वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 7-14
From जैनकोष
असदभिधानमनृतम् ।। 7―14 ।।
(149) असत्य पाप का लक्षण―असत्य कहना अनृत पाप है अर्थात् झूठ नाम का पाप है । सत् का अर्थ है उत्तम । प्रशंसावाची शब्द है यह । और जो सत् नहीं है वह असत् है अर्थात अप्रशस्त अयोग्य नित्य, उसका कथन करना सो असत्य है । जो पदार्थ जिस प्रकार विद्यमान है उस प्रकार न कहकर अन्य प्रकार कथन करना असत्य है । यहाँ शंकाकार कहता है कि सूत्र को यदि इन शब्दों से बनाते मिथ्या अनृतं, तो यह बड़ा छोटा सूत्र बनता । और सूत्र जितना छोटा बने उतना ही भला माना गया है । इस शंका के उत्तर में कहते हैं कि मिथ्या शब्द देने से झूठ के जो अर्थ हैं उनका पूरा बोध नहीं हो सकता, क्योंकि मिथ्या का तो अर्थ इतना ही है कि उल्टा । उल्टा कहना झूठ है सो कोई उल्टा कहे, जो विद्यमान है उसका लोप करे और जो है ही नहीं उसका कथन करे, बस इतना ही झूठ शब्द में आता, अन्य असत्यों का ग्रहण नहीं होता । जैसे अनेक सिद्धांत लोगों के द्वारा माने गए हैं कि आत्मा नहीं है, पर कहीं लोन तो विद्यमान का लोप करना झूठ है, उसका ग्रहण हो गया । इसलिए कोई लोग कहते हैं कि आत्मा कंगनी के चावल बराबर है, अंगूठी की पोर बराबर है । कोई आत्मा को सर्वव्यापी मानते, कोई निष्क्रिय मानते । तो जो मिथ्या वचन बोले गए वे ही असत्य कहलाते मिथ्या शब्द कहने से, पर जो अप्रशस्त वचन हैं, खोटे वचन हैं, दूसरे को पीड़ा पहुंचाने वाले कटुक वचन हैं वे तो असत्य नहीं कहलाते, लेकिन असत्य वे भी हैं । जिन वचनों से दूसरों का अहित हो वे भी असत्य कहलाते हैं । इस तथ्य को सिद्ध करने के लिए सूत्र में असत् का अभिधान अर्थात् कथन, यह शब्द दिया है । अब असत्य का लक्षण कहकर चौर्य पाप का लक्षण कहते हैं ।