वर्णीजी-प्रवचन:रत्नकरंड श्रावकाचार - श्लोक 101
From जैनकोष
सामयिकं प्रतिदिवसं, यथावदप्यनलसेन चेतव्यं ।
ब्रतपंचकपरिपूरण कारणमवधान युक्तेन ।। 101 ।।
आरंभविरत होकर सामायिक में एकाग्रचित्त से अविकार आत्मस्वरूप के ध्यान का कर्तव्य―व्यापार से विरक्त होने के कारण आरंभ आदिक से छूटकर यह ज्ञानी श्रावक सामायिक को धारण करे, तो ऐसी विकल्प रहित स्थिति में सामायिक करना योग्य होता है । तो खासकर एकाशन का दिन हो, उपवास का दिन हो, उन दिनों सामायिक में एक विशेष प्रगति का उपाय करना चाहिए । प्रतिदिन तो सामायिक करना इसके लिए है ही श्रावक मगर उपवास के दिन तो सामायिक में विशेष समय देना चाहिए और सारा समय स्वाध्याय ज्ञान चर्चा आदिक में व्यतीत हो तो सामायिक भी भली प्रकार होती है । यह सामायिक अहिंसा आदिक 5 व्रतों की परिपूर्णता का कारण है । अविकार अखंड शुद्ध चैतन्यस्वरूप की दृष्टि जहाँ करने का प्रयास चल रहा है उस पौरुष में कहां पाप चल रहा है? अहिंसा व्रत की पूर्णता बनी रहती है । जितने व्रत आदिक हैं उन सबसे हटकर आत्मस्वरूप में मग्न होना चाहिए । यह व्रती श्रावक सामायिक करने के उद्यम में समस्त आरंभ आदिक क्रियावों को त्याग देता है । यह कोई सामायिक नहीं है । सामायिक भी कर रहे हैं, बच्चा भी पास में बैठा है वह कभी इधर उधर जाता तो उसे भी पकड़ना, पास बैठाना, फिर सामायिक करने लगना यह तो एक खानापूर्ति है, सामायिक नहीं है । वास्तव में सामायिक तो है भले प्रकार एकांत में अच्छे आसन में बैठकर आरंभ आदिक का परित्याग करके समता परिणाम रखें । उस समय केवल शुद्ध आत्मस्वरूप मनन में रहे, सामायिक का पूर्ण लाभ उसे मिलता है, फिर अष्टमी चतुर्दशी या अन्य पर्वो का अवसर मिला तो वहाँ सामायिक देने में अनेक बार बैठकर रागद्वेष का परित्याग करता हुआ रहे, ऐसा व्रती श्रावक का कर्तव्य होता है।
सामायिक का समय―सामायिक का समय, दो घड़ी, चार घड़ी, 6 घड़ी यों तीन प्रकार का बताया दो घड़ी से अधिक जितना चाहे बढ़े, 6 घड़ी तक सामायिक का समय है । तो ठीक समय तो बताया गया है कि सूर्योदय से कुछ पहले कुछ बाद जैसे 6 घड़ी करना है तो तीन घड़ी पहले और तीन घड़ी बाद, सूर्यास्त के समय करना तो 3 घड़ी पहले और 3 घड़ी बाद, दोपहर को 12 से 3 घड़ी पहिले व 3 घड़ी बाद । पर यहाँ यह समझना कि सारा समय 6 घड़ी का है । देखिये कहीं घड़ी नहीं सामने रखी होती, घड़ी रखने का नया रिवाज जो अब चल गया । पहले तो एक अंदाज चलता था । तो जो 6 घड़ी का समय है सूर्योदय के समय, दोपहर में और सूर्यास्त के समय तीनों बार तीन घड़ी पहले और तीन घड़ी बाद यों छ: घड़ी का जो सामायिक करे वह उत्कृष्ट सामायिक है । सामायिक की तीन समय की स्थितियां बतायी―उत्कृष्ट से उत्कृष्ट छ: घड़ी मध्यम चार घड़ी जघन्य 2 घड़ी । जघन्य में उन छ: घड़ी में से कभी दो घड़ी सामायिक की जा सकती है । सामायिक के इस प्रकार के नियत समय का अर्थ है कि श्रावक के परिणामों में विशुद्धि की संतति बराबर बनी रहे उस योग्य समय इतना हो पाता है । तो दृढ़ आसन करके सामायिक में बैठें उसमें दायें बायें का देखना न रहेगा कि कभी यहाँ देखा, कभी अगल बगल देखा । अरे किसको देखना, क्या देखना । अपने को देखने के लिए सामायिक में बैठे हैं फिर क्यों पर पदार्थों में देखना चाहते हो, वार्ता करना तो दूर रहा, वार्ता तो करेगा ही नहीं । समस्त पंचेंद्रियों के विषयों से वह अलग है उसने मन का नियंत्रण किया । चेतन अचेतन किसी द्रव्य में वह रागद्वेष नहीं कर रहा है सामायिक में श्रावक की ऐसी ही भावना है और इसी प्रकार का शेष समय प्रयोग चले ऐसा उसका प्रयत्न है ।
सामायिक करने वाले व्रती श्रावक की सर्वजीवों के प्रति मित्रता की भावना―जगत के सर्व जीवों में मेरा मित्रता का भाव हो । मित्रता कहते है उस परिणाम को जिसमें यह भावना रहती है कि किसी भी जीव को दुःख न हो । देखिये ऐसी पवित्रता अपने चित्त में अवश्य लाइये । अंतरंग में अपना पक्का विचार बनाइये कि किसी भी जीव को मेरे द्वारा दुःख न हो, फिर अपने द्वारा किसी को दुख पहुंचे यह तो खोटी बात है । मेरे द्वारा या किसी के द्वारा किसी भी प्रकार किसी जीव के दुख न हो और वे जीव अपने आपके स्वरूप को जानें जिसके बलपर वे, दुःख न पायें ऐसी स्थिति बने, यह भावना मैत्री भावना कहलाती है । अपने बारे में वह सोचता है कि सब जीवों से मैं क्षमा चाहता हूँ । सर्व जीवों में क्षमा धारण करता हूँ । कोई जीव मेरा बैरी नहीं है ऐसा वह अंतरंग से निरख रहा है क्योंकि जीव-जीव सब अमूर्त हैं ज्ञानमात्र हैं । उनमें कौनसी विधि ऐसी आयी या मुझ में जिसके कारण कोई मेरा शत्रु कहलाये? कोई भी मेरा शत्रु नहीं, प्रयोग में भी जिसकी आज अनबन है और कोई मान लो रिश्तेदार ही बनने लगे या कुछ भी हो या वातावरण ही दूसरा बने तो वही तो प्यारा मित्र बन जाता है । शत्रु है कौन दुनिया में? ठीक इस तरह की भावना रहे तो मेरे आत्मा को ही लाभ है ऐसा जानें । कोई जीव मेरा बैरी नहीं मेरे द्वारा उपार्जित किए हुए कर्म वे मेरे बैरी है । दूसरा कोई मेरा बैरी नहीं । कदाचित् किसी के द्वारा मेरे को कोई बाधा पहुंचाये तो मेरे ही कर्म ऐसे बंधे थे, मेरा ही वैसा उदय है तब बाधा आयी है । मेरे पाप का उदय न आये और मुझ को कोई दूसरा बाधा का कारण बने ऐसा नहीं होता । बैरी है तो मेरे पूर्व उपार्जित कर्म बैरी हैं ।
सामायिक में अपने किये गये अपराध का चिंतन व क्षमाभाव―मैं दूसरे को बैरी समझ लेता हूँ तो अज्ञानभाव से ही समझता हूँ क्रोधभाव में या घमंड जब आता तब या जब लोभ हो । जिसको देखते हैं कि यह मेरी कषाय के अनुकूल प्रवृत्ति नहीं कर रहा उसको अपना बैरी मान लेते, मेरा बैरी जगत में कोई जीव हो ही नहीं सकता । मैं आत्मा अज्ञान से कल्पनायें कर के दूसरों को बैरी मानता रहता हूँ । किसीने अगर मेरे कर्तव्य की प्रशंसा न की तो समझ लेते कि यह मेरा बैरी है, कोई मेरा आदर सत्कार विशेष न करे तो उसे अपना बैरी मान लेते । मेरे में कोई दोष हो और उसे कोई कह बैठे तो हम उसे अपना बैरी मान लेते । जो हम चाहते हैं भोजन वस्त्रादिक उसे कोई नहीं देता तो हम उसे बैरी मान लेते । भला कोई किसी के अधीन तो नहीं है, सबका अपना-अपना परिणाम है और अपने ही भावों से सब अपनी-अपनी चेष्टायें करते हैं किसी पर अधिकार तो नहीं पर कभी सोचे कोई कि ऐसा क्यों नहीं किया गया, मेरी बात इसने नहीं मानी तो वह उसकी अज्ञान चेष्टा है । मेरे ही कषायभाव से जो दुर्बुद्धि उत्पन्न होती है उससे मैं दूसरे जीवों के प्रति बैरी की बुद्धि कर लेता हूँ । तो मैं अब इस दुर्बुद्धि को त्यागकर समस्त जीवों से क्षमा चाहता हूँ । व्रती श्रावक सामायिक में रहता हुआ किस तरह का चिंतन करता है यह बात यहाँ कही जा रही है । किसी जीव को मेरे अज्ञान भाव से कुछ चेष्टा बनी हो, दुःख पहुंचा हो, सर्वजीव मुझे क्षमा करें । यह श्रावक कोई कष्ट नहीं रखता । व्रती श्रावक सरलभाव से भीतर के उमंग से, सहज परमात्मतत्व की उपासना की उमंग से हृदय से क्षमा कर रहा और क्षमा चाह रहा ।
सामायिक में श्रावक की नि:संगता―जितने समय यह श्रावक सामायिक में है, उसने संकल्प किया कि मैं दो घड़ी तीन घड़ी सामायिक के समय में मन, वचन, काय से किसी भी,प्रकार का इंद्रिय के विषयों का लगाव न रखूँगा, इसने समस्त आरंभ परिग्रह को त्याग दिया उतने - समय के लिए । ऐसा त्यागने में तब व्रती श्रावक के किसी भी वस्तु का लगाव नहीं रहता और एक अपने आप में एकाकी ज्ञानमात्र स्वरूप को निरखता रहता उस समय तो वह मुनिवत् है । मुनि ने सदा के लिए त्याग किया है जीवन में, इसने सामायिक के उतने समय के लिए सर्व का बिल्कुल त्याग किया है मन, वचन, काय कृतकारित अनुमोदना से । पर समय की अवधि लेकर किया है । मेरा कर्त्तव्य है कि मैं अपने अविकार ज्ञानस्वभाव सहजपरमात्मतत्त्व में मग्न रहूं, पर कर्मोदयवश मैं यहाँ मग्न नहीं हो पाता हूँ । तो जो मग्न होना चाहते है और इस स्वरूप में मग्न हुए हैं, परमात्मा हुए हैं उनका मैं स्मरण करता हूँ । यहाँ भी तो देखते कि कोई बच्चा जिस काम को नहीं कर सकता उसको करने के लिए मां बाप की तरफ देखकर रो देता, तो उसके मां बाप उस काम को करा देते हैं । मान लो कहीं चढ़ रहा है वह बच्चा पर चढ़ नहीं पा रहा तो वह रोने लगता है । रोकर मां बाप की मदद लेता है, मां बाप उसे उस जगह चढ़ाकर उसका मन बहला देते हैं । तो ऐसे ही सामायिक में रहने वाला श्रावक अपने स्वरूप में मग्न होना चाहता है तो वह अरहंत सिद्ध प्रभु की दृष्टि करता है, जो समर्थ हैं, जिन्होंने उस काम को कर लिया है उनके गुणों का स्मरण करता है और गुण स्मरण के प्रताप से अपने आप में बल प्रकट करता है आनंदमग्न होने की कोशिश करता है । इसी स्वरूपमग्नता के प्रयोजन से पंच नमस्कार मंत्र का स्मरण जिनेंद्र देव के प्रतिबिंब का चिंतवन करता रहता है, उसकी धुन केवल एक ही है कि अपने आत्मा का जो ज्ञाताद्रष्टा स्वभाव है जो रागद्वेषादिक विकार से पृथक् है उसको अनुभव करता हुआ ही ठहरूँ, इस प्रयोजन से अनेक पाठ करता है । चत्तारिदंडक पाठ का मन में स्मरण करता है । वह अरहंत सिद्ध साधु और धर्म को ही शरण मानता, उसकी ओर यह आकर्षित होता । 24 तीर्थंकरों का नाम लेकर गुणानुवाद करे, स्तवन करे जो स्तवन करे उसके अर्थ में एकाग्रचित्त होकर उसका ध्यान करे ऐसा यह व्रती श्रावक सामायिक के समय शुभ और शुद्ध उपयोग का प्रयास कर रहा है ।
यह श्रावक सामायिक में अपने गुणदोष का चिंतवन भी करता है । कोई व्यापारी भी तो चाहे वह छोटासा ही व्यापारी हो, आखिर वह भी तो दिनभर में जरूर ख्याल करता है कि आज मेरा हानि लाभ का ऐसा हिसाब रहा । तो यह व्रती श्रावक सुबह शाम सामायिक में प्रतिक्रमण के अवसर पर अपने गुणदोष का चिंतवन करता है । रात्रि में जो दोष किया उसका सुबह चिंतवन करे, मुझ से क्या दोष हुए, मेरे द्वारा किसको बाधा रही, उन सब दोषों का चिंतवन करता । दिन में किए हुए दोषों का शाम को सामायिक में चिंतवन करता है, क्या अनर्थ किया अपने स्वरूप से चिगकर बाहरी पदार्थो में उपयोग देते रहे यह अनर्थ भी बड़ा अनर्थ समझता है । वह ध्यान करता है कि मैंने कितना समय बाहरी पदार्थों में उपयोग देकर अपने आपको खराब किया । यह व्रती श्रावक सामायिक में अपनी सभी दुर्लभ सामग्री का भी विचार करता है । जगत में कैसे-कैसे जीव पड़े हुए है कैसे दुःख की स्थिति में हैं, उनसे हम आप कितनी ऊंची स्थिति में हैं, मनुष्य हुए जैन शासन मिला, धर्मोपदेश सुनने बांचने का बहुत प्रसंग मिलता रहता है, श्रेष्ठ जाति मिली, श्रेष्ठ कुल मिला तो क्या मैं अपने उस चैतन्य स्वभाव में मग्न होने रूप धर्म को न पा लूँगा । क्या इसकी धुन न करुंगा? क्या इसमें कुछ प्रयोग न रखूँगा । यदि ऐसा न किया तो मेरा जीवन बेकार है । क्या मैं इस लिए यहाँ मनुष्य बनकर आया कि रातदिन अपना पेट भरूं या विषयभोगों में रहूं और फिजूल की बातों में रहूं? अरे इसके लिए मुझे यह मानवजीवन नहीं मिला । हां मुझे जीना पड़ता है, खाना पड़ता है, लेकिन खा खाकर ही मेरा पूरा न पड़ेगा । जी-जी करके भी मेरा पार न पड़ेगा । मुझे चाहिए उत्कृष्ट जीवन जहाँ भव धारण ही न करना पड़े और यह आत्मा जो अपने स्वरूप से एकाकी है, जैसे यह एकत्वमत है बस वैसा ही मैं व्यक्त हो जाऊं सारे झूठे झगड़े ये सब समाप्त हो जायें ।
अपने जीवन के सर्वसमय के सदुपयोग की भावना―इस जीवन की एक भी घड़ी धर्म बिना व्यतीत न हो, ऐसा वह विचार करता है सामायिक में, एक क्षण भी मेरा अधर्म में मत जाय । दुर्विचार होता है तो तत्काल कर्मबंध होता है और उन कर्मो की स्थिति में कोड़ा कोड़ी सागरों तक दु:ख भोगना पड़ता है । अब उस दुःख को दूसरा कौन भोगने आयगा ? कोई दूसरा मेरा सहाय न होगा, मुझे ही अकेले भोगना होगा, सो मेरे जीवन के एक भी क्षण में मेरा खोटा भाव न बने । ऐसा व्रती श्रावक आत्मकरुणा करके अपना समीचीन चिंतवन कर रहा है । आज के दिन पूजन में, जाप में, अमुक में मेरा कितना समय व्यतीत हुआ, आज की रात्रि जिनेंद्र भक्ति, स्वाध्याय, तत्त्वचर्चा आदि में मेरा कितना समय व्यतीत हुआ अब वह ध्यान करता है कि मेरा उपयोग अच्छे कामों में लगे । कितना समय मैंने बेकार खोया । पंच परमेष्ठी के जाप ध्यान में, पात्रदान में मैंने कितना काल व्यतीत किया, पापारंभ में, इंद्रिय के विषयों में, व्यवहार आदिक विकथावों में, निद्रा कामसेवन आदि में मेरा कितना समय गुजरा और धर्म के कार्यों में मेरा कितना समय गुजरा, बस यह ही तो जमाखर्च है, और उससे वह अंदाज करता है कि मैं कितना तो नफे में रहा और कितना टोटे में । सामायिक में बैठा हुआ यह व्रती श्रावक अपने खोटे कर्मों की निंदा कर रहा है किसी व्यवहार करते में मायाचारी की हो । मिथ्यात्व वश होकर किसी को बहकाया हो या क्रोधवश होकर दुःख उत्पन्न करने वाले वचन बोला हो तो वह मेरे लिए धिक्कार है । क्यों ऐसा खोटा व्यवहार मेरे से हुआ ऐसा यह व्रती श्रावक सामायिक में चिंतन करता है जो कुछ अशुभ व्यवहार हुआ उसका फल मैं ही भोगूंगा । क्यों ऐसा खोटा काम करूं कि जिसके उदय में मेरा भविष्य बिगड़े? आज पुण्यकर्म का उदय है, कुछ प्रभाव है, धन है या अन्य प्रकार के बल है । यदि इनका मैं दुरूपयोग करूं तो उसके फल में मेरा भविष्य बड़ी दुर्दशा में जायगा । जो समागम मुझे प्राप्त है, जो बल प्राप्त है उसका सदुपयोग करूँ तो मेरा भविष्य उज्ज्वल रहे । मेरी करनी का सब कुछ फल मेरे ही साथ है । तो जगत में मेरा कोई शरण नहीं हो पाता, सामायिक में ठहरा हुआ यह व्रती श्रावक अन्य संबंधित धार्मिक चिंतवन करता, पर उसकी धुन यह रहती कि मैं इन विकल्पों से भी हटकर निर्विकल्प ज्ञान ज्योति मात्र सरल सत्य चैतन्य स्वभाव वह ही मेरे उपयोग में रहे और ज्ञान और ज्ञेय एक हों, वही जाना जा रहा है, वही जानने वाला है, ऐसी स्थिति पाकर अलौकिक सहज आनंद का अनुभव करूँ, बस मूल ध्यान तो ज्ञानी पुरुष का यह है, और इसी की पूर्ति के लिए बाकी सब कार्य करता है ।
अनेक व्यावहारिक धर्मकर्तव्यों के बीच बीच आत्मदृष्टि का प्रयोग―जैसे किसी का विवाह हुए अभी साल छह माह ही हुए तो उसकी ससुराल से कोई दूसरी बिरादरी के लोग भी आये हों तो वह उन्हें अपने घर में बड़ी अच्छी तरह से ठहराता है, उनकी बड़ी खातिर करता है, खिलाता पिलाता है । बीच-बीच वह पूछ भी लेता कि कहो सासजी के क्या हाल हैं, स्वसुरजी ठीक हैं, फलाने ठीक हैं ना? कोई भी बात करे बीच-बीच वह अनेक बातें पूछ लेता है । देखिये काम तो वह व्यवहार में अनेक करता पर जिस बात की उसे धुन है उसकी बात बीच-बीच में वह करता जाता, तो ऐसे ही इस ज्ञानी व्रती श्रावक की धुन की बात तो सहज परमात्मतत्त्व है । सो यह कुछ भी करता है पंच परमेष्ठी का जाप अथवा अन्य धार्मिक चिंतन अथवा कुछ भी कर रहा हो, पर इसकी धुन जो है सो उन सब कार्यों में लगता रहता है, झट फिर अपने आपके स्वरूप की ओर ही आता है और अपने आप में ही मग्न होना चाहता है । सो यह व्रती श्रावक सामायिक में अपने को स्वरूपमग्न करने का एक परम परिश्रम करना चाहता है सामायिक में ऐसा चिंतन चलता है कि जिससे ऐसे अयोग्य कार्यों में हमारी वृत्ति न बने । और मुख्य बात है वचन की । मनुष्य के पास धन क्या है? वचन । चाहो इन्हीं वचनों से सुख उपजा लो, इन्हीं वचनों से दु:खी कर डाले । एक वचन धन है मनुष्य है, तब वचनयोग सदैव हमारा इतना सुहावना होना चाहिए कि जो विरोधी भी है, प्रतिकूल चेष्टा करने वाले भी हैं उनके भी मन को शांति प्राप्त हो । अशांति न जगे ऐसे वचनों का प्रयोग होना चाहिए । जिसने अपने वचनों की सम्हाल की उसने समझो अपनी सब लौकिक सम्हाल कर लिया और उस सम्हाल के कारण धर्म में भी उसका मन लगेगा और वास्तविक धर्म के पालन में उत्साह भी जगेगा । कोई विघ्न न आ सके, हम खोटे वचन बोलकर ही अपने को झंझट में डालते हैं थोड़ी देर को खोटे वचन बोलकर फिर रात दिन झंझट में रहें, तो ऐसे वचन मैं क्यों बोलूं? मौन रहें, और जब बोलें तो ऐसे सद्वचन बोलें कि जिससे दूसरों को सुख शांति हो । यह सब चिंतन सामायिक में व्रतीश्रावक करता है ।