वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 9-19
From जैनकोष
अनशनावमोदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्ताशय्यासनकायक्लेशाबाह्यं तप: ।। 9-19 ।।
संवर व निर्जरा के हेतुभूत तपों में प्रथम अनशन तप का प्रतिपादन―बहिरंग तप 6 प्रकार के हैं―(1) अनशन, (2) अवमोदर्य, (3) वृत्तिपरसंख्यान, (4) रसपरित्याग, (5) विविक्तशय्यासन और (6) कायक्लेश । अनशन―दो प्रकार से होता है―(1) अवधिसहित और अवधिरहित । एक दिन बाद भोजन करना याने एक दिन उपवास, अनेक दिन उपवास, नियत काल लेकर उपवास करना यह अवधिरहित अनशन है । अनशन करने वाले साधुजन किसी फल की अपेक्षा किये बिना ही करते हैं । मंत्रसाधना के लिए अनशन नहीं होता । भले ही मंत्र साधना हो और अनशन भी हो, पर मंत्रसाधना के उद्देश्य से अनशन नहीं किया जाता । अथवा कोई लौकिक फल प्राप्त करना हो, उसके लिए अनशन नहीं किया जाता । अनशन किया जाता है संयम की प्रसिद्धि के लिए । आरंभ न हो थोड़ा भी, आय भी न करनी पड़े, पकड़े भी न हों, ऐसे अंतरंग बहिरंग संयम की सिद्धि के लिये अनशन है । राग के विनाश के लिए अनशन होता है । एक तो भोजन संबंधी राग नहीं रहता और अनशन में अन्य प्रकार के राग भी नहीं रहते । तो यों राग के विनाश के लिए अनशन होता है । अनशन कर्म विनाश के लिए होता है । अष्टकर्म ही इस जीव के दुःख के निमित्त कारण हैं, और भावकर्म जो रागादिक भाव उत्पन्न होता है वह साक्षात स्वरूप का घात करने वाला है इसलिये भावकर्म और द्रव्यकर्म का विनाश हो, इसके लिये साधुजन अनशन करते हैं । ध्यान की शुद्धि के लिये अनशन है । जैसे कि प्राय: लोगों को अनुभव है कि भरपेट भोजन किये जाने की हालत में ध्यान में चित्त नहीं रहता तो जब अभिप्राय पूर्वक अनशन किया गया हो तो उस समय में ध्यान की सिद्धि सुगम है । आगमबोध के लिये भी अनशन किया जाता है । स्वाध्याय में मेरा अधिक समय व्यतीत हो और आगम में कहे हुए तत्त्व का अनुभव बने इसके लिए अनशन की सार्थकता है ।
अवमोदर्य तप―वृत्ति के लिए पर्याप्त में से चौथाई या 2-4 ग्रास कम खाना अवमोदर्य है । इसका दूसरा नाम ऊनोदर है । ऊन मायने कम, उदर मायने पेट । जितनी भूख हो, जितना कम खाया जा सकता हो उससे कम खाना ऊनोदर है । ऊनोदर तप करने से संयम की जागरूकता होती है । प्राणिपीड़ापरिहार की प्रवृत्ति न हो, अंतस्तत्त्व की दृष्टि के लिये । उत्साह बना रहता है सो संयम सही बना रहे इसके लिए मुनिजन ऊनोदर तप करते हैं । दोषों की शुद्धि के लिये अवमोदर्य तप है । ऊनोदर तप से आत्मा में सावधानी होती है । रागादिक दोषों का प्रणयन होता है और वास्तविक आत्मीय शांति का उद्भव होता है । अवमोदर्य तप संतोष के लिए किया जाता है, अथवा अवमोदर्य करने से संतोष की प्राप्ति होती है । इन तपश्चरणों में साधुजन अपना परीक्षण भी करते जाते हैं कि हम को कितना धैर्य है, कितना अंतस्तत्त्व की दृष्टि मिली है, यह, भी उनका निरीक्षण होता रहता है । ऊनोदर तप से स्वाध्याय संबंधी सुख भी प्राप्त होता है । वास्तव में आनंद ज्ञान से ही प्रकट होता है । इंद्रिय के विषयों की प्रवृत्ति से होने वाला सुख तो दुःख रूप ही है । वास्तविक आनंद तो ज्ञान से होता है और ज्ञान का साधन है शास्त्रस्वाध्याय । सो ऊनोदर तप करने वाले को शास्त्रस्वाध्याय का भी सुख प्राप्त होता है? क्योंकि उस स्थिति से स्वाध्याय में मन विशेष लगता है ।
वृत्तिपरसंख्यान तप―आशा की निवृत्ति के लिये भिक्षा चर्या संबंधी साधुजन एक, दो या तीन घर का नियम कर लेते हैं अथवा अन्य प्रकार के भी नियम होते हैं, उन नियमों के अनुसार आहार लेने का संकल्प होता है, उसमें आशा तृष्णा नहीं रहती है । जब साधुजन इस संदेह में हो कि आज मुझे आहार को उठना चाहिये या नहीं तब वे वृत्तिपरसंख्यान तप कर लेते हैं और वहाँ आहार का लाभ हो तो, न हो तो दोनों में समान बुद्धि रहती है । अपने तपश्चरण की सफलता की परीक्षा के लिये भी वृत्तिपरसंख्यान नाम का तप होता है । वृत्तिपरसंख्यान में अनेक प्रकार के नियम होते हैं । पुराणों में लिखा है कि एक बार किसी साधु ने यह आखिड़ी ले लिया कि मुझे यदि ऐसा बैल सामने से आता हुआ दिख जाये कि जिसकी सींग में गुड की भेली चुभी हो, तो मैं आहर लूँगा, नहीं तो न लूँगा । अब कौन यह बात जाने, कौन क्या करे? आखिर उनको बहुत दिन बाद ऐसा योग मिल ही गया । जिस समय वह चर्या को निकले उसी समय क्या घटना घटी कि किसी बैल ने एक गुडवाले की दुकान में रखी हुई गुड़ की एक भेली मुख में भर लिया, दुकानदार ने उसे भगाया, उसी प्रसंग में गुड़ की एक मेली बैल के सींग में चुभ गयी, यह दृश्य देखकर उस मुनि ने आहार ले लिया । तो ये अनेक प्रकार के कठिन नियम उस स्थिति में लिए जाते जब कि मुनि समझे कि मुझमें ऐसा ज्ञानसामर्थ्य है कि नहीं कि आहार न मिले तो उसमें हमको और भी प्रसन्नता रह सकती है । तो इस प्रकार अनेक प्रकार के भिक्षा के समय नियम कर लेना वृत्तिपरसंख्यान है ।
रसपरित्याग तप―नमक, दूध, दही, घी, गुड़, तेल आदिक रसों में से एक-दो या सभी का त्याग करना रसपरित्याग है । यह रस परित्याग इंद्रिय विजय की वृद्धि के लिये किया जाता है । जो इंद्रिय के विषय हैं उनके आधीन न हो जाऊँ इसके लिए रस परित्याग होता है, अथवा आत्मा का जो तेज है ज्ञानतेज उसकी वृद्धि के लिये रसपरित्याग है । विशेष रसों का उपयोग करना स्वास्थ्य के लिये भी अहितकर है । सो रसपरित्याग में स्वाध्याय लाभ और शरीर के तेज की वृद्धि भी हो सकती है । संयम में बाधाएं न आए इसके लिये रसपरित्याग किया जाता है । इंद्रिय संयम―संयम का भेद है ही । इंद्रिय के विषय में राग न होना, इंद्रिय के विषय का त्याग करना इंद्रिय संयम है । तो संयम में कोई बाधा न आये इसके लिये रसों का परित्याग होता है । यद्यपि रस शब्द गुणवाची है । रस कोई अलग सत् नहीं है कि जिसका त्याग हो सके, गुण और पर्याय अलग वस्तु नहीं, फिर उसके त्याग की बात ही क्यों कहना, ऐसी कोई जिज्ञासा हो सकती है । उत्तर, इसका यह है कि जहाँ यह कहा जाये कि रस का त्याग है उसका अर्थ है कि रस वाले पदार्थ का त्याग । जैसे कोई कहे कि शुक्ल कपड़ा तो सफेद तो गुण है । वहाँं अर्थ यह होता है कि सफेद गुण वाला कपड़ा । गुणी को छोड़कर गुण अलग नहीं रहा करते । तो जब भी गुणों की बात कही जाये तो वहाँ गुणवान का अर्थ लेना चाहिये । और पदार्थ के त्याग से ही गुणों का त्याग होता है । रसीले पदार्थ का त्याग किया तब ही तो रस का त्याग बना । अब एक जिज्ञासा यह होती कि जो भी पुद्गल होंगे वे रस वाले तो होंगे ही । तो अगर रस का त्याग किया तो सारे पुद्गल का त्याग हो गया । फिर वहाँं कुछ खाना ही न चाहिये । सो उसके संबंध में यह बात है कि जब यह कहा जाये कि रस का त्याग है तो उसका अर्थ यह होता है कि जिसमें स्वादिष्ट उत्तम रस हों उस पदार्थ का त्याग है ।
अनशन, ऊनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान व रसपरित्याग के स्वरूपों का अंतर―यहां शंकाकार कहता है कि अब तक 3 तपों का निर्देश किया गया―अनशन, अवमोदर्य और रसपरित्याग । इनमें ही वृत्तिपरसंख्यान शब्द आ जायेगा, क्योंकि सामान्य भिक्षावृत्ति में नियम तो होते ही हैं । तो इसका अलग निर्देश क्यों किया? या वृत्तिपरसंख्यान में जब हर एक प्रकार के नियम लिए जाते हैं तो उक्त तीन तपों का ग्रहण हो ही जायेगा । वे भी नियम में आ गये, फिर उनका अलग उपदेश क्यों किया गया? यदि कोई ऐसा समाधान दे कि वृत्तिपरिसंख्यान का भेद मान लो उक्त तीन तपों को, फिर इनका पृथक निर्देश किया गया तो यदि भेद मानकर पृथक निर्देश किया जाये तब फिर गिनती में कोई व्यवस्था नहीं रह सकती कि बहिरंग तप 6 हैं, यों तो किसी भी तप में कितने ही भेद बनाये जा सकते । अब उक्त शंका का समाधान करते हैं कि भिक्षा के लिये जो साधु गया है वह ऐसा नियम करता है कि इतने घरों तक या इतने क्षेत्र तक काय चेष्टा करूंगा । वहाँ आहार मिल सका तो ले लूंगा । इससे अधिक चेष्टा न करूंगा । अथवा कभी शक्ति अनुसार अन्य भी नियम ले लेते हैं । तो ऐसी काय चेष्टा का नियमवृत्तिपरसंख्यान है । पर अनशन में भोजन की निवृत्ति है । अवमोदर्य में भोजन की मात्रा की निवृत्ति है और रस परित्याग में भोजन की आंशिक निवृत्ति है । अमुक रस न लूंगा । तो तीनों का जुदा-जुदा लक्ष्य है इस कारण इन तीनों में भेद है और रसपरित्याग भी जुदा तप है और वृत्तिपरसंख्यान भी जुदा तप है ।
विविक्तशय्यासन तप―विविक्त कहते हैं एकांत स्थान को, वहाँ सोना और बैठना यह विविक्तशय्यासन तप है । विविक्तशय्यासन तप के कारण अनेक बाधाओं का निवारण हो जाता है । बाधायें आती हैं समागम में । किसी का समागम होने पर मन, वचन, काय की प्रवृत्ति करना पड़ता है और ये ही सब बाधायें हैं । किस समय कैसा कषायभाव जगे, कैसी भावना बने । उससे अनेक बाधायें आ सकती हैं । पर जो एकांत स्थान में सोता है, बैठता है, और रहता है उसको कहाँ से बाधायें आयेंगी? वह तो एक अकेला अपने भगवान परमात्मा के साथ रह रहा है । विविक्तशय्यासन तप से ब्रह्मचर्य की सिद्धि होती है । क्योंकि कोई दिखता नहीं अतएव कोई विकार के आने का प्रसंग नहीं होता । विविक्तशय्यासन तप से स्वाध्याय की भली प्रकार सिद्धि होती है । अकेले ही बैठे हैं, किसी से वार्तालाप हो नहीं रहा है तो यह अपने स्वाध्याय में, ज्ञानसाधना में बाधा रहित उपयोग लगाये रहेगा । इस प्रकार आत्मध्यान की सिद्धि में इस विविक्तशय्यासन तप का महान सहयोग है । एक स्वयं ही बैठा है मुनि सो अपने अंत: प्रकाशमान परमात्मतत्त्व से उसकी भेंट होती रहती है । सो विविक्तशय्यासन मुनिजनों का महान तप है ।
कायक्लेशतप―अनेक प्रकार के तपश्चरणों के कारण और ऐसी ही चर्या के कारण शरीर का खेद होना कायक्लेश तप है । ये मुनिजन अनेक प्रकार के प्रतिमायोग धारण करते हैं―जैसे रात्रि में खड़े-खड़े ध्यान करना, मौन रहना, गर्मी में खुली जगह किसी पर्वत आदिक पर ध्यान करना, वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे खड़े होकर ध्यान करना, गिरि, गुफा आदिक में निवास करना, इन सब चर्याओं से शरीर पर खेद होना प्राकृतिक बात है । तो उस शरीर पर खेद को वे खेद नहीं मानते और उस ही में प्रसन्न रहकर सहज परमात्मतत्त्व की दृष्टि में संतुष्ट रहना कायक्लेश तप है । कायक्लेश तप के कारण ऐसी सहनशक्ति बढ़ जाती है कि अचानक कोई दुःख आ जाये तो उससे उनको व्याकुलता नहीं होती । और कायक्लेश के अभ्यासी मुनि को विषय सुखों में आसक्ति नहीं होती । यदि कोई सुखिया जीवन व्यतीत करने वाले के सामने कोई संघर्ष की बात आ जाये तो फिर वह घबड़ा जायेगा, उसका चित्त समाधान रूप न रहेगा और वह कष्ट पायेगा, पर कायक्लेश तप का अभ्यासी प्रत्येक संघर्ष के समय धीर ही रहता है । तो कायक्लेश तप परीषह की जाति का नहीं है । क्योंकि परीषह तो जब चाहे आ जाते हैं, पर कायक्लेश तो जान-बूझकर बुद्धि पूर्वक किए जाते हैं । कायक्लेश तप में भी अन्य तपों की भांति कोई लौकिक फल की वांछा न होनी चाहिये । थे सभी तप सम्यक् रूप हैं । इनमें । लौकिक फल की निरपेक्षता रहती है । इस प्रकार 6 तपों का वर्णन हुआ ।
सूत्रोक्त छह तपों की बाह्यतप संज्ञा होने का कारण व बाह्य तपों का कर्म निर्जरा में सहयोग―अब इन तपों में यह जिज्ञासा होती है कि इन छहों को बाह्य तप क्यों कहा गया है? उसके अनेक कारण हैं । बाहर जो भोजन आदिक हैं उनकी अपेक्षा से ये तप बने हैं―भोजन छोड़ना, भोजन कम करना, रसों को छोड़ना या अमुक घर अमुक पदार्थ का नियम कर लेना, एकांत कुटी आदिक में रहना, सब बाह्य द्रव्यों की उपेक्षा है, इस कारण ये तप बाह्य तप कहलाते हैं । दूसरी बात―ये 6 प्रकार के तप दूसरे लोगों को भी प्रत्यक्ष मालूम होते हैं । भीतर के परिणाम को कोई क्या जाने, पर इसने अनशन किया है । इसने दो ग्रास ही खाया है । इसने रसों का परित्याग किया है । यह एकांत स्थान में रहता है, ऐसा दूसरे लोगों को जाहिर रहता है । सो दूसरे लोगों के द्वारा प्रत्यक्षभूत होने से इन्हें बाह्य तप कहते हैं । तीसरी बात इन अनशन आदिक तपों को मुनिजन भी तप सकते हैं और गृहस्थजन भी, इस कारण यह बाह्यपना बताया गया है । ये अनशन आदिक तप कर्म ईधन को जलाते हैं इसलिये तप कहना सही है अथवा इन तपों में शरीर और इंद्रिय का ताप होता है, इस ताप के कारण इंद्रिय पर विजय प्राप्त करना बहुत सुगम हो जाता है । अब अंतरंग तप के भेद बतलाते हैं ।