वर्णीजी-प्रवचन:युक्त्यनुशासन - गाथा 11
From जैनकोष
हेतुर्न दृष्टोऽत्र न चाऽप्यदृष्टो
योऽयं प्रवाद: क्षणिकात्मवाद: ।
न ध्वस्तमन्यत्र भवे द्वितीये
संतानभिंने न हि वासनाऽस्ति ।।11।।
(38) क्षणिकात्मवाद के साधक हेतु व प्रमाण का अभाव―नित्यत्व के एकांत का खंडन होने के बाद अब अनित्यत्ववाद का विचार चल रहा है । अनित्यवादी यह कहता है कि पदार्थ क्षण-क्षण में नष्ट होते हैं और नष्ट हुए पदार्थ दूसरे समय में कैसे ठहरेंगे और इसी तरह मोटे रूप में परखें तो यहाँ मरा हुआ जीव दूसरे भव में कैसे जायेगा? प्रथम तो दूसरे समय ही नहीं ठहरता । इस प्रकार एक क्षणिक आत्मवाद का एक प्रवाद है ।
(39) क्षणिक आत्मवाद के प्रवादरूप में शंका―इस प्रवाद के समय में यह पूछा है कि इस प्रवाद को सिद्ध करने वाला कोई हेतु है या कोई प्रमाण है ? क्योंकि कुछ भी हेतु यह क्षणिक एकांतवादी बताये तो वह हेतु दृष्ट है या अदृष्ट; यों दो विकल्प होगे । दृष्ट के मायने है युक्तियों से सिद्ध और अदृष्ट के मायने है कपोलकल्पित अथवा कल्पनारोपित । इस पर यदि क्षणिकवादी यह कहें कि आत्मा क्षणिक है, क्योंकि सत् है जो-जो सत् होते हैं वे क्षणिक होते हैं, जैसे शब्द बिजली आदिक, इनमें भी सत् है, अत: वह स्वभाव से क्षणिक ही ठहरेगा यों हमारा हेतु तो है । तो उत्तर में कहते हैं कि अपने मुख से कह तो लिया हेतु, मगर वह हेतु देखा गया है या नहीं याने हेतु का प्रयोग करने वाला ज्ञानी के द्वारा जाना गया है या कपोल कल्पित है? याने कल्पना-कल्पना से ही आरोपित है तो यहाँ विचार करें कि क्षणिकवादियों के द्वारा दिया गया हेतु इष्ट तो बन नहीं सकता, क्योंकि सब कुछ क्षणिक होने के कारण दर्शन के अनंतर ही उसका विनाश होने से अनुमान काल
में भी उसका अभाव हो जायेगा, और सीधे समझ लीजिये कि जिस पुरुष ने अनुमान से देखा वह अनुमान करने वाला भी दूसरे क्षण तो ठहरेगा नहीं, जिस समय प्रत्यक्ष से हेतु को देखा अब अनुमान करने का समय तो दूसरा है और अनुमान के बाद फिर दूसरा समझे उसका समय दूसरा है तब तक तो पदार्थ ही नहीं, अनुमान करने वाला भी नहीं । सुनने वाला भी सब समयों में नहीं । तो हेतु किसको दिखाया जाये ? तो दृष्टि हेतु तो बन नहीं सकता और इसी तरह कल्पित भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उस कल्पना का भी तत्क्षण विनाश हो गया । अनुमान काल में तो रहा नहीं ।
(40) क्षणिकात्मवाद में कार्यसाधक वासना, संस्कार की असिद्धि―यदि कोई यह कहे कि जिस समय व्याप्ति ग्रहण की उस समय हेतु के देखने की कल्पना हुई और उसका विनाश हो गया सो हो जाये, मगर उसकी वासना, संस्कार तो बनता रहता है तो उस संस्कार के कारण अनुमान बन जायेगा । तो यह कहना भी यों युक्त नहीं है कि जब आत्मा क्षण-क्षण में नया-नया होता है तो वासना एक की दूसरे में कैसे पहुंच सकती है ? जैसे दो पुरुष हैं, उनमें एक की वासना दूसरे में तो नहीं पहुंचती । तो ऐसे ही जब देह के आघार में नये-नये आत्मा बन रहे तो आखिर हैं तो वे नये-नये आत्मा । एक आत्मा का दूसरे आत्मा में संस्कार कहा जायेगा, क्योंकि भिन्न संतान है तो वासना का अस्तित्त्व नहीं बन सकता । तो जब वासना भी न बनी, हेतु भी न बना तो पदार्थ क्षणिक है । इसकी सिद्धि बन ही कैसे सकती है? तो जैसे आत्मा को सर्वथा नित्य मानने में न बंध है, न मोक्ष है, न कार्य है, न कारण है, ऐसे ही आत्मा को सर्वथा क्षणिक मानने पर भी कोई व्यवस्था नहीं बनी । अब अवस्था की बात तो दूर रहो, मगर वहाँ तो प्रकृतवाद की भी सिद्धि नहीं बनती याने आत्मा क्षणिक है, यह कथन भी तो न बना । तो आत्मा सर्वथा अनित्य है ऐसा जिसका एकांत है, ऐसा पुरुष आत्मा के बारे में सम्यग्ज्ञान न होने के कारण वह बंध से हटकर मोक्ष की विधि में प्रवृत्त नहीं हो सकता है, और जीवों का ध्येय तौ मोक्ष होना चाहिए । किसी भी प्रकार से संसार के संकटों से छुटकारा बन जाये । जब आत्मा क्षणिक है, क्षण-क्षण में नया-नया होता है तब फिर बंध भी कौन और मुक्त भी कौन? किसी भी आत्मा को क्या आपत्ति? कदाचित् एक समय को कोई आपत्ति आ गई तो यह तो मिट ही गई । आपत्ति क्या रही? और जब कोई आपत्ति ही न रही तो फिर मोक्ष का प्रयास कौन करे? किसलिए व्रत, तप, संयम, मन का निरोध आदिक क्रियायें की जायेगी ।