वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 8-17
From जैनकोष
त्रयस्त्रिशत्सागरोपमाण्यायुष: ।।8-17।।
(304) आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति का निर्देश―आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति 33 सागर प्रमाण है । यहाँ सागरोपम लिखने से कोड़ाकोड़ी का अर्थ अलग हो जाता है, क्योंकि सागरोपम का तो प्रकरण ही है । पूर्व सूत्रों से अनुवृत्ति चली आ रही है फिर यहाँ सागरोपम देने की क्या आवश्यकता थी? तो सागरोपम शब्द का ग्रहण सिद्ध करता है कि केवल 33 सागर ही उत्कृष्ट स्थिति है । कोड़ाकोड़ी अर्थ यहाँ न लगाना । यह 33 सागर की उत्कृष्ट स्थिति का बंध संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त ही कर सकता है । जो मनुष्य निर्ग्रंथ पद धारण कर समीचीन भावलिंग में रहकर समाधिस्थ होकर आयु का क्षय करता है ऐसे जिस श्रमण ने 33 सागर प्रमाण सर्वार्थसिद्धि के देवों में उत्पन्न होने की स्थिति बांध रखी थी सो वहाँ उत्पन्न होता है । सभी उत्पन्न नहीं होते । जिनका जैसा परिणाम है उस परिणाम के अनुसार आयु की स्थिति बाँधते हैं । और कोई मनुष्य वज्रवृषभनाराचसंहनन वाला अधिक से अधिक पापकर्म करे, बहुत खोटे संक्लेशभाव रखे तो वह 33 सागर प्रमाण । नरकायु का बंध करता है और वह मरकर 7वें नरक में जाकर 33 सागर प्रमाण नरकायु को भोगता है । तो आयुकर्म की उत्कृष्ट स्थिति का बंध संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त ही कर सकता है । तब एकेंद्रिय आदिक आयुकर्म का उत्कृष्ट स्थितिबंध कितना करेगा वह आगम के अनुसार समझना । आगम में बताया है कि असंज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त का उत्कृष्ट स्थितिबंध पल्य के असंख्यात भाग प्रमाण होता है और शेष चौइंद्रिय आदिक की उत्कृष्ट आयु स्थितिबंध पूर्वकोटि प्रमाण होता है । अब यहाँ तक कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति बतायी गई है, पर यह नहीं विदित होता कि इस कर्म की जघन्य स्थिति बँधे तो कितनी जघन्य स्थिति बँधेगी । तो कर्म का जघन्य स्थिति बताने के लिए सबसे पहले वेदनीयकर्म की स्थिति कह रहे हैं ।