वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 7-38
From जैनकोष
अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानम् ।।7-38।।
(210) दान का स्वरूप―अपने और पराये उपकार के लिए धन का त्याग करना दान कहलाता है । अनुग्रह का अर्थ अपना और पर का उपकार करना कहलाता है । तो जो पात्रदान किया जाता है उसमें पुण्य का संचय होना तो सोपकार है और अतिथि के सम्यग्ज्ञान संयम पालन आदिक में भी वृद्धि होती है तो वह परोपकार है । आहार देने से, ज्ञानसाधन देने से उनके ज्ञान संयम आदिक की वृद्धि होती है याने वह इस श्रेष्ठ मन वाले मनुष्यभव में आयु पाकर तत्त्वचिंतन से आत्मशुद्धि करता है । यों स्व और पर के उपकार के लिए स्व का अतिसर्ग करना अर्थात् त्याग करना दान कहलाता है । इस सूत्र के स्व शब्द का अर्थ है धन । यद्यपि स्व शब्द के अनेक अर्थ हैं चांदी धन आदिक फिर भी यहाँ स्व शब्द से धन वाच्य लिया गया है । याने अपने और पर के अनुग्रह के लिए धन का लगाना, त्याग करना दान कहलाता है । इस सूत्र में दान का स्वरूप कहा गया है पर उस दाने में क्या सदा एक जैसी पुण्यभाव प्रवृत्ति रहती है या कुछ विशेषता है । यह बात कहने के लिए सूत्र कहते हैं ।