्ति याने जिसके इंद्रिय, कषाय अव्रत विषयक प्रमाद न रहे, केवल योग और प्रमादरहित कषाय ही है वह भी आस्रव करता है, सो केवल इंद्रियविषय को ही आस्रवों का कारण मानने पर फिर इन आस्रवों का ग्रहण न होगा । अथवा एकेंद्रिय दोइंद्रिय आदिक असंज्ञी पंचेंद्रिय तक के जीवों में किसी के मन नहीं, किसी के कान नहीं, किसी के आंख नहीं, किसी के नाक नहीं, किसी के जीभ नहीं, तो इनके न होने पर भी क्रोधादिक हिंसा होती ही रहती है, कर्मों का आस्रव होता ही रहता है । तो यदि सूत्र में केवल इंद्रिय का ही ग्रहण किया जाये, अन्य का ग्रहण न हो तो इसका संग्रह करने के लिए सूत्र में इंद्रिय, कषाय, अव्रत, क्रिया इन सबका ग्रहण किया गया है ।
(25) सूत्र में केवल कषाय अथवा केवल अव्रत शब्द का ही ग्रहण करने की शंका का समाधान―यहाँ कोई शंकाकार अब यह शंका रख रहा है कि जिस जीव में रागद्वेष नहीं है वह तो इंद्रिय से विषय ग्रहण करता है, न हिंसा आदिक कोई पाप करता है इस कारण सिर्फ कषाय ही सांपरायिक आस्रव का कारण हुआ । अत: सिर्फ कषाय का ही ग्रहण किया जाये, इंद्रिय कषाय और अव्रत का ग्रहण न किया जाये । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि यदि सांपरायिक आस्रव के भेद का निरूपण करने वाले इस सूत्र में केवल कषाय को ही ग्रहण करते, अन्य का ग्रहण नहीं करते तो कषाय के सद्भावमात्र में भी आस्रव का प्रसंग आ जायेगा, याने जिन जीवों के कषाय उपशांत हैं, पर सत्तारूप में पड़ी हैं सो चक्षु आदिक इंद्रिय के द्वारा रूपादिक का ज्ञान तो हो ही रहा है । अब उसके रागद्वेष हिंसा आदिक की उत्पत्तिका प्रसंग हो जायेगा । और भी सोचिये―चक्षु आदिक के द्वारा रूपादिक का ज्ञान करने मात्र से कोई रागद्वेष हो जाये तो कभी कोई वीतराग हो ही नहीं सकता, क्योंकि यह तो ज्ञान का काम है और इंद्रिय एक साधन है, इंद्रियद्वार से इस अवस्था में रूपादिक का ज्ञान किया जा रहा है वह तो होता ही है ज्ञान किंतु चक्षु आदिक के द्वारा रूपादिक का ज्ञान होने पर भी कोई व्यक्ति वीतराग रह सकता है इस कारण कषायमात्र ही सूत्र में ग्रहण किया जाये ऐसा सुझाव ठीक नहीं है । यहां कोई यदि यह शंका करे कि फिर तो केवल सूत्र में अव्रत ही कहा जावे, उसमें ही इंद्रिय कषाय और क्रियाके परिणाम गर्भित हो जायेंगे तो यह शंका भी युक्त नहीं है, क्योंकि पृथक् ग्रहण करने से यहां प्रवृत्ति के निमित्त का स्पष्टीकरण हो जाता है । उस अव्रतरूप परिणाम के इंद्रिय आदिक परिणमन निमित्त कहलाते हैं । अर्थात् इंद्रिय कषाय और क्रिया निमित्तभूत हैं और अव्रतरूप परिणति होना नैमित्तिक है । यह सब स्पष्ट करने के लिए सूत्र में इंद्रिय, कषाय अव्रत और क्रिया इन चारों का पृथक्-पृथक् ग्रहण किया गया है । अब यहां एक जिज्ञासा होती है कि तीनों योगों द्वारा जन्य सांपरायिक आस्रव के जो 39 प्रभेद बतलाये हैं वे तो सभी आत्मावों के कार्य हैं । सभी संसारी जीवों में पाये जाते हैं, तब उनका फल भी सभी जीवों में एक समान होगा । इसके समाधान में कहते हैं कि ऐसा नहीं है । यद्यपि तीनों योग प्रत्येक आत्मा में संभव है संसारी जीवों में फिर भी उनके परिणाम अनंत प्रकार के हैं और उन परिणामों से उनमें फल में भी विशेषता आती है । तो वह विशेषता किस प्रकार है उसके लिए सूत्र कहते हैं ।