वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 9-10
From जैनकोष
सूक्ष्मसांपरायछद्मस्थवीतरागयोशचतुर्दश ।।9-10।।
दसवें, ग्यारहवें व बारहवें गुणस्थान में मोहकृत परीषहों की संभवता न होने पर शेष चौदह परीषहों की संभवता―इन 22 परीषहों में मोहनीय संबंधी 8 परीषह हैं, शेष अन्य कर्म संबंधित हैं । सो सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान में एवं 11 वें 12 वें गुणस्थान में 14 परीषह होते हैं । मोहनीय संबंधी 8 परीषह नहीं होते । यद्यपि सूक्ष्म सांपराय गुणस्थान में सूक्ष्म लोभ संज्वलन का उदय है सो जिज्ञासा हो सकती है कि मोहनीय संबंधी परीषह वहाँ क्यों नहीं होते, लेकिन वह संज्वलन लोभ का उदय अत्यंत सूक्ष्म है और वह कार्यकारी नहीं है । केवल सद्भाव ही है । सो जैसे 11 वें 12वें गुणस्थान में 14 ही परीषह होते हैं इसी प्रकार 10 वें गुणस्थान में भी 14 ही परीषह होंगे । यहाँ एक जिज्ञासा होती है कि जिस जीव के क्षुधा की संभावना होती है उसी को उसे जीतने के कारण क्षुधा परीषहविजय कहा जाता है, किंतु 11 वें 12 वें गुणस्थान में मोह का उपशम और क्षय है तथा वे 10 वें गुणस्थान में मोह का अतीव मंद उदय है । तो मोहोदयरूप निमित्त जब वहाँ नहीं है तो वेदना ही नहीं हो सकती । जब क्षुधा संबंधी वेदना नहीं है तो उन परीषहों की संभावना ही नहीं हो सकती । तो जब वे परीषह ही संभव नहीं तो उनका जय और अभाव कैसे? विजय तो उस पर की जाती है कि जो हो पर इस गुणस्थान में क्षुधा की वेदना ही नहीं है, फिर विजय का क्या प्रश्न रहा? समाधान―वीतराग छद्मस्थ के भी अर्थात् 11वें 12वें गुणस्थान में भी चूंकि वेदनीय का उदय है इस कारण से परीषह का वहाँ व्यपदेश है । जैसे कि सर्वार्थसिद्धि के देवों के उत्कृष्ट साता का उदय है इस कारण उन्हें कहीं भ्रमण नहीं करना पड़ता, फिर भी 7वें नरक तक गमन कर सकते हैं, ऐसी जो सामर्थ्य है उस सामर्थ की हानि तो नहीं कही जा सकती । सर्वार्थसिद्धि के देव सब देवों से अधिक गमन कर सकते, पर गमन कहीं करते ही नहीं हैं । तो जैसे साता वेदनीय का उदय होने से कहीं गमन नहीं करते फिर भी गमन करने के सामर्थ्य का अभाव नहीं कहा जा सकता । ऐसे ही इस 10वें 11वें 12वें गुणस्थान में क्षुधा आदिक परीषहों का अभाव नहीं कहा जा सकता ।