वर्णीजी-प्रवचन:मोक्षशास्त्र - सूत्र 9-23
From जैनकोष
ज्ञानदर्शनचारित्रोपचारा: ।। 9-23 ।।
विनय नामक आभ्यंतर लय के प्रथम तीन विनय तपों का प्रतिपादन―इस सूत्र में विनय के चार भेदों का वर्णन है । (1) ज्ञानविनय, (2) दर्शन विनय, (3) चारित्र विनय और (4) उपचार विनय । ज्ञान का विनय करना ज्ञान विनय है । ज्ञानविनय करने वाला प्रमादरहित अनुरागपूर्वक देश काल की विशुद्धि के अनुसार मोक्ष के प्रयोजन को करता है । सो ज्ञान को ग्रहण करना, अभ्यास करना, स्मरण करना, ध्यान मनन करना, यह सब ज्ञान विनय कहलाता है । ज्ञानविनय से भरा हुआ महापुरुष ज्ञानीजनों की भी विनय करता है । तो ज्ञानियों की विनय करना उपचार विनय में कहा जायगा । यहाँ तो ज्ञानभाव के प्रति विनय की बात कही जा रही है । दर्शनविनय वस्तु का जैसा स्वरूप है उस ही प्रकार से दर्शन करने में निशंक होना और विनयशील होना दर्शनविनय कहलाता है । जिनेंद्रदेव की दिव्यध्वनि में आचारांग आदिक से लेकर समस्त द्वादशांग का उपदेश किया है । जिन्हें गणधर देव ने अपने शब्दों में गुँथा है वे शब्द यद्यपि लौकिक नहीं हैं । हैं आगम के ही शब्द और वे 64 अक्षरों के इकहरे, दुसंयोगी, प्रसंयोगी आदिक रूप से गुथे हुए हैं । तो ऐसा श्रुत महासमुद्र में पदार्थों का जैसा उपदेश दिया गया है उस ही रूप से श्रद्धान करने में निशंक रहना दर्शन विनय है । चारित्रविनय ज्ञान और दर्शन से विशिष्ट पुरुषों के दुर्धर चारित्र का वर्णन सुनकर हर्ष होना उन चारित्रधारियों के प्रति बहुमान आना, अंतरंग में भक्ति प्रकट करना, प्रणाम करना, मस्तक पर हाथ रखकर, अंगुली जोड़कर आदर प्रकट करना और भावपूर्वक उस चारित्र का प्रयोग करना यह सब चारित्र विनय है । विनय तप कहलाता है । तप से इच्छानिरोध होता है । तो इस प्रकार के आत्मा के गुणों के प्रति जिसका अनुराग है, विनय बना हुआ है वह पुरुष इच्छानिरोध तो कर ही चुका है, उसके किसी भी इंद्रिय विषय की वहाँ चाह नहीं है । इस कारण इन विनयों में इच्छानिरोध बराबर बना है और यह तप कहलाता है । तो ऐसे आत्मा के गुणों के प्रति विनय अनुराग होना यह ज्ञानदर्शन चारित्र विषयक विनय है ।
विनय नामक तप के चार भेदों में अंतिम उपचार विनय का प्रतिपादन―उपचार विनय पूज्य गुरुओं को निरखकर आचार्य आदि को सामने देखकर खड़े हो जाना, उनके पीछे चलना, अंगुली जोड़ना, वंदना करना यह सब उपचारविनय है । विनयशील पुरुष विद्या के अधिकारी होते हैं । कठोर हृदय में विद्या का प्रवेश नहीं होता । एक कथानक है कि किसी एक राज्य में हीन कुलवाला एक विद्या सिद्ध किये हुए था, वह विद्या यह थी कि अपने औजारों को मंत्रबल से आकाश में ही लटकाये रखना । राजा ने एक बार यह देखा तो उसको इच्छा हुई कि मैं भी यह विद्या सीख लूं, किसी भी चीज को मंत्रबल से ऊपर ही लटकाये रखना, खूँटी पर टाँगने की भी जरूरत नहीं, तो वह राजा उस पुरुष से बोला―भाई मुझे भी आप अपनी यह विद्या सिखा दो । तो वह बोला, हां महाराज जरूर सिखा देंगे अब वहाँ वह राजा सिंहासन पर बैठकर विद्या सीखता था और वह पुरुष नीचे खड़ा होकर सिखाता था । इस विद्या को हुए कई दिन निकल गए पर राजा को वह विद्या न आई । एक दिन देख लिया उस राजा के मंत्री ने, पूछा―महाराज आप यह क्या कर रहे? तो राजा बोला―हम एक विद्या इस पुरुष से सीख रहे हैं । तो मंत्री बोला―यदि आप सीख रहे हैं कोई विद्या इस पुरुष से तो आप सिंहासन से उतर कर नीचे खड़े होइये और इस सिंहासन पर इस पुरुष को बैठाइये । आखिर राजा ने वैसा ही किया तब दो दिन में ही वह विद्या आ गई । तो यहाँं विनय की बात कह रहे कि जिससे कुछ सीखना है उसके प्रति विनय भक्ति, आदर, बहुमान अवश्य होना चाहिये । यह तो है लौकिक विद्या सीखने की बात । फिर मोक्षमार्ग में बढ़ने के लिए तो उन गुरुजनों के प्रति विनयभाव होना ही चाहिये । यदि आचार्य गुरुजन परोक्ष में हैं, सामने नहीं हैं तब भी उनका नाम लेकर उनके प्रति अंजुलि धारण करना, उनके गुणों का स्तवन करना और मन, वचन, काय से उनकी आज्ञा का पालन करना यह सब उपचार विनय है । ज्ञान, आचरण, आराधना आदिक की सिद्धि विनय से ही होती है और विनय तप से ही अंत में मोक्ष सुख प्राप्त होता है । अत: अपनी प्रगति चाहने वाले आत्माओं को विनयभाव अवश्य ही रखना चाहिये । अब वैयावृत्य नामक तप के भेद कहते हैं ।